दूसरे प्रदेश के लिए हीन भावना रखना देश की आत्मा के विरुद्ध, लोकतंत्र में बहस के स्‍तर में सुधार जरूरी

Parliament Session साधारण बातचीत में भी शब्दों का चयन अनुपयुक्त प्रतीत होने पर उन्हें असंसदीय बताया जाता है। यानी संसदीय शब्द वे हैं जिन्हें मानक माना जा सकता है। दूसरे प्रदेश के लिए हीन भावना रखना देश की आत्मा के विरुद्ध है।

By Rajesh SharmaEdited By: Publish:Thu, 24 Sep 2020 12:42 PM (IST) Updated:Thu, 24 Sep 2020 12:46 PM (IST)
दूसरे प्रदेश के लिए हीन भावना रखना देश की आत्मा के विरुद्ध, लोकतंत्र में बहस के स्‍तर में सुधार जरूरी
लोकतंत्र में बहस के स्‍तर में सुधार की जरूरत है।

धर्मशाला, नवनीत शर्मा। साधारण बातचीत में भी शब्दों का चयन अनुपयुक्त प्रतीत होने पर उन्हें असंसदीय बताया जाता है। यानी संसदीय शब्द वे हैं, जिन्हें मानक माना जा सकता है। गत सप्ताह कृषि विधेयकों पर चर्चा के दौरान कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी इतने अधीर हुए कि देश ने उन्हें लगभग गालियां देते देखा। लंबे समय तक अधीर आड़ लेते रहे हैं कि उन्हें हिंदी नहीं आती, इसलिए फिसल जाते हैं। इस बार उनके निशाने पर हिमाचल प्रदेश के सांसद और केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर रहे। जाहिर है, ये शब्द अब तक संसदीय कार्यवाही से निकल चुके होंगे, लेकिन देश ने सब देख भी लिया, सुन भी लिया।

यह घटनाक्रम कुछ महत्वपूर्ण सवाल उठाता है। सवाल... कि सबसे बड़े लोकतंत्र में बहस का स्तर यह हो जाएगा? आम जनता तो आम जनता, क्या माननीय भी इस बात में आनंद लेते हैं कि स्वतंत्र गाली के साथ ही किसी को उसके प्रदेश के साथ जोड़ कोई अपशब्द कहे जाएं? हिमाचल प्रदेश की छवि अब भी पहाड़ी छोकरा या मुंडू वाली क्यों है? अंतिम यह है कि प्रदेशों और उनके निवासियों के एक दूसरे के प्रति जो पूर्वाग्रह हैं, वे क्यों खत्म नहीं होते?

अगर संवाद का स्थान अपशब्द ले लेंगे तो लोकतंत्र की मृत्यु निश्चित है। माइक छीनना, कागजों के गोले बना कर फेंकना साबित करता है कि माननीयों के पास भी शब्दों का घोर अकाल है। वे इतने विपन्न और निरूपाय हैं कि स्वयं पर कोई नियंत्रण नहीं है। हिमाचल प्रदेश विधानसभा में भी ऐसा शब्द बीते दिनों सुना गया। यानी यह संक्रमण सर्वत्र है और लोकतांत्रिक परंपराओं को खा रहा है। जब संसद में किसी को उसके प्रदेश के साथ जोड़ कर गलियाया जाता है तो इससे जाहिर होता है कि सबकी रुचि स्वयं को महान और दूसरे को गया गुजरा समझने की है। अगर सांसद भी इस संदर्भ में 'देश की आवाज' बन रहे हैं तो क्षमा करें, यह किसी गली की आवाज तो हो सकती है, देश की आवाज नहीं।

