थप्पड़ और लात से आगे सीखने की बात, पर क्‍या अब पुलिस पर भी बिठानी पड़ेगी पुलिस

यह ठीक है कि किसी एक अवांछित घटनाक्रम से किसी संस्था के बारे में बनी धारणा को समग्रता नहीं दी जा सकती लेकिन घटना घटी है तो दर्ज होगी ही। मर्यादा के मानक रघुनाथ जी की नगरी कुल्लू में अपने ही निशाने पर आई पुलिस को ऐसे जख्म मिले हैं

By Rajesh Kumar SharmaEdited By: Publish:Thu, 01 Jul 2021 11:44 AM (IST) Updated:Thu, 01 Jul 2021 11:44 AM (IST)
थप्पड़ और लात से आगे सीखने की बात, पर क्‍या अब पुलिस पर भी बिठानी पड़ेगी पुलिस
कुल्‍लू में एसपी और सीएम सिक्‍योरिटी के बीच हुई झड़प। फाइल फोटो

धर्मशाला, नवनीत शर्मा। यह ठीक है कि किसी एक अवांछित घटनाक्रम से किसी संस्था के बारे में बनी धारणा को समग्रता नहीं दी जा सकती, लेकिन घटना घटी है तो दर्ज होगी ही। मर्यादा के मानक रघुनाथ जी की नगरी कुल्लू में अपने ही निशाने पर आई पुलिस को ऐसे जख्म मिले हैं, जो जल्द नहीं सूखेंगे। कुछ पृष्ठभूमि थी, कुछ अवांछित शब्द थे, अप्रिय भंगिमाएं थीं, फिर पुलिस अधीक्षक कुल्लू की ओर से मुख्यमंत्री सुरक्षा के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक को एक थप्पड़ था, फिर कुछ सवाल थे और अंतत: मुख्यमंत्री की सुरक्षा में लंबे समय से तैनात सहायक उपनिरीक्षक की ओर से पुलिस अधीक्षक के लिए लात थी।

बेशक यह केवल एक दिन की बात थी, मगर इस बहाने सबको कुछ न कुछ मिल गया। राजनीतिक लोगों को राजनीति के बिंदु, आम जनता को सवालों के सिंधु और शासन-प्रशासन के हिस्से आलोचना आई। इस घटनाक्रम के मुख्य किरदार तीन ही थे, लेकिन पुलिस महानिदेशक की ओर से जारी एक पत्र कहता है कि मामला समग्र बल के लिए कितना अभूतपूर्व था। कई स्तरों पर जांच हुई, रपटें बनीं। एसपी कुल्लू और लात चलाने वाले पीएसओ निलंबित हो चुके हैं।

सवाल यह है कि प्रमुख लोगों की सुरक्षा में पुलिस स्टाफ की तैनाती का मानक क्या है? पात्रता अगर विश्वासपात्र होना है तो गलत क्या है? अंतत: एक परस्पर समझ और विश्वास में क्या बुरा है? लेकिन विश्वासपात्रता इस संदर्भ में पात्रता का विकल्प नहीं हो सकती। जाहिर है जब एसपी का थप्पड़ उठा होगा तो किसी चुनौती या उत्तेजक कारण से उठा होगा। एक पीएसओ को भी अपनी लात के ‘वजन’ पर पूरा भरोसा था, इसलिए वह भी चली और एसपी पर चली। यह अपनी प्रतिष्ठा या अपनों के लिए विश्वास का प्रतीक तो है, लेकिन पात्रता पर प्रश्नचिह्न् है। आमतौर पर मुख्यमंत्री या केंद्रीय मंत्री जैसे प्रतिष्ठित लोगों के दौरे से पूर्व उपायुक्त और पुलिस अधीक्षक समन्वय बनाते हैं। यहां तक कि दोनों एक ही गाड़ी में होते हैं, जिनके निरंतर संपर्क में मुख्यमंत्री का सुरक्षा दस्ता भी रहता है। प्रतीति यह है कि कुल्लू प्रकरण में कोई किसी के समुचित संपर्क में नहीं था। पुलिस लगातार निशाने पर है, लेकिन यह सवाल नहीं उठा कि उपायुक्त उस समय कहां थे? अगर वह स्थानांतरणाधीन थे तो क्या उनका तबादला दो दिन के लिए रोका नहीं जा सकता था। यदि तबादला ही अनिवार्य था तो उनका प्रभार जिनके पास था, वह कहां थे? सभी पक्ष परस्पर संपर्क में होते तो कौन-सी गाड़ी किस क्रम पर चलेगी जैसी छोटी बातें स्वत: तय हो गई होतीं। जहां समन्वय होता है, वहां किसी उपायुक्त को यह असुरक्षा नहीं होती कि सुरक्षा दस्ते के लोग तो एसपी के लोग हैं।

