Foreign Dependency: दवाओं के निर्माण में उपयोगी कच्चे माल के मामले में कम हो विदेशी निर्भरता

दवाओं के निर्माण में सर्वाधिक आवश्यक उपयोगी कच्चे माल के मामले में चीन पर हमारी अत्यधिक निर्भरता दवाओं की कीमतों के निरंतर बढ़ते जाने का मुख्य कारण है जिसे समग्रता में समझने और उसके समाधान की आवश्यकता है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Thu, 13 May 2021 10:05 AM (IST) Updated:Thu, 13 May 2021 10:16 AM (IST)
Foreign Dependency: दवाओं के निर्माण में उपयोगी कच्चे माल के मामले में कम हो विदेशी निर्भरता
दवा निर्माण में कच्चे माल का उत्पादन देश में व्यापक पैमाने पर बढ़ाने से ही कम होंगी दवाओं की कीमतें।

कांगड़ा, नवनीत शर्मा। कल तक पेट के कीड़े मारने की दवा मानी जाती थी आइवरमेक्टिन। पिछले करीब एक साल से भारत में कोरोना पीड़ितों के उपचार में भी प्रयोग हो रही है। बेशक विश्व स्वास्थ्य संगठन इसे ठीक दवा न बताए, लेकिन भारत में इस्तेमाल हो रही है तो कोई कारण होगा। यह एक रसायन है जिसे बोलचाल की भाषा में कच्चा माल और दवा उद्योग की भाषा में एक्टिव फार्मास्यूटिकल इंग्रेडिएंट (एपीआइ) भी कहा जाता है। हिमाचल प्रदेश में भारत के सबसे बड़े फार्मा हब बद्दी-बरोटीवाला-नालागढ़ के दवा उद्योगों को यह कच्चा माल लगभग 15,000 रुपये प्रति किलोग्राम मिलता था, लेकिन अब यह 77,000 रुपये प्रति किलोग्राम तक मिल रहा है।

जाहिर है, दवा की कीमतें बढ़ेंगी, फिर यह भी स्वाभाविक है कि दवा ही उपलब्ध न हो। बात केवल आइवरमेक्टिन की नहीं, पैरासीटामोल और डॉक्सीसाइक्लिन जैसी कई दवाओं की है। हमें यह भी जानना चाहिए कि जीवन रक्षक दवाओं पर यह संकट क्यों आया? क्योंकि 10 से 15 साल पहले चीन ने विश्व को दवाओं के लिए आवश्यक एपीआइ बेहद सस्ते दामों पर उपलब्ध करवाना शुरू कर दिया। जो चीन का तरीका है, पहले दाना डालो, फिर गुंडागर्दी करो। बीते साल कोरोना का आविष्कार चीन में हुआ तो वहां लॉकडाउन लगा। कच्चे माल का संकट महसूस हुआ। उससे पिछले वर्ष वहां कुछ पर्यावरण संबंधी समस्याओं के कारण दवाओं के एपीआइ मिलने में समस्या हुई। इस साल तो कोरोना की दूसरी लहर का कहर सामने ही है। इस दौरान दवाओं की समस्या को देश भर में देखा गया है।

दावे अलग-अलग हैं। कुछ के मुताबिक दवाओं के 70 से 85 प्रतिशत कच्चे माल के लिए भारत चीन पर निर्भर करता है। भारत ही नहीं, सारा विश्व इस मामले में चीन पर निर्भर है। बल्क ड्रग पार्क की बात बेशक पहले से हो रही हो, लेकिन भारत ने वर्ष 2020 में इस समस्या को नजदीक से सूंघ लिया और फरवरी में केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन की बैठक देश के नामी दवा निर्माताओं के साथ हुई। इसमें यह तय हुआ कि 38 अनिवार्य दवाओं के एपीआइ भारत में बनाए जाएं, ताकि चीन पर हमारी निर्भरता समाप्त हो सके। बल्क ड्रग पार्क की बात प्रमुखता के साथ हुई। बल्क ड्रग पार्क सरकार के एजेंडा से गायब नहीं था। केंद्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल 2014 में कह चुके थे कि एपीआइ के लिए चीन पर बढ़ती निर्भरता से किसी दिन भारत में दवाओं की कमी हो जाएगी। उनका कहा सच साबित हो रहा है।

