सर्दी में दुर्गम इलाकों वाली सरहद पर टिके जांबाज, ट्रेनिंग से मिलती है सैनिकों को ताकत

सियाचिन में जब बर्फबारी होती है तो तापमान -40 या -50 डिग्री सेल्सियस या इससे भी नीचे गिर जाता है। वहां मशीनें तक अपनी क्षमता का एक चौथाई प्रदर्शन कर पाती हैंतो फिर चलते-फिरते इंसानों की क्या बिसात है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Wed, 03 Feb 2021 09:09 AM (IST) Updated:Wed, 03 Feb 2021 09:13 AM (IST)
सर्दी में दुर्गम इलाकों वाली सरहद पर टिके जांबाज, ट्रेनिंग से मिलती है सैनिकों को ताकत
लद्दाख और सियाचिन जैसे ठंडे इलाकों में तैनाती से पहले सैनिकों को पर्याप्त ट्रेनिंग दी जाती है। फाइल

अभिषेक कुमार सिंह। कहीं सर्दी, कहीं गर्मी, कहीं भारी बरसात-एक आम व्यक्ति को बदलते मौसम से तालमेल बिठाना अक्सर भारी पड़ जाता है। पर जब बात दुर्गम इलाकों वाली सरहदों की हो, जहां मौसम किसी दुश्मन जैसा बर्ताव करता हो तो लोगों की मुश्किलें कितनी ज्यादा बढ़ जाती होंगी इसका हम सिर्फ अनुमान ही लगा सकते हैं। कुछ ऐसी ही कहानी पिछले साल जून में लद्दाख की गलवन घाटी में चीन की शरारत के बाद से पूर्वी लद्दाख से लगती चीनी सीमाओं पर डटे करीब 50 हजार भारतीय जवानों की है। वे बीते कई महीनों से वहां सख्ती से सरहद की पहरेदारी कर रहे हैं। इसके लिए बर्फीली सर्दी में अपनी जान की परवाह भी नहीं कर रहे हैं।

उच्च हिमालयी चौकियों पर सेना और आइटीबीपी के ये जवान शून्य से 15 से लेकर 50 डिग्री सेल्सियस तक नीचे के तापमान में सरहद की रखवाली में पूरी मुस्तैदी से डटे हुए हैं। हालांकि इस मामले में चीनी फौजी कमजोर साबित हुए हैं। पिछले दिनों यह सूचना मिली कि चीन ने सर्दियों में टिक पाने में नाकाम रहने की सूरत में पूर्वी लद्दाख की वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) से अपने 10 हजार सैनिकों को वापस बुला लिया है। हालांकि आमने-सामने वाले इलाकों में स्थिति पहले जैसी ही है। खास बात यह है कि चीन की गलत मंशा के मद्देनजर भारत सरकार ने ऐसा नहीं किया। इस मामले में हमारे जांबाज सैनिक सरकार का पूरा साथ दे रहे हैं।

सियाचिन की जानलेवा ठंड: सियाचिन में जब बर्फबारी होती है तो 30 से 40 फीट तक बर्फ जमा हो जाती है। ठंड इतनी होती है कि तापमान -40 या -50 डिग्री सेल्सियस या इससे भी नीचे गिर जाता है। पाकिस्तानी करतूतों का माकूल जवाब देने के लिए सियाचिन में तैनात सैनिक जब कभी अपनी पोस्टिंग से लौटते हैं तो अक्सर कहते हैं कि अगर वहां संतरे या मुर्गी के अंडे को कुछ मिनट के लिए खुले में रख दिया जाए तो वह जमने के साथ इतना सख्त हो जाता है कि फिर उसे हथौड़े से भी नहीं तोड़ा जा सकता है। वहां मशीनें तक अपनी क्षमता का एक चौथाई प्रदर्शन कर पाती हैं तो फिर चलते-फिरते इंसानों की क्या बिसात है। पर अब इस चर्चा में सियाचिन के साथ-साथ पूर्वी लद्दाख का नाम भी जुड़ गया है, जहां हमारे 50 हजार फौजी चीनी सैनिकों की आंखों में आंखें डालकर उनकी हरकतों पर नजर रख रहे हैं।

सियाचिन के मुकाबले पूर्वी लद्दाख में भारतीय सैनिकों की तैनाती ज्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि सियाचिन में तो एक वक्त में तैनात भारतीय फौजियों की संख्या अमूमन 2500 से ऊपर नहीं जाती, जबकि पूर्वी लद्दाख में इससे 20 गुना ज्यादा तादाद में हमारे सैनिकों को मुस्तैद बनाए रखने के प्रबंध किए गए हैं। असल में भीषण ठंड वाले इलाकों में सैनिकों को तैनात करने में सबसे बड़ी मुश्किल बर्फ और ठंड ही पैदा करती हैं। पिछले साल जून में जब गलवन घाटी की घटना हुई थी तो सोचा गया था कि चीनी सैनिकों की घुसपैठ का मसला दोनों देशों की सरकारों और सैन्य कमांडर स्तर की बातचीत के बाद सुलझ जाएगा।

