आखिर क्‍या है आइएएस का मतलब, तीन दशक पहले और वर्तमान में आया इतना फर्क, पढ़ें पूरा मामला

Himachal IAS Officers बीते दिनों शिमला के एक होटल में धुत होकर हंगामा मचाने वाले ब्यूरोक्रेट के बारे में सामने आया ही था और यह पता चल ही रहा था कि सचिवालय में उच्च आसन पर बैठे यह साहब कौन हैं... कि अचानक एक और आइएएस घिर गए।

By Rajesh Kumar SharmaEdited By: Publish:Thu, 22 Jul 2021 11:06 AM (IST) Updated:Thu, 22 Jul 2021 11:11 AM (IST)
आखिर क्‍या है आइएएस का मतलब, तीन दशक पहले और वर्तमान में आया इतना फर्क, पढ़ें पूरा मामला
आइएएस अफसरों की कार्यप्रणाली में काफी बदलाव देखने को मिल रहा है।

धर्मशाला, नवनीत शर्मा। बात 1987 की है। कांगड़ा जिला के भवारना कस्बे में एक चिकित्सा शिविर आयोजित हुआ। शिविर का एक हिस्सा कवि सम्मेलन भी था। सफेद रंग की एंबेसडर कार पर डीसी की झंडी लहरा रही थी। पिछली सीट पर जिलाधीश बैठे थे जबकि चालक के बराबर एक पुलिस कर्मचारी बैठा था। अचानक एक चौक पर गाड़ी रुकी। मुझे और पिता जी को उस गाड़ी में बिठा लिया गया। गाड़ी से अच्छी महक आ रही थी। 15 मिनट में शिविर तक पहुंच गए। कविता पाठ हुआ। शिविर की पहल करने वालों की प्रशंसा भी हुई। डीसी साहब ने साहित्य और काव्य पर अलग से आधा घंटा बात की। यह भी बताया कि व्यक्ति स्वस्थ होगा तो उसका साहित्य भी। फिर एक मेहरबान के घर भोज हुआ। लौटते हुए हमें घर तक छोड़ा गया।

घर पहुंच कर पिता जी से पहला सवाल किया, 'यह तो आम आदमी की तरह सामान्य बात और व्यवहार कर रहे थे। क्या यह सच में डीसी थे?' पिता जी ने कहा, 'हां, यह असली डीसी थे, इसीलिए ऐसे बात कर रहे थे...। इन्हें ब्यूरोक्रेट भी कहते हैं। कुछ जनता से घुल मिल जाते हैं और समाज को समझते हैं...कुछ अपने अंह की मीनारों पर टंगे रहते हैं।' डीसी थे पूर्ण चंद डोगरा।

इस घटना के 34 साल बाद बीते दिनों शिमला के एक होटल में धुत होकर हंगामा मचाने वाले ब्यूरोक्रेट के बारे में सामने आया ही था और यह पता चल ही रहा था कि सचिवालय में उच्च आसन पर बैठे यह साहब कौन हैं... कि अचानक एक और आइएएस एक महिला की शिकायत के कारण घिर गए। पता चला ब्यूरोक्रेट हैं और महिलाओं से ही जुड़े किसी विभाग का जिम्मा संभाल रहे थे। आरोप जांचे जाएंगे, कौन सही है, कौन गलत, यह जांच करने वाले ही जानें। सवाल यह है कि जिस अधिकारी का हुड़दंग सीसीटीवी कैमरे में कैद होकर बहुत ऊपर पहुंच गया, उस पर कार्रवाई क्यों न हो। आखिर कितने स्कूल-कालेज होंगे जहां बतौर मुख्य अतिथि नैतिकता का पाठ पढ़ाते होंगे और पढ़ाएंगे। क्या युवाओं के रोल माडल उन्हें धोखा दे रहे हैं?

ब्यूरोक्रेट....। यह शब्द जेहन में वर्षों से बैठा हुआ है। हिमाचल प्रदेश में अक्सर यह सुना कि अमुक जी की ब्यूरोक्रेसी पर पकड़ बेहद अच्छी थी, फलां जी की पकड़ बहुत ढीली थी...? यह वाक्य भी प्राय: सुनने को मिलता है, 'सरकारें तो काम करती हैं पर ब्यूरोक्रेसी नहीं करने देती।'

उदाहरण के लिए अब पंजाब में यह आकलन सामने आ रहा है कि क्योंकि कैप्टन अमरिंदर सिंह ब्यूरोक्रेसी पर ध्यान नहीं देते थे और कई मंत्रियों के काम नहीं होते थे, इसलिए आलाकमान ने नवजोत सिद्धू नामक तेज कैंची लेकर बुजुर्ग नेता के पर कतरने की योजना बनाई।

