Target Killing In Kashmir : भारतीयता की निशानी हैं, इसलिए आतंकियों के निशाने पर हैं श्रमिक

Target Killing In Kashmir वर्ष 2007 में तो कई स्थानीय दुकानदारों ने अपनी दुकानों पर काम करने वाले गैर कश्मीरी लोगों को निकाल दिया था। बीते साल मारे गए आतंकी कमांडर रियाज नाइकू ने फरवरी 2019 में धमकी दी थी कि कश्मीर में कोई गैर कश्मीरी नहीं रह पाएगा।

By Rahul SharmaEdited By: Publish:Mon, 18 Oct 2021 12:23 PM (IST) Updated:Mon, 18 Oct 2021 01:04 PM (IST)
Target Killing In Kashmir : भारतीयता की निशानी हैं, इसलिए आतंकियों के निशाने पर हैं श्रमिक
वनपोह कुलगाम में जो इतवार की शाम को हुआ है, न वह शुरुआत है और न अंत।

श्रीनगर, नवीन नवाज :

दक्षिण कश्मीर में छोटा बिहार कहलाने वाले कुलगाम जिले के वनपोह में अजब सी खामोशी है। सुबह बाजार में श्रमिकों की भीड़ आज भी नजर आई, लेकिन कोई दिहाड़ी नहीं बल्कि अपने घरों को लौटने के लिए गाड़ी तलाश रहे थे। बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, ओडिशा और मध्य प्रदेश समेत देश के विभिन्न राज्यों से कश्मीर में रोजी-रोटी कमाने आए इन लोगों के चेहरे पर भय की लकीरें हालात की सच्चाई बयान कर देती हैं। अपने भाई के साथ जम्मू के लिए टैक्सी में सवार हो रहे नीतेश्वर साहू ने कहा कि साहब, हम तो यहां सिर्फ रोजी-रोटी कमाने आए हैं, हमारा क्या कसूर। फिर हमें क्यों धमकाया जा रहा है। सवाल का जवाब आसान है, लेकिन कोई खुलकर नहीं बोलना चाहता, क्योंकि जो बोलेगा वही नंगा हो जाएगा। चाहे फिर स्थानीय समाज हो, सियासतदान हों या फिर सरकारी तंत्र।

वनपोह में जो गत रविवार की शाम को हुआ है, वह शुरुआत है न अंत। कश्मीर में गैर कश्मीरियों, गैर मुस्लिमों पर हमले और उनका कत्ल हमेशा सुर्खियां नहीं बनता। यह सिर्फ तत्कालीन परिस्थितियों के आधार पर हंगामा पैदा करता है। कुछ दिनों तक सभी छाती पीटते हैं, आतंकियों और पाकिस्तान को कोसते हैं, सुरक्षा एजेंसियां सुरक्षा व्यवस्था बढ़ाने का दावा करती हैं और फिर सब शांत हो जाता है, क्योंकि सभी का मकसद हो पूरा हो चुका होता है।

बीते 18 दिनों में कश्मीर में हुई नागरिक हत्याओं के लिए लश्कर-ए-तैयबा का हिट स्क्वाड कहे जाने वाले आतंकी संगठन टीआरएफ, आइएस (इस्लामिक स्टेट) के स्थानीय संगठन इस्लामिक स्टेट विलाया हिंद के अलावा कश्मीर फ्रीडम फाइटर्स ने जिम्मेदारी ली है। सभी इन्हें कश्मीर में सुधरते हालात या फिर पांच अगस्त 2019 को जम्मू कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम को लागू किए जाने से जोड़कर देखते हैं। यह सच है, लेकिन अधूरा। वर्ष 2019 में अगस्त से दिसंबर तक दूसरे राज्यों के करीब 18 लोग श्रमिक कश्मीर में मारे गए और इस साल सिर्फ अक्टूबर में यह संख्या 5 हो चुकी है।

दिवंगत अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी रहे हों या उदारवादी हुर्रियत प्रमुख मीरवाइज मौलवी उमर फारुक या फिर आतंकी संगठन, सभी ने समय-समय पर बयान जारी कर अन्य राज्यों से कश्मीर में रोजी-रोटी कमाने आए लोगों को कश्मीर छोडऩे का फरमान सुनाने के अलावा उन्हें भगाने के लिए सुनियोजित अभियान चलाए हैं। वर्ष 2006 से 2009 तक लगभग हर वर्ष इन लोगों के खिलाफ कश्मीर में स्थानीय सिविल सोसाइटी के सहयोग से कट्टरपंथियों ने अभियान चलाए हैं। वर्ष 2007 में तो कई स्थानीय दुकानदारों ने अपनी दुकानों पर काम करने वाले गैर कश्मीरी लोगों को निकाल दिया था। हिजबुल मुजाहिदीन के बीते साल मारे गए आतंकी कमांडर रियाज नाइकू ने फरवरी 2019 में धमकी दी थी कि कश्मीर में कोई गैर कश्मीरी नहीं रह पाएगा।