उल्लेखनीय है कि बल्क ड्रग पार्क मूलत: दवाएं नहीं बनाते, बल्कि कच्चा माल या एपीआइ बनाते हैं। इसके कुछ मानक हैं। मैदानी राज्यों के लिए एक हजार एकड़ से ऊपर जमीन चाहिए जबकि पर्वतीय राज्यों के लिए 700 एकड़ जमीन का मानक है। पानी, बिजली, हवाई अड्डा, औद्योगिक गैस पाइपलाइन आदि जरूरी हैं। हिमाचल प्रदेश में कई जनसभाओं में ऊना के लिए निवेदित बल्क ड्रग पार्क पर तालियां गूंज चुकी हैं, लेकिन अभी फैसला नहीं हुआ है, क्योंकि गुजरात, पंजाब, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा, तेलंगाना और तमिलनाडु जैसे राज्य भी प्रतिस्पर्धा में हैं। केंद्र सरकार अधिकतम एक हजार करोड़ रुपये देगी, जिसमें से 70 प्रतिशत अनुदान होगा। पर्वतीय राज्य होने के कारण हिमाचल प्रदेश को अनुदान 90 फीसद होगा। कुल तीन हजार करोड़ रुपये की योजना केंद्र सरकार ने बना कर रखी है। बल्क ड्रग पार्क के सपने को पूरा करने के लिए पांच वर्ष का समय भी रखा गया है। यह अवधि 2020-21 से 2024-25 है।

बल्क ड्रग पार्क के लिए कितनी है हिमाचल की दावेदारी? इस पर स्वास्थ्य मंत्री डॉ. राजीव सैजल कहते हैं, ‘ताजा स्थिति बाद में बता पाऊंगा पर प्रतिस्पर्धा बहुत है। हमने ऊना में 1,400 एकड़ जमीन का प्रस्ताव भेजा है। गुजरात भी बहुत आक्रामकता के साथ पीछे लगा है।’जो भी स्वास्थ्य मंत्री ने नहीं कहा, वह यह है कि हिमाचल प्रदेश ने ‘ईज आफ डूइंग’ बिजनेस में सातवां स्थान पाया है। यहां बिजली और पानी अपेक्षाकृत सस्ता है। पर्यावरण से जुड़ा झंझट नहीं है, औद्योगिक गैस पाइपलाइन भी है। उम्मीद करनी चाहिए कि बल्क ड्रग पार्क के आवंटन में हिमाचल के साथ वह नहीं होगा जो हिमालयन या हिमाचल रेजिमेंट के विषय में हुआ या जो सैन्य भर्ती के मामले में होता है कि बहादुरी पुरस्कार सर्वाधिक, लेकिन कोटा नहीं बढ़ेगा।

बहरहाल, जिस कच्चे माल के लिए हम चीन पर निर्भर हैं, वह भारत में बन क्यों नहीं सकता? हिमाचल प्रदेश दवा निर्माता संघ के पूर्व महासचिव राहुल बंसल कहते हैं, ‘चीन में श्रमशक्ति सस्ती है, सरकार की तरफ से पूरी सहायता है, उसने सारी चेन ही सस्ती कर रखी है। कच्चा माल बनाने वाला भारतीय उद्योग तो ध्वस्त हो गया। एक पक्ष लाल फीताशाही का भी है। विशाखापट्टनम में भारत का बल्क ड्रग पार्क कुछ देशों के लिए ऐसी नजीर बना कि उन्होंने अपने यहां बल्क ड्रग पार्क बना लिए। भारत को भी इस दिशा में आगे बढ़ना चाहिए।’

संकट का विस्तार : जिस कच्चे माल के लिए हाहाकार मचा है, वस्तुत: वह भी तीन प्रकार का होता है। एक वह, जो एक्ससीपिएंट की श्रेणी में आएगा। कुछ लोग इसे कैरियर भी कहते है। आसान शब्दों में कहें तो एक गोली में जो लैक्टोज या तेल इस्तेमाल होगा, वह एक्ससीपिएंट होगा। एपीआइ अगर सक्रिय होता है तो एक्ससीपिएंट सक्रिय नहीं होता है। ये कैप्सूल, गोली, पीने वाली दवाओं या इन्हेलर में इस्तेमाल होते हैं। दूसरा स्वयं एपीआइ है, जिसका संकट सामने आ रहा है। जैसे क्रोसीन की गोली में पैरासीटामोल। एक तीसरे प्रकार का कच्चा माल भी है, जो पैकेजिंग से जुड़ा है। जैसे- एल्युमीनियम फॉयल, शीशा, कार्ड बोर्ड आदि। डॉ. राजेंद्र प्रसाद राजकीय मेडिकल कॉलेज टांडा, हिमाचल प्रदेश में मेडिसिन विभाग के प्रोफेसर रहे डॉ. राजेश शर्मा कहते हैं, ‘दवाओं की पैकेजिंग के लिए एल्युमीनियम फॉयल को इसलिए सर्वाधिक आदर्श माना जाता है, क्योंकि इससे दवा में पानी और हवा अंदर नहीं जाती।’

