यहां ग्रामीण इलाकों में आज भी जीवित है आयुर्वेद, निरमंड के लीला चंद शिलाजीत निकालने के पुश्तैनी काम को बढ़ा रहे हैं आगे

हिमाचल प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में आयुर्वेद आज भी जिंदा है। यहां ऐसे कई लोग मिल जाएंगे जो आज भी पुरातन चिकित्सा पद्धति एवं उपचार आयुर्वेद को न केवल आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं बल्कि इसके माध्यम से अपनी आर्थिकी को भी सुदृढ़ करने को प्रयासरत हैं।

By Richa RanaEdited By: Publish:Thu, 02 Dec 2021 12:47 PM (IST) Updated:Thu, 02 Dec 2021 12:47 PM (IST)
यहां ग्रामीण इलाकों में आज भी जीवित है आयुर्वेद, निरमंड के लीला चंद शिलाजीत निकालने के पुश्तैनी काम को बढ़ा रहे हैं आगे
हिमाचल प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में आयुर्वेद आज भी जिंदा है।

जाेगेंद्रनगर, जागरण संवाददाता। हिमाचल प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में आयुर्वेद आज भी जिंदा है। हमारे यहां ऐसे कई लोग मिल जाएंगे जो आज भी पुरातन चिकित्सा पद्धति एवं उपचार आयुर्वेद को न केवल आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं बल्कि इसके माध्यम से अपनी आर्थिकी को भी सुदृढ़ करने को प्रयासरत हैं। ऐसे ही एक व्यक्ति है जिला कुल्लू की तहसील निरमंड के गांव ओडीधार निवासी 55 वर्षीय लीला चंद प्रेमी जो शिलाजीत निकालने के अपने पुश्तैनी काम को न केवल आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं बल्कि आर्थिकी को सुदृढ़ करने में भी प्रयासरत हैं।

आयुर्वेद अनुसंधान संस्थान जोगेंद्रनगर में पहुंचे लीला चंद का कहना है कि उनके पिता ने वर्ष 1960- 61 से निरमंड व आसपास के पहाड़ों से शिलाजीत निकालने का काम शुरू किया था, लेकिन आयुर्वेद विधि का ज्ञान न होने के बावजूद भी वह शिलाजीत से लोगों का उपचार करते रहे हैं तथा लोग ठीक भी होते रहे हैं। लेकिन वर्ष 1979 में उनके मामा जीवन लाल ने जालंधर से आयुर्वेद फार्मासिस्ट का प्रशिक्षण प्राप्त किया। इसके बाद उनके द्वारा तैयार नोट्स के आधार पर शिलाजीत के शोधन कार्य को आयुर्वेद पद्धति के आधार पर निकालने का वह काम कर रहे हैं।

महज पांचवीं तक की शिक्षा प्राप्त एवं बीपीएल परिवार में शामिल लीला चंद इसी उम्मीद के साथ आयुर्वेद अनुसंधान संस्थान जोगिंदर नगर पहुंचे हैं कि शिलाजीत निकालने के उनके कार्य का प्रमाणीकरण हो सके। इससे न केवल लोगों को गुणवत्तायुक्त शिलाजीत मिल सकेगी बल्कि वे अपनी आर्थिकी को सुदृढ़ कर सकें। उनका कहना है कि वे अब इस पुश्तैनी कार्य को अपने बेटे लोकेंद्र सिंह को सौंप रहे ताकि वह इसे आगे बढ़ा सके।

क्या कहते हैं अधिकारी:

इस संबंध में राष्ट्रीय औषध पादप बोर्ड के क्षेत्रीय निदेशक, क्षेत्रीय एवं सुगमता केंद्र उत्तर भारत स्थित जोगेंद्रनगर डा अरूण चंदन का कहना है कि आयुर्वेद निदेशालय के माध्यम से उनके यहां पहुंचे लीला चंद के शिलाजीत निकालने व शोधन पद्धति कि वह जांच करेंगे तथा उनके इस कार्य का प्रमाणीकरण भी किया जाएगा। इससे जहां उनके इस तैयार उत्पाद को एक पहचान मिल सकेगी तो वहीं वे बेहतर तरीके से इसकी मार्केटिंग भी कर पाएंगे। उनका कहना है कि प्रथम दृष्टया में शिलाजीत शोधन की उनकी पद्धति बिल्कुल आयुर्वेदिक आधार पर सही पाई गई है, बावजूद इसके इनके शोधन की प्रक्रिया की पूरी जांच पड़ताल की जाएगी।

क्या होती है शिलाजीत:

शिलाजीत आयुर्वेद में एक ऐसी प्राकृतिक तौर पर तैयार होने वाली औषधि है जिससे न केवल व्यक्ति की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाया जा सकता है बल्कि यह एक टानिक का काम भी करती है। इसके अलावा विभिन्न आयुर्वेदिक दवा निर्माण में भी इसका इस्तेमाल किया जाता है। शिलाजीत प्राकृतिक तौर पर हिमालय पर्वत की ऊंचे पहाड़ों में ग्रीष्म ऋतु के समय चट्टानों में सूर्य की पड़ने वाली तेज किरणों के कारण पिघलने वाले रस व इसके जमने के कारण तैयार होती है। शिलाजीत देखने में कोलतार के समान काला व गाढ़ा सा द्रव होता है तथा सूखने पर चमकीला व भंगुर हो जाता है। यह द्रव पानी में घुलनशील होता है तथा तारों को छोड़ता है, जबकि रासायनिक प्रक्रिया में उदासीन रहता है।

शिलाजीत खनिज पदार्थ के तौर पर चार प्रकार से पाई जाती है। जिसमें स्वर्ण, रजत, लोह व ताम्र शामिल है। निरमंड व आसपास के पहाड़ों में यह लोह व ताम्र रूप में ही पाई जाती है। पहाड़ों से प्राप्त इस खनिज पदार्थ को पानी में घोलने के बाद सूर्य तापी व अग्रि तापी विधि के माध्यम से इसका शोधन किया जाता है जिसमें औसतन 15 दिन से एक महीने तक का समय लग जाता है। शिलाजीत हिमालय क्षेत्र जिसमें हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड इत्यादि शामिल है में पायी जाती है। चरक संहिता में शिलाजीत को सर्वरोगनाशक बताया गया है। जिसमें उल्लेख किया गया है कि जब सभी प्रकार की दवाइयों का असर खत्म हो जाए तब शिलाजीत का इस्तेमाल किया जाना चाहिए।

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