'ज्ञान व अज्ञान बुद्धि और चिता या चितन करना चित्त का धर्म'

जागरण संवाददाता कठुआ नगरी स्थित माता बाला सुंदरी मंदिर में चल रहे श्रीमद् भागवत कथा के तीस

By JagranEdited By: Publish:Fri, 17 Sep 2021 05:42 AM (IST) Updated:Fri, 17 Sep 2021 05:42 AM (IST)
'ज्ञान व अज्ञान बुद्धि और चिता या चितन करना चित्त का धर्म'
'ज्ञान व अज्ञान बुद्धि और चिता या चितन करना चित्त का धर्म'

जागरण संवाददाता, कठुआ: नगरी स्थित माता बाला सुंदरी मंदिर में चल रहे श्रीमद् भागवत कथा के तीसरे दिन संत सुभाष शास्त्री जी महाराज ने संगत को सत्संग के महत्व विषय के बारें में समझाते हुए कहा की सत्संग साधन है, स्वयं को जानने, शंकाओं का समाधान पाने और जीवन को मंगलमय कर लेने का।

उन्होंने कहा कि जगत में यूं तो असंख्य प्राणी जीते हैं, लेकिन जीना उन्हीं का सार्थक है जो परमात्मा का होकर परमात्मा को जानकर, मानकर परमात्मा के लिए ही जीते हैं। उन्होंने समझाया कि अपने को गृहस्थी मानकर यह मेरे हैं और मैं इनका हूं, इन्हीं के लिए हूं, ऐसी सोच का नाम बंधन दुख और मैं केवल परमात्मा का हूं, परमात्मा मेरे है, इस निष्ठा का नाम भक्त और संत एवं तत्तवत: है, मैं वही हूं जो वह है, इस स्थिति का नाम है मोक्ष व परमसुख। सत्संग में जो बोला जा रहा है, उसे ध्यान से सुनें, आप मोहरूपी नींद को छोड़े, सजग होकर समझे, सत्संग में विवेक रूपी प्रकाश में जगे तो बात बनेगी।

उन्होंने कहा कि जैसे आपने देह को स्वीकारा है कि मैं देह हूं, ऐसे आपने ब्रह्म को नहीं स्वीकारा है, आपको यह क्यों नहीं समझ में आता है कि मैं देह यानि शरीर नहीं हूं, देखें, शरीर जन्मता मरता है, मैं नहीं, शरीर पर बचपन, जवानी, बुढ़ापा और रोग होता है। भूख प्यास प्राणियों को लगती है, सर्दी, गर्मी, पीड़ा, सुख-दुख, हर्ष-शोक भय आदि मन का धर्म हैं। कर्म इंद्रियों द्वारा होते हैं। ज्ञान-अज्ञान बुद्धि का धर्म है। चिता या चितन करना चित्त का धर्म है। इस प्रकार जब आप, जिसका जो धर्म है शरीर, इंद्रियां, प्राण, अन्त:करण, उसे देखें तो आप अपने को इन सबसे न्यारा अनुभव करोगे। यह सब कुछ आप केवल किसी ब्रह्मज्ञानी संत से सत्संग द्वारा ही सीख सकते हैं।

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