Vat Savitri Vrat 2021: कभी राजेंद्र मेहता गाते थे, ‘एक प्यारा सा गांव, जिसमें पीपल की छांव’

कभी राजेंद्र मेहता गाते थे ‘एक प्यारा सा गांव जिसमें पीपल की छांव’ और फिर गूंज उठता है सागर पालमपुरी का शेर पीपल के उस दरख्त के कटने की देर थी आबाद फिर न हो सके चिड़ियों के घोंसले।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Thu, 10 Jun 2021 10:42 AM (IST) Updated:Thu, 10 Jun 2021 10:44 AM (IST)
Vat Savitri Vrat 2021: कभी राजेंद्र मेहता गाते थे, ‘एक प्यारा सा गांव, जिसमें पीपल की छांव’
बरगद गांव की ही नहीं, शहर की खाली जगह की पहचान भी बने और चिड़ियों के घोसले बर्बाद न हों

कांगड़ा, नवनीत शर्मा। सांसों की माला से पी का नाम सिमरा जाता है या नहीं यह अपने-अपने अनुभव का विषय है.. लेकिन सांसों की माला का अटूट रहना बेहद आवश्यक है। श्वास, सांस या दम के बिना सब प्राणहीन है। कोरोना की दूसरी लहर ने ऐसी क्रूरता दिखाई है कि आक्सीजन शब्द चिंतित घरों से लेकर मरीजों की कराहों से निर्लिप्त अस्पताल की ऊंची दीवारों तक गूंजता रहा।

विज्ञानियों के निष्कर्ष और इस संदर्भ में जो सामूहिक अनुभव राशि उपलब्ध है, उसके आधार पर तथ्य यह है कि बेहद विशाल होने के कारण पीपल और बरगद सर्वाधिक आक्सीजन देते हैं। विकास होगा तो कंक्रीट के जंगल उगेंगे और बरगदों या पीपलों के लिए जगह सिकुड़ती जाएगी। हिमाचल प्रदेश को सारी बंजर भूमि इस पुनीत कार्य के लिए प्रयोग करनी चाहिए।

आज वट सावित्री व्रत और पूजा का दिन है। सनातन धर्म का एक बड़ा दिन। वट वृक्ष के तने सदिच्छा के धागों से अट जाते हैं। ज्येष्ठ मास की अमावस्या है न। इसलिए। इसके पीछे जो मान्यता है, वह वैज्ञानिक है। सावित्री ने वट वृक्ष के नीचे बैठ कर पूजा की थी और उसकी जिद पर सत्यवान की सांसें लौट आई थी। बहरहाल, हिमाचल प्रदेश की परंपरा अन्य राज्यों के लोगों की तरह पीपल और बरगद का पूरा सम्मान करती आई है, जैसे इन पेड़ों को न काटना, सांझ के बाद पत्ते न तोड़ना और क्योंकि पीपल का पेड़ बृहस्पति का प्रतीक है, इसलिए उसे जल अíपत करना आदि। एक बात जो हिमाचल को औरों से अलग करती है, वह है स्थानों का नामकरण।

उदाहरण के लिए कांगड़ा जिले में तिनबड़ एक गांव का नाम है। यानी कभी इस गांव की पहचान तीन बड़ों यानी बरगद के पेड़ों के कारण बनी होगी। उसी तरह प्रसिद्ध शक्तिपीठ चिंतपूर्णी के आसपास कालू दी बड़, जौड़बड़, पजमुए दी बड़, जल्लो दी बड़, बाबे दी बड़ और कैलू दी बड़ आदि गांव हैं। यहां माना जाता है कि जिन पुरखों ने ये बरगद रोपे, उन्हीं के नाम पर नामकरण हो गया। कुछ गांव ऐसे हैं, जिनमें नाम ही बचा है, बड़ या बरगद गायब हो चुके हैं। माना कि बरगद बहुत स्थान घेरता है, उसका आकार बड़ा होता है, लेकिन उसे कहीं न कहीं तो स्थान मिलना ही चाहिए। आखिर मामला सांसों का है।

आवासीय क्षेत्रों में न सही, हिमाचल प्रदेश में ऐसी भूमि बहुत है, जिसका प्रयोग नहीं हो रहा है। पहले उसे ही प्रयोग कर लें। बात केवल सांसों की भी नहीं है, पीपल और बरगद के उन औषधीय गुणों की भी है जिनकी पुष्टि चरक और सुश्रुत जैसे पूर्वजों ने की है। दरअसल, हिंदू भाषी जिसे पीपल, श्रीवृक्ष, सेव्य या अश्वत्थ कहते हैं, उसे गुजराती में जड़ी, पंजाबी में पीपल के अलावा बोहड़ भी कहते हैं, तेलुगू में रवि, मराठी में पिंपल, बंगाली में अशुद और तमिल में अर्शमारम कहते हैं। अर्श यानी बवासीर और जो उसका मारण करता है, वही अर्शमारम हुआ। केवल बवासीर ही क्यों, यह पित्त शामक भी है। इसकी छाल और पत्तियों से वात और रक्त के दोष भी दूर होते हैं। कायाकल्प पालमपुर के प्रशासक डा. आशुतोष गुलेरी कहते हैं, ‘वात रक्त दोष, जिसे यूरिक एसिड कहा जाता है, उसके लिए पीपल या बरगद की छाल का प्रयोग लाभदायक है। बशर्ते उसका उपयोग किसी जानकार की निगरानी में हो।’

पीपल या बरगद के कम होते जाने का एक दुष्प्रभाव यह भी हुआ है कि बंदर शहरों में आ गए हैं। बंदरों को सर्वाधिक पसंद आने वाला भोज पीपल या बरगद पर लगने वाले फल हैं। प्रभावी इतने कि पत्ते पानी में डाल कर रख दें, कुछ देर बाद पानी ठंडा मिलेगा, ऐसा भी पढ़ा जाता है। भला हो धर्मशाला से सटी भटेहड़ पंचायत के रहने वाले पूर्व मंडलीय अग्निशमन अधिकारी बीएस माहल का जो सेवानिवृत्ति के बाद 450 पौधे रोप चुके हैं। बिलासपुर में प्रगति समाज सेवा समिति के अध्यक्ष सुनील शर्मा ‘सांसों की खेती’ कर बड़ा काम कर रहे हैं। हमीरपुर के मुख्य अरण्यपाल अनिल जोशी जिले के हर गांव में पौधे बांट रहे हैं। ये सब प्रयास किसी व्यक्ति की पहल हैं या किसी अधिकारी की। यही प्रयास पूरे तंत्र की भागीदारी के साथ हो, तो सांसें मुस्कराएंगी।

[राज्य संपादक, हिमाचल प्रदेश]

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