सामाजिक व्यवहार और एकता को कभी न भूलें
भारत एक ऐसा देश है जहां विभिन्नता में भी एकता के दर्शन होते हैं। हर प्रांत की अपनी भाषा संस्कृति व रीति-रिवाज हैं। फिर भी सामाजिक एकता और समरसता के लिए हमें अनेकता में भी एकता का आभास रहता है।
भारत एक ऐसा देश है जहां विभिन्नता में भी एकता के दर्शन होते हैं। हर प्रांत की अपनी भाषा, संस्कृति व रीति-रिवाज हैं। फिर भी सामाजिक एकता और समरसता के लिए हमें अनेकता में भी एकता का आभास रहता है। भारतीय संस्कृति में मनुष्य जितना अपना हित चाहता हो उतना ही परस्वार्थ के लिए आगे बढ़ता है। यदि हम सामाजिक व्यवहार और समरसता की बात करें तो हम आज भी सार्वजनिक हित व एकता के परिचायक माने जाते हैं। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और हर समय एक-दूसरे के लिए पूरक माना गया है। आजकल की इस भागमभाग की दौड़ में कई बार हम जीवन के मूल्यों को भूला बैठते हैं और इससे हमारी सोच का पतन होने लगता है। हम यदि सामाजिक कर्तव्यों की बात करें तो सार्वजनिक हित के लिए हम कभी पीछे नहीं हटते हैं। यह हमारी भारतीय संस्कृति व परंपरा का नतीजा है कि हम अनेकता में भी एकता को कायम रखने में सक्षम है। ऐसे संस्कार होने चाहिए कि हम सामाजिक व्यवहार के साथ समाज में समरसता बनाए रखें। यहां यह बात कहना अनिवार्य हो जाती है कि इंसान के पतन का कारण भी आपसी एकता का न होना माना गया है। जहां एकता है, वहीं समरसता भी है। मनुष्य स्वाभाविक तौर पर विवेकी व बुद्धिशाली है, लेकिन जब सामाजिक एकता की बात आती है तो भूलकर भी इसे निभाने के लिए कहीं पर भी पीछे नहीं हैं। सामाजिक एकता का पाठ हमारी संस्कृति के अनुरूप युगों-युगों से चला आ रहा है। ठीक ऐसे ही पाठ हमें युवा पीढ़ी को भी पढ़ाने की जरूरत है। सभी माता-पिता व गुरुजन का यह कर्तव्य बनता है कि वह आने वाली पीढ़ी को स्वयं भी इस प्रकार की शिक्षा दें कि सामाजिक व्यवहार और एकता में सामंजस्य बनाए रखने में अपनी सहभागिता सुनिश्चित करें और हर किसी को इसकी सीख दें। यदि हम ऐसा नहीं करते हैं तो नैतिकता और समरसता की बातें गौण होकर रह जाएंगी। इसके कोई मायने नहीं रहेंगे। हमें युवा पीढ़ी को ऐसी शिक्षा देनी चाहिए जिससे अच्छे संस्कारों का निर्माण हो, तभी समाज में एकता और समरसता की निर्माण संभव है। कई बार हम अन्य लोगों के साथ ऐसा व्यवहार कर बैठते हैं, जिससे उनका मन दुखी हो जाता है। ऐसे में हम कर्तव्यों से विमुख हो जाते हैं। समाज में रहकर हमें एक-दूसरे के पूरक बनकर रहने की आदत डालनी चाहिए। इससे एकता बनी रहेगी। वर्तमान में आधुनिकता के दौर में जीवन नीरस होता जा रहा है। इसका एक ही कारण है कि हम मूल्यों का आकलन ही नहीं करते हैं। यदि हम सामाजिक शिष्टाचार, व्यवहार व समरसता की बात करें तो इसका अनुसरण करना चाहिए। हमें सामाजिक एकता के संस्कारों को कभी नहीं भूलना चाहिए। विशिष्टजन का भी यह कर्तव्य है कि युवा पीढ़ी को ऐसी शिक्षा दें, जिससे सामाजिक समरसता बनी रहे।
-गिरीश शर्मा, प्रधानाचार्य, केंद्रीय विद्यालय योल छावनी।