जिस पुलिस पर कानून एवं व्यवस्था का दायित्व है, उसे अनुशासित होना ही चाहिए

एक समिति पुलिस कर्मचारियों की मांगों पर विचार करने के लिए बनी है लेकिन इन सिफारिशों का भाग्य तो अंततोगत्वा गृह अथवा वित्त की चिंता के साथ नत्थी किसी उच्च प्रशासनिक अधिकारी के साथ ही जुड़ा है। अब भी रास्ता निकल आए तो अंत भला तो सब भला होगा।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Thu, 09 Dec 2021 09:38 AM (IST) Updated:Thu, 09 Dec 2021 09:38 AM (IST)
जिस पुलिस पर कानून एवं व्यवस्था का दायित्व है, उसे अनुशासित होना ही चाहिए
हिमाचल पुलिस के कुछ कर्मचारियों ने अनुशासनहीनता की... वे सब मुख्यमंत्री से मिलने आ गए...।’ प्रतीकात्मक

कांगड़ा, नवनीत शर्मा। बीते दिनों इंटरनेट मीडिया पर कहा गया, ‘....हिमाचल पुलिस के कुछ कर्मचारियों ने अनुशासनहीनता की... वे सब मुख्यमंत्री से मिलने आ गए...।’ कांग्रेस के एक नेता ने तो यहां तक कहा कि अपनी वेतन विसंगति के विषय में पुलिस के कर्मचारियों का मुख्यमंत्री के साथ मिलने जाना तख्तापलट का संकेत है। मुख्यमंत्री ने कहा कि वेतन विसंगतियों के बारे में पुलिस कर्मचारी मुझे मिलने आए थे, क्योंकि मैं गृहमंत्री भी हूं।

वास्तव में 2013 के बाद कांस्टेबल के रूप में भर्ती होने वाले पुलिस कर्मचारियों को आठ वर्ष की सेवा अवधि के बाद ही पूरा वेतन मिलता है। ऐसा उनकी सेवाशर्तों के साथ जोड़ा गया है जिसे उन्होंने स्वीकार भी किया था। लेकिन चूंकि अन्य कर्मचारियों की संयुक्त सलाहकार समिति की बैठक में मुख्यमंत्री कुछ राहतें दे चुके थे, इसलिए पुलिस कर्मचारियों को लगा कि सबको कुछ न कुछ मिल गया और इनकी विसंगति जारी है। इसी मांग को लेकर कई पुलिस कर्मचारी प्रदेश के गृहमंत्री यानी मुख्यमंत्री से मिलने पहुंच गए। सब वर्दी में गए। जय हिंद भी कहा। सैल्यूट भी किया। लेकिन बात यह उठ गई कि इतने लोगों का मिलना अनुशासनहीनता है। इंटरनेट मीडिया पर यह प्रसंग इतना उछला और पुलिस कर्मचारियों के स्वजन जब मांगें गिनाने पर आए तो बात ने और तूल पकड़ा। ऐसी प्रतीति दी गई कि जिस पुलिस पर कानून एवं व्यवस्था संभालने का दायित्व है, वही अनुशासनहीन कैसे हो सकती है। ऐसा भी भाव दिया गया कि व्यवस्था का पुलिस पर ही नियंत्रण नहीं है।