ऐसा होने पर वहां बर्फ, बर्फीली हवाओं और शून्य से बेहद नीचे के तापमान वाली स्थितियों में सैनिकों की तैनाती यानी विंटर पोस्टिंग की जरूरत नहीं पड़ती। लेकिन कमांडर स्तर की वार्ता के बाद भी एलएसी पर सैनिकों को अपनी पोजीशन से हटने का आदेश नहीं मिल सका। निश्चित ही हमारे वीर सैनिकों के मनोबल में कोई कमी नहीं है, पर कुदरत से वे कैसे निपटें? हालांकि सरकार की पूरी कोशिश है कि हमारे सैनिकों को सियाचिन की तरह ही पूर्वी लद्दाख में भी वे सारी सुविधाएं और उपकरण मिलें, जिनसे वे दुश्मन के अलावा सर्दी के कहर से भी निपट सकें। लद्दाख में सैनिकों को किन कुदरती चुनौतियों का सामना करना पड़ता होगा, इसका अंदाजा सियाचिन में मिले पूर्व अनुभवों से हो जाता है।

सर्द इलाकों में तैनाती की मुश्किलें: सियाचिन और लद्दाख जैसे सर्द इलाकों में पीने का पानी हासिल करना ही मुश्किल नहीं है, बल्कि वहां तो बोलने में भी कठिनाई आती है। वहां बात करते वक्त अक्सर आवाज अस्पष्ट हो जाती है। बर्फ और ठंड के सिवाय अत्यधिक ऊंचाई और ऑक्सीजन की कमी एवं हवा के कम सघन होने के कारण भी वहां शरीर ठीक से काम नहीं कर पाता है। सियाचिन या लद्दाख में बर्फ, तेज हवा और सर्द मौसम से होने वाली समस्याओं का आकलन करने के लिए देश के रक्षा शोध एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) ने कुछ समय पहले सेना के 15 डॉक्टरों और तीन विज्ञानियों की एक टीम बनाई थी। उस टीम ने वर्ष 2012 से 2016 के बीच अध्ययन करके बताया था कि पर्वतारोहियों की तरह सियाचिन और लद्दाख जैसे अन्य बर्फीले इलाकों में तैनात सैनिक भी फ्रॉस्टबाइट से जूझ सकते हैं। फ्रॉस्टबाइट का मतलब यह है कि अगर सैनिक ऐसे बर्फीले मौसम में नंगे हाथों से राइफल के बैरल या टिगर को छू लें तो उन्हें अपना हाथ भी गंवाना पड़ सकता है।

दरअसल वहां अत्यधिक ठंड से अंगुलियां गल जाती हैं। इसके अलावा कई बार श्वसन तंत्र के जरिये फेफड़ों में संक्रमण से निमोनिया भी हो जाता है। यही वजह है कि इन इलाकों में सैनिकों को पोस्टिंग की अवधि में नहाने और दाढ़ी बनाने की छूट भी नहीं मिलती है। टीम ने यह भी बताया था कि सर्द इलाकों में तैनात सैनिकों के दिल या मस्तिष्क में ब्लड क्लॉटिंग (खून का थक्का जमना) की भी समस्या पैदा हो सकती है। यह समस्या फ्रॉस्टबाइट से ज्यादा गंभीर होती है। मैदानी इलाकों के मुकाबले ग्लेशियरों में ब्लड क्लॉटिंग का खतरा सौ गुना ज्यादा होता है। इसमें जान जाने का खतरा सबसे ज्यादा होता है। इतनी विपरीत स्थितियों में ज्यादा दिनों तक रहने से सैनिकों की भूख और नींद भी मरने लगती है। वजन घटने लगता है। याद्दाश्त कमजोर पड़ने लगती है।

इसके कुछ और खतरे भी हो सकते हैं। जैसे ज्यादा ऊंचाई पर लंबे समय तक शून्य से नीचे के तापमान में रहने के कारण जवानों को दिल की धड़कनें तेज होने संबंधी बीमारी हो सकती है। इससे उनके फेफड़ों में पानी भी भर सकता है। लद्दाख, सियाचिन और सिक्किम में कई ऐसे इलाके ऐसे हैं, जहां सैनिकों को बेहद ऊंचाई वाले इलाकों में कम तापमान के अलावा कम वायुमंडलीय दबाव और कम ऑक्सीजन के साथ रहना पड़ता है। हालांकि सैनिकों को ऐसी समस्याओं से बचाने के लिए लेह में भारतीय सेना का एक आधुनिक अस्पताल बनाया गया है, जहां ऑक्सीजन की प्रचुर उपलब्धता वाले कई चैंबर मौजूद हैं। बीमार जवानों को वहां लाकर ऐसी दवाइयां भी दी जाती हैं, जिनसे उनके फेफड़ों में कोई बदलाव न होने पाए। यह अस्पताल मूलत: सियाचिन में तैनात सैनिकों के लिए बनाया गया था, पर अब यह लद्दाख में मौजूद सैनिकों की भी मदद कर रहा है।

