जीवन की सांझ में साथ छोड़ गई लाठी
मुनीष गारिया धर्मशाला किसी को भूला देना शब्द कहने के लिए जितना आसान लगता है उससे हजारों गुना उसे खुद पर लागू करना मुश्किल होता है। आज भी समाज में ऐसे कठोर हृदय के लोग रहते हैं जो वृद्ध स्वजन को भूला देते हैं। न जाने लोग कैसे यह भूल जाते हैं कि जीवन की सांझ में जब सबसे ज्यादा जरूरत लाठी की होती है तो वह भी साथ छोड़ जाती है। माता-पिता की जब आंखें धुंधली हो जाती हैं तो उनकी उम्मीद की किरण क्यों नहीं बन पाते हैं।
मुनीष गारिया, धर्मशाला
किसी को भूला देना शब्द कहने के लिए जितना आसान लगता है, उससे हजारों गुना उसे खुद पर लागू करना मुश्किल होता है। आज भी समाज में ऐसे कठोर हृदय के लोग रहते हैं जो वृद्ध स्वजन को भूला देते हैं। न जाने लोग कैसे यह भूल जाते हैं कि जीवन की सांझ में जब सबसे ज्यादा जरूरत लाठी की होती है तो वह भी साथ छोड़ जाती है। माता-पिता की जब आंखें धुंधली हो जाती हैं तो उनकी उम्मीद की किरण क्यों नहीं बन पाते हैं।
धर्मशाला के समीप दाड़ी स्थित वृद्धाश्रम में अपनों की ओर से दुत्कारे 15 लोग रहते हैं। इनमें आठ पुरुष व सात महिलाएं हैं। सिर्फ तीन को छोड़ सभी वरिष्ठ नागरिकों की हालत ऐसी है कि उन्हें स्वजन जब यहां छोड़ गए तो दोबारा उनका हालचाल पूछने कोई नहीं आया। वर्षो से अपनों को देखने के लिए पथराई वृद्धों की आंखों और मन ने भी स्वीकार कर लिया है कि अब कोई नहीं आएगा। इन वरिष्ठ नागरिकों का अब यही कहना है कि जब उनके स्वजन ने ही भूला दिया है तो क्या कर सकते हैं। उन्होंने भी अब अपनों को भूला दिया है। ये लोग भी अब यही कहते हैं कि उनका कोई नहीं है।
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केस स्टडी 1
बीमारी से टांग कटी, स्वजन ने कर दिया बेगाना
पांगी निवासी 77 वर्षीय खेमलाल कहते हैं कि जब वह करीब 50 साल के थे तो उसकी बाई टांग किसी बीमारी की चपेट में आ गई। बीमारी इतनी गंभीर हो गई कि टांग काटनी पड़ी। बीमारी के दौर में अपनों ने ही साथ छोड़ दिया। स्वजन ने पहले तीसा वृद्ध आश्रम में छोड़ा। इसके बाद चार साल आयुर्वेदिक अस्पताल पपरोला में इलाज चला, लेकिन कुछ नहीं हो पाया। जब प्रशासन ने स्वजन से कहा तो उन्होंने घर में रखने से कन्नी काट ली। पिछले 10 साल से वृद्ध आश्रम दाड़ी में रह रहा हूं।
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जवानी ढली तो स्वजन ने दुत्कारा
कुल्लू बाजार निवासी 72 प्रकाश चंद चोपड़ा बताते हैं कि वह कोलकाता में काम करते थे। जब तक शरीर में जोर था तो कमाई चलती रही और बच्चों का पालन- पोषण करता रहा। बच्चों के पालन-पोषण के लिए महीनों बाद ही घर आना होता था। जवानी ढलने लगी और बच्चे अपने-अपने पैरों पर खड़े हो गए। एक दिन कोलकाता में एक व्यक्ति से अकारण ही लड़ाई हो गई। विवाद सुलझाने में थोड़ा समय लगा, लेकिन इस बीच स्वजन ने दुत्कार दिया। काफी वर्षो से दाड़ी आश्रम में रह रहा हूं। आजतक एक बार भी स्वजन का फोन नहीं आया है।