Himachal Sair Parv: आधुनिकता के दौर में युवा पीढ़ी भूली सायर का महत्व, जानिए क्यों मनाया जाता है पर्व
Himachal Sair Festival देवभूमि हिमाचल प्रदेश में साल भर बहुत से त्योहार मनाए जाते हैं और लगभग हर सक्रांति पर कोई न कोई उत्सव मनाया जाता है। प्रदेश की पहाड़ी संस्कृति का प्राचीन भारतीय सभ्यता या यूं कहें तो देसी कैलेंडर के साथ एकरसता का परिचायक है।
भवारना, शिवालिक नरयाल। Himachal Sair Festival, देवभूमि हिमाचल प्रदेश में साल भर बहुत से त्योहार मनाए जाते हैं और लगभग हर सक्रांति पर कोई न कोई उत्सव मनाया जाता है। प्रदेश की पहाड़ी संस्कृति का प्राचीन भारतीय सभ्यता या यूं कहें तो देसी कैलेंडर के साथ एकरसता का परिचायक है। सायर उत्सव भी इन्हीं त्योहारों में से एक है। प्रदेश में आज सायर उत्सव मनाया जा रहा है। सायर त्योहार अश्विन महीने की संक्रांति को मनाया जाता है। यह उत्सव वर्षा ऋतु के खत्म होने और शरद ऋतु के आगाज के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। इस समय खरीफ की फसलें पक जाती हैं और काटने का समय होता है, तो भगवान को धन्यवाद करने के लिए यह त्योहार मनाते हैं। सायर के बाद ही खरीफ की फसलों की कटाई की जाती है। इस दिन “सैरी माता” को फसलों का अंश और मौसमी फल चढ़ाए जाते हैं और साथ ही राखियां भी उतार कर सैरी माता को चढ़ाई जाती हैं। वर्तमान में त्योहार मनाने के तरीके भी बदलें हैं और पुराने रिवाज भी छूटे हैं।
सर्दी की शुरुआत मानते हैं
72 वर्षीय बुजुर्ग महिला कृष्णा देवी बताती हैं कि ठंडे इलाकों में इसे सर्दी की शुरुआत माना जाता है और सर्दी की तैयारी शुरू हो जाती है। लोग सर्दियों के लिए अनाज और लकड़ियां जमा करके रख लेते हैं। सायर आते ही बहुत से त्योहारों का आगाज़ हो जाता है।
बरसात की समाप्ति, अन्न पूजा और पशुओं की खरीद फरोख्त
75 वर्षीय बुजुर्ग प्रीतम चंद, 79 वर्षीय बिचित्र सिंह बताते हैं इस उत्सव को मनाने के पीछे एक धारणा यह है कि प्राचीन समय में बरसात के मौसम में लोग दवाएं उपलब्ध न होने के कारण कई बीमारियों व प्राकृतिक आपदाओं का शिकार हो जाते थे तथा जो लोग बच जाते थे वे अपने आप को भाग्यशाली समझते थे तथा बरसात के बाद पड़ने वाले इस उत्सव को खुशी खुशी मनाते थे। तब से लेकर आज तक इस उत्सव को बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है। सायर का पर्व अनाज पूजा और बैलों की खरीद-फरोख्त के लिए मशहूर है। कृषि से जुड़ा यह पर्व ग्रामीण क्षेत्रों में ही नहीं, बल्कि शहरों में भी धूमधाम के साथ मनाया जाता है। बरसात के मौसम के बाद खेतों में फसलों के पकने और सर्दियों के लिए चारे की व्यवस्था किसान और पशु पालक सायर के त्योहार के बाद ही करते हैं।
अब नहीं सुनाई देती बच्चो के पैसे खेलने की खनक
एक समय था जब सायर पर्व का आगमन का पता गांव के बच्चों के पैसे खेलने के पता चल जाता था लेकिन अब अधिकतर बच्चे इस खेल से भी अनजान हैं। सायर पर्व के आने से एक हफ्ते पहले बच्चे एक पैसों का खेल जिसमें सबका एक-एक सिक्का शामिल होता था खेलते थे। सायर पर्व के दिन सिक्कों की जगह अखरोटों से खेलते थे। लेकिन अब इक्का दुक्का बच्चे ही इस पर्व का महत्व व इस खेल को जानते हैं।
युवा पीढ़ी ने घर में बैठ कर ही कंप्यूटर या टीवी के साथ मनाया सायर पर्व आधुनिकता के इस दौर में बच्चे जहां कंप्यूटर ओर लैपटॉप के आदी हो गए हैं। वहीं उनके लिए इस पर्व के कोई मायने नहीं हैं। बीटेक कर नौकरी करने वाले यतिन ठाकुर का कहना है कि उन्होंने आज तक सायर पर सिक्कों का खेल नहीं खेला। वहीं उन्हें इस पर्व को क्यों मनाया जाता है यह भी मालूम नहीं। उनका कहना है कि उन्हें इतना जरूर पता है कि इस दिन तरह-तरह के स्वादिष्ट व्यंजन खाने को मिलते हैं। वहीं राजीव पटियाल कहते हैं कि भागदौड़ की इस रेस में आजकल किसी के भी इस पर्वों को मनाने का टाइम ही कहां है। बेशक सायर के दिन वह घर पर थे। लेकिन उन्होंने इस छुट्टी को भी जाया नहीं जाने दिया और घर में रह कर ही कंप्यूटर पर अपना काम निपटाया। भवारना के सुरिंदर चौहान का कहना है कि आजकल के बच्चों को इस पर्व के महत्व के बारे में नहीं पता जोकि चिंताजनक है। सभी अविभावकों को अपने बच्चों को अपनी संस्कृति के बारे में जागरूक करने की आवश्यकता है ताकि हम सब इस संस्कृति को बचा सकें।
इस दिन बनते हैं ये पकवान
दिन में छह से सात पकवान बनाए जाते हैं, जिनमें पतरोड़े, पकोड़े और भटुरु जरूर होते हैं। इसके अलावा खीर, गुलगुले आदि पकवान भी बनाये जाते हैं। यह एक थाली में पकवान सजाकर आस पड़ोस ओर रिश्तेदारों में बांटे जाते हैं। अगले दिन धान के खेतों में गलगल फेंके जाते हैं व अगले वर्ष अच्छी फसल के लिए प्रार्थना भी की जाती हैं।