सच यह है कि इसके लिए कोई एक पक्ष जिम्मेदार नहीं है। इसके जिम्मेदारों का क्रम इस प्रकार निर्धारित किया जा सकता है। पहला पक्ष हर सरकार के समय होती आई वह राजनीति है जो भर्ती में संख्या पर तो बल देती है, गुणवत्ता पर नहीं। उसे संख्या को प्रभावित करने के लिए, जनसभाओं में गिनाने के लिए आंकड़े चाहिए। यानी अधिक से अधिक लोग भर्ती किए जाएं, उनकी सेवा शर्तें और वेतनमान बेशक केवल इतना ही हो कि वे दो समय की रोटी खा सकें। दूसरा पक्ष उन नौकरशाहों का है जो आम जनता से कट कर वातानुकूलित कक्षों में बैठ कर उन लोगों के बारे में योजनाएं बनाते हैं, जिन्हें हर समय जनता के लिए उपलब्ध रहना है। तीसरा पक्ष वह है जो संख्या में अधिक है, शोर मचाना जानता है, वह भीड़ बना कर भी राजनेताओं के साथ मिल ले तो भी उसे अनुशासनहीन नहीं माना जाएगा। इसके विपरीत, उसके लिए संयुक्त सलाहकार समिति की बैठक होती है और उसकी मांगों पर मुहर लगती है। अनुशासन से बंधे लोग चुप रह जाते हैं। और अगर शीर्ष नेतृत्व से मिल लें तो अनुशासनहीन कहलाते हैं। इस मामले में मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर की प्रतिक्रिया संतुलित थी। उन्होंने यह भी कहा कि इतनी संख्या में आना उचित नहीं था।

अब बीते डेढ़ वर्ष से हिमाचल प्रदेश पुलिस कैसा कार्य कर रही है, यह भी देखा जाए। नशे का कारोबार करने वालों के विरुद्ध कमरतोड़ अभियान, थानों की कार्यप्रणाली पर नजर रखने के लिए अधिकारी का एक रात बिताना अनिवार्य किया जाना, महिला पुलिस अधिकारियों को स्वतंत्र प्रभार देना, महिलाओं और बच्चों के साथ होने वाले अपराधों के लिए और संवेदनशीलता के साथ जांच करना, संगीन अपराध होने पर पुलिस अधीक्षक को मौके पर जाना ही होगा, नशे और खनन के कारोबारियों पर लगाम लगाने के लिए प्रवर्तन निदेशालय के क्षेत्राधिकार तक मामले ले जाना आदि। यह सब ऐसा विवरण है, जिस पर किसी भी पुलिस को गर्व हो सकता है। हिमाचल प्रदेश पुलिस को भी है। आखिर प्रेजिडेंट कलर अवार्ड अकारण तो नहीं मिलता। अतिशयोक्ति नहीं कि यह कीर्ति के चंद्र का प्रकाश है। मंथन इस बात पर होना चाहिए कि इस चांद पर दाग आने की नौबत कैसे आई। जिन नौकरशाहों ने बचत करने के लिए पुलिस जैसी सेवा के लिए आठ वर्ष के अनुबंध का तोड़ निकाला, क्या वे इस बात पर सहमत होंगे कि उच्च पदों पर भी अनुबंध का रास्ता निकाला जाए।

शोध इस बिंदु पर होना चाहिए कि जितने जनता से जुड़े काम हैं, उन्हें तो आठ साल का अनुबंध और जिनका जनता से कोई मेल मिलाप नहीं, उन्हें हर सुविधा। कितने वित्त सचिव जिला स्तर के कार्यालयों का दौरा करते हैं। कितने गृह सचिव हैं जो थाने तक जाते हैं। जब पुलिस महानिदेशक के पत्रों में लिखे सरोकार सचिवालय में धूल फांकते रहेंगे, कैसे परिवर्तन आएगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह तो स्वयं जवानों के साथ दीपावली मनाते हैं। सैनिक सम्मेलन करते हैं, पूछते हैं कि कोई समस्या है तो बताओ। यहां इतना बवाल क्यों। पुलिस महानिदेशक की समय समय पर लगाई गई गुहार बहुत पहले सुन ली जानी चाहिए थी। एक समिति पुलिस कर्मचारियों की मांगों पर विचार करने के लिए बनी है, लेकिन इन सिफारिशों का भाग्य तो अंततोगत्वा गृह अथवा वित्त की चिंता के साथ नत्थी किसी उच्च प्रशासनिक अधिकारी के साथ ही जुड़ा है। अब भी रास्ता निकल आए तो अंत भला तो सब भला होगा। परवाज जालंधरी का कहा किसी के साथ न हो- हम बड़े नाज से आए थे तेरी महफिल में, क्या खबर थी लबे-इजहार पे ताले होंगे।

[राज्य संपादक, हिमाचल प्रदेश]

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