लद्दाख और सियाचिन जैसे इलाकों में तैनाती से पहले सैनिकों को हथियार चलाने के अलावा हिम्मत बढ़ाने और सर्दी में मददगार साबित होने उपकरणों के संचालन की ट्रेनिंग भी दी जाती है। सैन्य नियमों के मुताबिक इन जगहों पर सैनिकों की पोस्टिंग का एक निश्चित कार्यक्रम होता है। जैसे-सियाचिन और लद्दाख में ऊंची जगहों पर भेजने से पहले सैनिकों को बेस कैंप में स्थित सियाचिन बैटल स्कूल में वैज्ञानिक तरीके से एक महीने की ट्रेनिंग दी जाती है। इसमें जवानों को बर्फीले र्दे पार करने, बर्फ की मोटी दीवारों पर सीधी चढ़ाई करने, हिमस्खलन से जमा हुई बर्फ को साफ करने और आपदा के दौरान बचाव-राहत कार्य चलाने के बारे में प्रशिक्षण दिया जाता है। यदि कोई सैनिक एक बार में इस ट्रेनिंग को पूरा नहीं कर पाता है तो उसे एक महीने की ट्रेनिंग और दी जाती है, ताकि वह लद्दाख या सियाचिन जाने के योग्य हो सके।

ट्रेनिंग के दौरान सैनिकों को बर्फीले स्थानों पर इस्तेमाल में लाए जाने वाले उपकरणों की जानकारी दी जाती है। ये उपकरण इन सैनिकों को हर वक्त अपने पास रखने होते हैं। इनमें खास किस्म के चश्मे होते हैं। ये चश्मे सौ फीसद पराबैगनी प्रतिरोधी होते हैं, ताकि दिन में सूरज चमकने और उसकी चमक बर्फ पर पड़ने के बाद आंखों में जाए तो आंखों की रोशनी जाने का खतरा पैदा नहीं हो। सैनिकों को खास कपड़ों के अलावा एल्युमीनियम अलॉय और पॉलीथिन पैड से बने बेहद मजूबत पिट्ठू-बैग से लैस किया जाता है, जिसमें वे 25 किलोग्राम तक का सामान ढो सकते हैं।

सियाचिन में तैनात सैनिक लंबे समय से ऑस्ट्रेलियाई जैकेट और पैंट का इस्तेमाल करते आ रहे हैं। थर्मल कपड़ों से बनी चार परतों वाली इस जैकेट में बत्तख के पंख भरे होते हैं। ये जैकेट और पैंट सैनिकों को तेज हवाओं और मौसम के दूसरे प्रभावों से बचाती हैं। सैनिक सबसे ऊपर जो कोट पहनते हैं उसे स्नो कोट कहते हैं। इस बार सियाचिन, लेह-लद्दाख और सिक्किम में तैनात होने वाले जवानों के लिए तीन लेयर वाले एक्सट्रीम कोल्ड वेदर क्लोदिंग सिस्टम की भी व्यवस्था की गई है। इन्हें अमेरिका से मंगाया गया है।

एक सेट की कीमत 35 से 50 हजार रुपये तक बताई गई है। इस सिस्टम की बाहरी परत गोरटेक्स नामक कपड़े की बनी है। गोरटेक्स वाटरप्रूफ और ब्रीदेबल फैब्रिक होता है। यह तरल पदार्थ जैसे पानी को अंदर नहीं आने देता, मगर भाप को अंदर आने देता है। यह बेहद हल्का होता है। सैनिकों को बर्फ के नुकसान से बचाने वाले दस्ताने भी मुहैया कराए जाते हैं। इन्हें ऐसे बनाया जाता है, ताकि सैनिक राइफल चला सकें। सियाचिन में तैनात सैनिकों को चार किलोग्राम तक वजन वाले बूट पहनने पड़ते हैं। इनके तलों में कीलें लगी होती हैं। ये खास जुराबों से लैस होते हैं, जो सैनिकों के पैरों को शून्य से 50 डिग्री नीचे के तापमान में सुरक्षित रखते हैं। हथियार के रूप में इंसास राइफल के साथ-साथ एक सैनिकों को रेडियो सेट, बैटरियां और हिमस्खलन में दबे लोगों का पता लगाने में सहायता करने वाले यंत्र, बर्फ काटने वाली कुल्हाड़ी, रस्सी आदि को भी हमेशा साथ रखना पड़ता है।

[एफआइएस ग्लोबल से संबद्ध]

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