Kashmir में निर्दोष लोगों के बहते खून पर यह कैसी चुप्पी, मानवाधिकारों के ठेकेदारों ने क्यों नहीं उठाई आवाज

लोगों का जमीन पर बहता खून चिनार के पत्तों की सुर्खी से कहीं ज्यादा गहरा लाल है। इससे आम कश्मीरी पूरी तरह सहमा हुआ है। उसे समझ नहीं आ रहा है कि वह कहां जाए कोई उसे दिलासा देने क्यों नहीं आ रहा है? कहां गए मानवाधिकारों के तथाकथित झंडाबरदार?

By Lokesh Chandra MishraEdited By: Publish:Fri, 08 Oct 2021 07:03 AM (IST) Updated:Fri, 08 Oct 2021 07:03 AM (IST)
Kashmir में निर्दोष लोगों के बहते खून पर यह कैसी चुप्पी, मानवाधिकारों के ठेकेदारों ने क्यों नहीं उठाई आवाज
खून तो खून होता है, चाहे कश्मीर में बहे या लखीमपुर खीरी में। इंसानियत के पैरोकार कश्मीर से दूर क्यों?

श्रीनगर, नवीन नवाज : कश्मीर में ठंड की दस्तक के साथ चिनार के पत्ते एक बार फिर सुर्ख हो रहे हैं, लेकिन इस बार यह रूमानियत नहीं जगा रहे, बल्कि डरा रहे हैं। निर्दाेष लोगों का जमीन पर बहता खून चिनार के पत्तों की सुर्खी से कहीं ज्यादा गहरा लाल है। इससे आम कश्मीरी पूरी तरह सहमा हुआ है। उसे समझ नहीं आ रहा है कि वह कहां जाए, कोई उसे दिलासा देने क्यों नहीं आ रहा है? कहां गए मानवाधिकारों के तथाकथित झंडाबरदार? क्यों नहीं किसी पंथनिरपेक्षता के ठेकेदार ने इस्लामिक आतंकियों को नाम लेकर लताड़ा? खून तो खून होता है, फिर चाहे वह कश्मीर में बहे या लखीमपुर खीरी में। इंसानियत के पैरोकार कश्मीर से दूर क्यों हैं? क्यों वह इस्लामी आतंकियों को जन्नत जैसी वादी-ए-कश्मीर को जहन्नुम बनाते हुए चुपचाप देख रहे हैं?

एक-दो नहीं बल्कि 25 निर्दाेष नागरिक इस वर्ष अब तक आतंकियों के हाथों मारे जा चुके हैं। मक्खन लाल बिंदरू ने कश्मीरी हिंदू होने और कश्मीर से पलायन न करने की कीमत चुकाई। ठेले पर गोल गप्पे बेच अपने परिवार का पेट पालने वाला वीरेंद्र पासवान हो या बच्चों को पढ़ाने वाला दीपक चंद या फिर प्रिंसिपल सुपिंदर कौर, सभी ने गैर मुस्लिम होने की कीमत चुकाई है। इससे पहले राकेश पंडिता, मुहम्मद शफी लोन, मेहरान अली, जावेद डार, जवाहरा बेगम, शंकर कुमार, आकाश मेहरा को भी राष्ट्रवाद का झंडा उठाने के लिए अपनी जान देनी पड़ी थी।

बस, रस्मी बयान कर देते हैं जारी : देश के हर नागरिक के लिए अपने दिल में दर्द रखने का दावा करने वाले राहुल गांधी, प्रियंका, पी. चिदंबरम, मुलायम-अखिलेश, मायावती, लालू यादव, चिराग पासवान, ममता बनर्जी तक कोई कश्मीर में इन हत्याओं की निंदा नहीं करता। बस, रस्मी बयान जारी करते रहे हैं। महबूबा मुफ्ती, उमर अब्दुल्ला, फारूक अब्दुल्ला, जीए मीर स्थानीय सियासी सरोकारों के बीच दो लाइन की निंदा कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं। इतना ही नहीं यह सब सुरक्षा एजेंसियों और केंद्र सरकार की नाकामी पर बात करते हुए आतंकियों को एक तरह से सही ठहरा जाते हैं।

काश, हत्याओं के विरोध में एक मार्च निकला होता : श्रीनगर के आलूचीबाग में सुपिंदर कौर के घर शोक जताने आए सरदार आजाद सिंह ने कहा कि हमारा रोना, हमारे कंधों पर जनाजा किसी को नहीं दिखाई देता, शायद इसलिए हमें कोई दिलासा देने दिल्ली और पंजाब से नहीं आता। अगर कश्मीर में निर्दाेषों की हत्या के खिलाफ एक मार्च दिल्ली या बंगाल से शुरू होता, तो आज हम यहां यूं गम न मना रहे होते।

किसी के पास बूढ़ी मां के सवाल का नहीं था जवाब : सुपिंदर की मौत से बेहाल हुई उसकी बूढ़ी मां घर में जमा मीडियाकर्मियों को देखते ही बोलीं.... मुझे गोली मारो, उसने क्या किया था, जो उसे कत्ल कर दिया। किसी के पास बिलखती मां के सवाल का जवाब नहीं था। इसी तरह शिक्षक दीपक चंद के जम्मू स्थित घर पर बिलखते स्वजन के सवालों का जवाब भी किसी के पास नहीं था।

खुद को कश्मीरी बाते वाले राहुल क्या कश्मीर आएंगे : कश्मीरी हिंदू वेलफेयर सोसाइटी के चुन्नी लाल ने कहा कि राहुल गांधी जो खुद को कश्मीरी कहते हैं, वह भी चुप रहते हैं। क्या राहुल गांधी कश्मीर आएंगे। पनुन कश्मीर के डा. अजय चुरंगु ने कहा कि कश्मीर में इस्लामिक आतंकी हिंसा को पोषण तो उन्हीं लोगों ने दिया है, जो कश्मीर में निर्दाेषों की हत्या पर चुप्पी साध लेते हैं। कभी एक मार्च बंगाल, दिल्ली या फिर पंजाब से निकलता, जिसमें मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी शामिल होते। गरीबों और पिछड़ों का मसीहा होने का दावा करने वाली मायावती और अखिलेश ने कभी निर्दाेष कश्मीरियों के कत्ल पर आवाज नहीं उठाई। बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है, विरेंद्र पासवान की दो दिन पहले ही मौत हुई है, क्या लालू प्रसाद यादव ने निंदा भी की है।

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