हिमाचल के इतिहास में मुख्यमंत्रियों को कतिपय लोग ऐसे और इतने पसंद आए कि उन्होंने सेवाकाल तो पूरा मुख्यमंत्री के साथ ही काटा, वर्षो का सेवाविस्तार पाकर भी उन्हीं के साथ रहे। यह पुलिस की नई पौध में भरोसेमंद लोगों का संकट था या इनके भरोसे की दीवार इतनी मजबूत थी कि कोई फांद नहीं पाया। एक सुयोग्य सुरक्षा अधिकारी जानता है कि किस व्यक्ति को देखकर साहब प्रसन्न होंगे या अप्रसन्न होंगे। वह यह भी जानता है कि किसको कब, कैसे और कहां मिलवाना है। उसे यह भी पता है कि वह बेशक वीवीआइपी का सुरक्षा अधिकारी है, लेकिन जिले का एसपी उसका वरिष्ठ अधिकारी है। वह यह भी जानता है कि वीवीआइपी की किसी मुखमुद्रा का क्या संदेश है। आइएएस, आइपीएस हों या मुख्यमंत्री के सुरक्षा दस्ते से जुड़े लोग, उनका वास्तविक प्रशिक्षण तो इन साहबों के साथ या धरातल पर होता है, अकादमियों में केवल अकादमिक प्रशिक्षण ही मिलता है।

इस घटना ने पुलिस के लिए इस विमर्श के द्वार खोल दिए हैं कि सुरक्षा दस्ते के लिए अधिकारी या कर्मचारी का चयन पसंद के आधार पर होना चाहिए या नहीं? क्या उनका कार्यकाल वीवीआइपी की प्रसन्नतार्पयत होना चाहिए या कुछ ढाई या तीन वर्ष की अवधि होनी चाहिए? वे केवल सुरक्षा दस्ते के सदस्य नहीं, अपितु वीवीआइपी और जनता के मध्य सेतु भी हैं, इस विषय का प्रशिक्षण क्या नियमित रूप से मिलना नहीं चाहिए? वीवीआइपी के संदेश वीवीआइपी के होते हैं, संदेशवाहक की शालीनता इस पक्ष में होती है कि वह स्वयं को वीवीआइपी समङो बगैर संदेश को अग्रसारित करे। व्यवस्था या संवाद में जब-जब खाइयां निकलेंगी, उद्देश्यों के कदम लड़खड़ाएंगे।

कुल्लू में लक्ष्य क्या था और हुआ क्या, यह प्रत्यक्ष दिखा है। यह संवाद का समय है। यह बताने का समय है कि पुलिस की जरूरत सबको है, लेकिन क्या पुलिस पर भी पुलिस बिठानी पड़ेगी? दायरा तो हर पद के साथ जुड़ा है, फिर जहां समूहगान अपेक्षित था, वहां तीन किरदारों ने अपनी-अपनी डफली और अपना-अपना बेसुरा राग क्यों चुना? दंड और उसका तरीका तो शासन ही तय करेगा, लेकिन सबसे जरूरी उन कारणों को खत्म करना है जिनसे ये घटनाएं होती हैं।

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