यह सच है कि नौकरशाही ही प्रशासन चलाती है... राजनीतिक नेतृत्व अगर उसे दृष्टि दे दे तो सोने पर सुहागा हो जाता है। लेकिन किसी समय यमुना से सटे दिल्ली के मैटकाफ हाउस में भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारियों को मिलने वाला प्रशिक्षण क्या कालांतर में मसूरी में मिलने वाले प्रशिक्षण से अलग हो गया है? क्या सिविल सेवाएं वास्तव में उतनी सिविल रह गई हैं? या इन्हेंं भी यह छूट दी जाए कि, 'विघटन तो हर क्षेत्र में हुआ है...नौकरशाही में भी हुआ हो तो क्या नई बात है?' लेकिन जहां हर सरकारी चिट्ठी की शुरुआत, 'एंड वेयरएज आइ...अमुक आइएएस...' से होती हो, वहां 'हर क्षेत्र में व्याप्त विघटन' से बचना भी तो इन्हीं का दायित्व है। यह किस तरह की प्रतिरोधक क्षमता है कि आम आदमी शांति भंग करे तो उसकी रात थाने में कटे और एक नौकरशाह हुड़दंगी हो जाए तो कोई बात नहीं?

इसी हिमाचल ने कई हिम्मत वाले और हमेशा अच्छे कारणों से चर्चा में रहने वाले अधिकारी देखे हैं। नूरपुर में एसडीएम रह चुके एनएन वोहरा अब तक अपने अधीनस्थों के साथ पत्राचार के जरिये जुड़े हैं। कश्मीर के मुख्य वार्ताकार, जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल रह चुके एनएन वोहरा। जनजातीय जिले लाहुल-स्पीति को अपने जवां खून से सींच चुके मनोहर सिंह गिल चीन को 1962 की जंग से पहले भारत का झंडा दिखाने के लिए बैठे थे, लेकिन बाद में राजीव गांधी, नरसिंह राव और मनमोहन सरकारों में जिस पद पर रहे, लाहुल-स्पीति को हमेशा सींचते रहे। उसके बाद भी कई नाम हैं जो गिनाए जा सकते हैं, यह बताने के लिए कि आदर्शों की कमी नहीं है, बस पीछा करने वाले चाहिए।

मनोहर सिंह गिल कहते हैं, 'मैं जिस इंडियन एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस को जानता हूं, वह हमारी पीढ़ी के साथ खत्म हो गई। मैं एमए अंग्रेजी का एक पेपर लुधियाना में देता था और आइएएस का पेपर अगले दिन पटियाला में। फिर लौट कर लुधियाना आता था। देशभर में 58 लोग चुने गए और मेरा क्रम 10वां था। 21 से 23 साल के बीच तीन मौके मिलते थे। जो आ गया, वह आ गया, जो रह गया वह रह गया। अब लगता है कि जब तक कोई अंदर न आ जाए, इंतजार करो।'

तथ्य यह है कि देश में सामान्य वर्ग के लिए आयु सीमा 32 वर्ष है जबकि अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 35 और अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए 37 वर्ष है। हालांकि नीति आयोग ने संघ लोक सेवा आयोग को सिफारिश भेजी है कि चरणबद्ध तरीके से भारतीय प्रशासनिक सेवाओं के लिए आयु सीमा 27 वर्ष की जाए। सिफारिशों का क्या होता है, यह देखना होगा।

यही एक ऐसा क्षेत्र है जहां पहले दिन से गाड़ी, बंगला और सुरक्षा सहायक निश्चित होता है। यही एक ऐसा क्षेत्र है जिससे लोगों के भले के लिए काफी कुछ किया जा सकता है। यही वह क्षेत्र है जहां कोई चाहे तो लाल फीते की अकड़ ढीली की जा सकती है।

केंद्र सरकार में शिक्षा सचिव रहे हिमाचल काडर के वरिष्ठ आइएएस अधिकारी एमके काव (अब दिवंगत) के कुछ साल पहले के शब्द गूंजते हैं, 'अब अधिकारी सामने आकर श्रेय लेना चाहते हैं...प्रचार चाहते हैं ...हमारा समय नींव के पत्थरों का समय था। वह समय था जब स्वयं पीछे रह कर एक आइइएस अधिकारी राजनेता को नियमों के दायरे में रहते हुए सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे की तरकीब बताता था।' सवाल यही है कि कतिपय लोग लाठी संभालें, सांपों को मारें या अपने आपको संभालें।

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