रास्ता क्या है? लघु उद्योग भारती के फार्मा विंग के राष्ट्रीय अध्यक्ष और हिमाचल प्रदेश दवा निर्माता संघ के अध्यक्ष डॉ. राजेश गुप्ता कहते हैं, ‘सबसे पहले तो एपीआइ के लिए एक ही देश पर निर्भरता कम की जाए। दूसरे, दवा उद्योग को तीन मंत्रालयों के साथ जूझना पड़ता है। नियमन के लिए स्वास्थ्य मंत्रालय के साथ, कीमतों के लिए रसायन मंत्रालय के साथ और आयात-निर्यात के सवालों पर वाणिज्य मंत्रालय के साथ। अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री रहते एक पहल हुई थी कि दवा उद्योग के लिए एक अलग मंत्रालय बनाया जाए जिसे फार्मास्यूटिकल मिनिस्ट्री कहा जाए। दवा उद्योग का वास्ता एक ही मंत्रालय के साथ हो। लेकिन उस पर कुछ हुआ नहीं।’ डॉ. गुप्ता की एक और मांग है, वह है अनुभवी लोगों से सुसज्जित एपीआइ टास्क फोर्स बनाने की। इस टास्क फोर्स का काम होना चाहिए कालाबाजारी पर नजर रखने का। वह निर्यात को बढ़ावा देने की बात करे, आयात पर नजर रखे और दवा निर्माताओं की सहायता करे।

सच यह है कि देश के दूसरे सबसे बड़े उद्योग के लिए अलग मंत्रालय बन जाए तो समय और संसाधन बचेंगे। तीनों मंत्रालयों के मध्य फाइलों का सफर कम होगा, सहज होगा तो निर्णय भी त्वरा के साथ होंगे। इन तमाम पक्षों को अगर संबोधित किया जाता है, उन्हें स्पर्श दिया जाता है तो किसी देश पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। आखिर मामला दवाओं का है और उन दवाओं का जो जीवन के साथ जुड़ी हैं और देश संकट में है। गालिब ने कभी घोषणा की थी कि

दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना...

लेकिन सच तो यही है कि दवा की जगह दवा ही होती है

भविष्य की कार्ययोजना में तय हो प्राथमिकता: आकार में भारत का दवा उद्योग विश्व का तीसरा सबसे बड़ा है। विश्व भर के निर्यात में भारत का योगदान 3.5 फीसद के करीब है। गुणवत्ता के मामले में भारत की दवाओं का वैश्विक रैंक 14 है। ये तमाम उपलब्धियां बस कच्चे माल के विषय में फीकी पड़ जाती हैं। भारत की स्थिति यह है कि 2018-19 में भारत ने जितनी दवाएं आयात की हैं, उनमें से 63 प्रतिशत बल्क ड्रग यानी एपीआइ ही थी। यह दौर जिसमें करीब 15 रुपये में बनने वाला एन-95 मास्क उपभोक्ता तक आते-आते 145 रुपये का हो जाता है, 50 से 200 रुपये किलो के हिसाब से उठने वाली कीवी उपभोक्ता तक आते-आते 75 रुपये प्रति पीस बिकती है, जिस सेब को हिमाचल प्रदेश का बागवान 80 रुपये प्रति किलो बेचता है, वही हिमाचल प्रदेश में इन दिनों 250 रुपये किलोग्राम में बिक रहा है, क्योंकि लोगों को प्रतिरोधक क्षमता बढ़ानी है, कोरोना से बचना है।

सारा दोष शासन-प्रशासन का तो नहीं। वे कौन सी एंबुलेंस हैं जिन्हें महामारी के सताए लोग नहीं दिख रहे और लाखों का बिल थमा रही हैं? दरअसल, इस आपदा में अवसर तलाशने वाले कई पक्ष हैं। सेब, संतरा, चुकंदर तो मान लिया कि दवाएं नहीं हैं, पर जो दवाएं हैं, वे पहुंच से बाहर न हो जाएं, ऐसी दूरदृष्टि और नियोजन अब समय की मांग है। वह आम आदमी जो राजनेताओं से एक हैंडपंप, एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र या अपने निजी कार्य करवा कर संतुष्ट हो जाता है, वह कभी अपनी प्राथमिकताओं के बारे में क्यों नहीं सोचता? क्यों नहीं सोचता कि उसे चाहिए क्या? उसे अच्छे स्वास्थ्य संस्थान चाहिए, गुणवत्ता वाली दवाएं चाहिएं, अच्छे स्कूल चाहिए, इस बात के लिए कभी धरने या प्रदर्शन शायद ही दिखें। यह समय सरकारों को कोसने का नहीं है, भविष्य की कार्ययोजना में प्राथमिकताएं चुनने में मदद करने का है। चीन ने दर्द दिया है, वही दवा देगा। बाजार की सच्चाई जो भी कहे, ऐसा सोचना भारतीय आत्मसम्मान के अनुकूल नहीं है। बीते वर्ष कई दुकानदार भी परेशान थे कि चीन का बाजार बंद होने के कारण उन्हें समस्याएं आ रही हैं। चीन खिलौनों से लेकर घर के रोजमर्रा के सामान तक के लिए सबको निर्भर कर चुका है। भारत को खासतौर पर। यहां तक कि गैस से भरा हुआ लाइटर भी वह भारत में 10 रुपये में पहुंचाता रहा है।

[राज्य संपादक, हिमाचल प्रदेश]

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