कश्मीर की ज्ञान परंपरा में छिपे हैं एकीकरण के सूत्र : शुक्ल
संवाद सहयोगी देहरा वर्धा अंतरराष्ट्रीय हिदी विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर रजनीश शुक्ल ने
संवाद सहयोगी, देहरा : वर्धा अंतरराष्ट्रीय हिदी विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर रजनीश शुक्ल ने कहा है कि भारतीय संस्कृति की जब हम बात करते हैं तो कश्मीर को उससे अलग नहीं किया जा सकता है। संस्कृति की कोई भौगोलिक इकाई नहीं होती है। बुधवार को जम्मू-कश्मीर के सांस्कृतिक एकीकरण के सांस्कृतिक मार्ग विषय पर देहरा में हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय में एक हफ्ते तक चलने वाली व्याख्यानमाला के छठे दिन प्रोफेसर शुक्ल ने यह बात कही।
उन्होंने कहा कि आखिरी महाराजा हरि सिंह ने यदि भारत में विलय का निर्णय लिया तो उसका कारण राजनीतिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक था। यह जरूरी हो गया है कि कश्मीर को जानने-समझने के लिए सांस्कृतिक पक्ष को आगे रखा जाए। संस्कृतियां जब ओझल हो जाती हैं तो मानव समाज अंधेरे में चला जाता है। प्रो. शुक्ल ने कहा कि वह कश्मीर को सप्तसिधु क्षेत्र कहेंगे। इसका महत्व भारत के एकीकरण के लिए अहम है। जम्मू-कश्मीर को अलग रूप से देखना, भारत को तोड़ने जैसा है। भारत का जो श्रेष्ठ है, उसका केंद्रीय स्थल कश्मीर रहा है। चीन के साहित्य से भी हमें ऐसा पता चलता है। ह्नवेनसांग के उल्लेखों से लेकर अन्य तमाम साहित्य में इसका जिक्र है। इसके अलावा जम्मू-कश्मीर की एक परंपरा वैदिक काल और कश्यप ऋषि से शुरू होती है। सांस्कृतिक एकता का अहम सूत्र ज्ञान परंपरा है। भारत की शैव परंपरा, चिकित्सा पद्धति और नाथ संप्रदाय समेत संस्कृति के कई ऐसे सूत्र हैं, जिनका विकास जम्मू-कश्मीर में ही हुआ था। शुक्ल ने कहा कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक शैव परंपरा ने एक श्रेष्ठ संस्कृति विकसित की है। सप्त सिधु क्षेत्र में एक तरफ सरस्वती है तो दूसरी ओर सिधु है। इसके बीच के क्षेत्र को हम शारदा क्षेत्र कहते हैं। घाटी ही कश्मीर नहीं है बल्कि जम्मू कश्मीर में वह एक घाटी है। इसके चलते पूरे क्षेत्र में अलगाव की स्थिति पैदा हुई है। हम पीओके कहते हैं, इसे पीओजेके कहने की कोशिश हुई है लेकिन इसमें पीओजेके एंड लद्दाख कहना होगा। सिधु की जब बात करते हैं तो वह कश्मीर में नहीं बहती है, लेकिन लद्दाख में बहती है। भारतीय संस्कृति को कभी बांटकर नहीं देखा गया है। जो भारत है, वहीं कश्मीर है और जो कश्मीर है, वही भारत है।