कश्मीर में गैर मुस्लिम और गैर कश्मीरी शुरू से ही आतंकियों और इस्लामिक कट्टरपंथियों के निशाने पर रहे हैं। कश्मीरी ङ्क्षहदुओं के कश्मीर से पलायन के बाद अलगाववादी और आतंकी कश्मीर में किसी को भारत का प्रतीक मानते हैं तो वह देश के विभिन्न हिस्सों से कश्मीर में काम करने आए पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल व अन्य राज्यों के नागरिक हैं, फिर चाहे वह हिंदू हों या मुस्लिम। कश्मीर में एक वर्ग विशेष तो उत्तर प्रदेश, बिहार व अन्य राज्यों के मुस्लिमों को मुस्लिम नहीं, बल्कि हिंदुस्तानी मानता है। कश्मीर में खुद को इस्लाम का सबसे बड़ा वफादार मानने वाले कट्टरपंथियों ने ही नहीं, बल्कि मुख्यधारा के कई राजनीतिक दलों के नेताओं ने भी अक्सर गैर कश्मीरी श्रमिकों व अन्य लोगों के कत्ल को परोक्ष रूप से अपनी बयानबाजी में सही ठहराया है।

देश के अन्य राज्यों से कश्मीर में रोजी-रोटी कमाने की उम्मीद में आने वालों को अलगाववादी और आतंकी खेमा व उनके सफेदपोश समर्थक कश्मीर में निजाम ए मुस्तफा की बहाली में एक बड़ा रोड़ा मानते हैं। वह देश के विभिन्न हिस्सों से कश्मीर आए नागरिकों केा उत्पीडऩ, उनके कत्ल को सही ठहराने व आम लोगो में उनके प्रति नफरत पैदा करने के लिए, उनकी मौजूदगी को कश्मीर के मुस्लिम बहुसंख्यक चरित्र को बदलने की साजिश करार देते हैंं। इसलिए स्थानीय समाज भी कुछ अपवादों को अगर छोड़ दिया जाए तो गैर कश्मीरियों की हत्या पर अक्सर मौन रहता है। वह यह कहकर अपना पल्ला झाडऩे का प्रयास करता है कि कश्मीर मसला हल किया जाना चाहिए तभी यह रुकेगा और यही बात नेशनल कांफ्रेंस, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी व अन्य कश्मीर केंद्रित दल कहते हैं। यह सभी कहते हैं कि इन हत्याओं का 'रूट कॉज (समस्या की जड़)Ó का समाधान जरूरी है। यह आतंक और अलगाववाद के खात्मे की बात करने के बजाय अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए एक तरह से इन घटनाओं के साथ-साथ अलगाववादियों के एजेंडे को सही ठहराने का प्रयास करते हैं। इसलिए कश्मीर में कभी भी अल्पसंख्यकों की हत्या के खिलाफ किसी राजनीतिक दल या सिविल सोसाइटी ने आम लोगों के साथ मिलकर रोष मार्च नहीं निकाला।

कश्मीर के मौजूदा हालात के लिए बीते 75 वर्षों की सियासत, कश्मीर में निजाम-ए-मुस्तफा लागू करने की मुहिम, पाकिस्तान का योगदान स्पष्ट रूप से जिम्मेदार नजर आता है, लेकिन मौजूदा हुकूमत की जिम्मेदारी भी है जो शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर देकर बैठी है, जिसके पास हालात सामान्य दिखाने के फोटो सेशन के अलावा वक्त नहीं है, जो जमीनी हकीकतों से मुंह मोड़कर अपने अपरिपक्व फैसलों से आतंकियों व अलगाववादियों के एजेंडे के आगे हथियार डालती नजर आती है।

कश्मीर में बाहरी श्रमिकों की सामूहिक हत्या की प्रमुख घटनाएं पहली अगस्त 2000 : मीरबाजार अंनतनाग में 19 और अच्छाबल में सात श्रमिकों की हत्या जून 2006 : कुलगाम में नौ श्रमिकों की हत्या 24 जुलाई 2007 : बटमालू बस स्टैंड पर ग्रेनेड हमले में पांच श्रमिकों की मौत 25 जख्मी 29 अक्टूबर 2019 : कुलगाम के कतरस्सु में छह बंगाली मजदूरों की हत्या

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