अब पहाड़ी छोकरा और मुंडू जैसे शब्द विमर्श पर आते हैं। एक किस्सा याद आया। पानी के मामले सुलझाने के लिए पंजाब में एक बैठक हुई जिसमें हिमाचल के अधिकारी भी बुलाए गए। पंजाब, हरियाणा और हिमाचल के अधिकारियों के भोज के दौरान हिमाचल के अधिकारी ने कहा, ' हमने राजस्थान तक पानी पहुंचा दिया, पंजाब भी गुलजार है लेकिन हमारे पौंग बांध विस्थापित अब तक नहीं बसे। कुछ करो।' इसे सुनकर पंजाब के शीर्ष अधिकारी ने कहा, 'हमने तो सुना है कि ये पहाडि़ए अपनी जमीनें बेच कर राजस्थान से भाग गए।' इसे सुन कर हिमाचल के दो शीर्ष अफसरों ने विरोध जताते हुए कहा कि आपके इस शब्द प्रयोग से बैठक हो चुकी। हम चले। मान-मनौव्वल के बाद बैठक पुन: शुरू हुई। भाखड़ा ब्यास प्रबंधन बोर्ड का सारा कामधाम हिमाचल में है लेकिन हिमाचल का हिस्सा गुल।

भाखड़ा बांध हिमाचल में है, क्या मिला आज तक हिमाचल को? नदियां हिमाचल की, प्रकृति हिमाचल की मुनाफा औरों का? पहाडिय़ा कह कर मजाक ही उड़ाया न। इसी पहाड़ से मेजर सोमनाथ शर्मा थे, उससे पहले भंडारी राम थे। जोरावर सिंह थे। बहादुरी पुरस्कारों में हिमाचल का रुतबा रहस्य नहीं है लेकिन राजनीति में क्या आदर्श दिया? डॉ. यशवंत सिंह परमार एक मानक हैं। अनुराग ठाकुर का राष्ट्रीय रुतबा है और शांता का जिक्र अंत्योदय से जुड़ता है। जेपी नड्डा विश्व के सबसे बड़े राजनीतिक दल के अध्यक्ष हैं। फिलहाल इतना ही। प्रेम कुमार धूमल ने मुख्यमंत्री रहते हुए और अब जयराम ठाकुर ने पूरे सदन की आवाज में हिमालयन रेजिमेंट मांगी थी, क्या हुआ आज तक? और तो और एक केंद्रीय विश्वविद्यालय तक को उधार के भवन से मुक्त नहीं करवा सके। इसलिए दीन हीन छवि बनती है।

अब सवाल पूर्वाग्रह का। वास्तव में अधीर रंजन जैसों ने हिमाचल उतना ही देखा है, जितना हमारे कुछ लोगों ने बिहार, उत्तर प्रदेश, या पश्चिम बंगाल देखा है। संसद में पहुंच जाने का अर्थ देश के हर राज्य की परंपरा, संस्कृति और योगदान से परिचित होने का प्रमाण नहीं है। दुर्भाग्य यह है ये पूर्वाग्रह गली-मोहल्ले, गांव और शहर से शुरू हो जाते हैं। यानी हम बेहतर और दूसरे कमतर। लेकिन यह भी केवल शब्दों तक है। असल में हिमाचल ने अपने सांस्कृतिक प्रतीक चमकाए ही नहीं। दिल्ली में ऊंट और हाथी वाली जयपुरी कलाकृतियां पहाड़ी शैली के नाम से क्यों परोसी जाती हैं? सत्यानंद स्टोक्स क्यों नायक नहीं? बाबा कांशी राम क्यों नायक नहीं? नई शिक्षा नीति की चर्चा के बीच माननीयों को भी स्वयं को शिक्षित करना चाहिए कि किसी भी दूसरे प्रदेश के लिए हीन भावना रखना देश की आत्मा के विरुद्ध है। पक्ष कोई भी हो, आत्मचिंतन करे कि सार्वजनिक मंच पर मुद्दों को तालियां मिलें, लफ्फाजी को नहीं। सोशल मीडिया तक में इस्तेमाल की जा रही भाषा को भी देखें। शालीन विमर्श भी छिन गया तो रहेगा क्या? इसलिए यह जाले हटाने का वक्त है:

कुछ लोग कह रहे हैं कि मंजर का है कसूर

सच ये है उनकी आंखों से जाला नहीं गया।

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