सरकाघाट प्रकरण: अब छोडि़ए बिहार-उत्तर प्रदेश को कोसना, हिमाचल ने यह नैतिक हक खोया

अब तक बिहार उत्तर प्रदेश या झारखंड को डायन प्रकरणों पर खलनायक बताने वाले हिमाचल प्रदेश ने अब ऐसा कहने का नैतिक हक खो दिया है।

By Rajesh SharmaEdited By: Publish:Thu, 14 Nov 2019 08:19 AM (IST) Updated:Thu, 14 Nov 2019 03:40 PM (IST)
सरकाघाट प्रकरण: अब छोडि़ए बिहार-उत्तर प्रदेश को कोसना, हिमाचल ने यह नैतिक हक खोया
सरकाघाट प्रकरण: अब छोडि़ए बिहार-उत्तर प्रदेश को कोसना, हिमाचल ने यह नैतिक हक खोया

धर्मशाला, नवनीत शर्मा। अब तक बिहार, उत्तर प्रदेश या झारखंड को 'डायन प्रकरणों' पर खलनायक बताने वाले हिमाचल प्रदेश ने अब ऐसा कहने का नैतिक हक खो दिया है। हरियाणा की खाप संस्कृति की आलोचना का अधिकार भी अब नहीं रहा। देवभूमि के सभ्य समाज की आत्मा को झकझोरने वाला ऐसा वीडियो वायरल न होता तो लोग अब भी देवभूमि शब्द की धूप सेंक रहे होते....उसकी जड़ों को खोखला करने वाले कोहरे पर शायद ही नजर जाती।

इस वीडियो ने न केवल सरकार, प्रशासन और न्यायपालिका का ध्यान खींचा बल्कि हिमाचली समाज के एक हिस्से की कलई भी खोल दी है। एक सम्मानित घर की वृद्धा...उसके पीछे भीड़ पड़ी है। वृद्धा के मुंह पर कालिख पोती गई है...गले में जूते हैं...सिरविहीन भीड़ पर बुजुर्ग महिला के करुण क्रंदन का कोई असर नहीं है...वह शालीनता की तरह हांफ रही है...शक्तिपीठों के प्रदेश में वह मानवता की तरह सिसक रही है लेकिन उसकी आवाज दबाई जा रही है।

नेपथ्य से आती किसी 'सांचे दरबार की जय' लगातार गूंज रही है। उन आवाजों में अहंकार है...कानून और व्यवस्था का तिरस्कार है...और इंसानियत का तकाजा नदारद है। पहले पुलिस को प्रमाण की तलाश थी... अर्जियां फाड़ी जा चुकी थीं, गुहारें खाली कुओं से आवाजों की तरह लौट आई थी। अजब संयोग है कि पीडि़ता का नाम राजदेई है.....! दरअसल, देई शब्द पहाड़ी संस्कृति में देवी के अलावा बेटी के लिए या कुल में किसी भी बेटी के लिए इस्तेमाल होता है। वीडियो सामने न आता, मीडिया उसे सामने न लाता तो आज राजदेई बुजुर्ग शरीर के जख्म और रूह पर टंके घावों को भरने की हालत में न होती।

वृद्धा पर आरोप था कि वह एक स्थानीय देवता की पूजा न करके अपने किसी देवता की पूजा करती है। यही गुनाह था और अदालत थी भीड़ की। देवता के प्रतिनिधि कहलाने वाले लोगों की। अब हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट के अलावा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भी संज्ञान ले रहा है। 24 के करीब लोग गिरफ्तार हो चुके हैं। लेकिन जब यह हो रहा था, कोई सामने नहीं आया। सिवाय सरकारी बस के चालक और परिचालक के। बाकी समाज पर फर्जी देवत्व सवार था।

वास्तव में अतिवाद में जीने वाला समाज न्यायप्रिय नहीं हो सकता। क्योंकि यह सब देवताओं के नाम पर किया गया था, इसलिए कुछ लोगों के निशाने पर देवता भी आए। देव संस्कृति में कहीं भी निजी गरिमा को ठेस पहुंचाने की बात नहीं होती। इस एक घटना से देव संस्कृति को कलंकित करने कोशिश भी उतनी ही बुरी बात है। लेकिन जनाक्रोश इसलिए बढ़ा क्योंकि इससे मिलती जुलती कई और घटनाएं अब सामने आ रही हैं।

देवताओं का डर दिखा कर जनता का भयादोहन करने वाले तत्व आस्था से खिलवाड़ करते हुए अब अंधविश्वास की ओर ले जाने में लगे हैं। इन्हीं से निपटना है सरकार और हर बार प्रमाण मांगने वाले पुलिस और जिला प्रशासन को। वीडियो सामने न आता तो एक गरिमा और प्रतिष्ठा बुरी तरह जख्मी होकर पड़ी रहती। सुखद यह है कि देव समाज के कारदार संघ ने भी इस घटना की निंदा की है और दोषियों से सख्ती के साथ पेश आने की बात कही है।

चांद पर जाने की कोशिशों के बीच ये कौन लोग हैं जो ठेकेदार बन कर मध्यकालीन युग की ओर ले जा रहे हैं... सरकार के लिए यह पता लगाना कठिन नहीं है...बशर्ते प्राथमिकता स्पष्ट हो। वरना ऐसी घटनाओं का बढऩा सब पर सवाल उठाता है। ऐसे तत्व न केवल मनुष्यता के दुश्मन हैं बल्कि देव संस्कृति के प्रति संदेह उत्पन्न करने वाले विघ्नसंतोषी और उपद्रवी भी। यह ठीक है कि इस वक्त सब राजदेई के साथ खड़े हैं लेकिन जब वह या उसकी बेटी चिल्ला-चिल्ला कर अपने साथ हुई ज्यादती की बात कर रहे थे तो उन्हें क्यों नहीं सुना गया... इस पर लोकलाज से चलने वाले लोकराज में मंथन अवश्य होना चाहिए।

एक पूर्व सैनिक की पत्नी के साथ यह हो सकता है...जिसका एक दामाद वकील हो और दूसरा चिकित्सक... तो आम आदमी की बिसात ही क्या है। हिमाचल प्रदेश में हाईकोर्ट के जवाब तलब करने पर अब मानवाधिकार आयोग संभवत: आकार ले लेगा, लेकिन मुख्यमंत्री के आदेश से पहले प्रशासन और पुलिस ने क्या किया, इसकी एक नीरक्षीर जांच बेहद आवश्यक है। दूसरा पहलू यह भी है कि लकड़ी का लोहे से जितना वैर अपनी जगह लेकिन कहीं न कहीं लोहे के हत्थे वाली लकड़ी के कोण से भी जांच अनिवार्य लग रही है।

भीड़ के पागलपन का हिसाब इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उस गांव में इतने लोग आरोपित हैं कि उनकी हिरासत और गिरफ्तारी के दौरान ज्यादातर घरों में ताले हैं। इसे ही कुएं में भांग पडऩा कहते हैं। यानी लगभग सब शामिल थे। इसलिए, यह जरूरी है कि जागरूकता सरकार के स्तर पर तो आए ही, प्रशासन और पुलिस के अलावा स्थानीय निकायों के प्रतिनिधियों को भी देव संस्कृति और देवता के नाम हुड़दंग में अंतर समझना होगा। जिन्होंने इस कृत्य को किया है, जाहिर है, उनके लिए दंड को उदाहरण बनना चाहिए।

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