Kargil Vijay Divas: अदम्य साहस के प्रतीक थे कैप्टन विक्रम बतरा, पढ़ें कारगिल युद्ध में उनकी शौर्यगाथा

कारगिल युद्ध के बलिदानी कैप्टन विक्रम बतरा ने युद्ध के दौरान यह दिल मांगे मोर का नारा देकर भारतीय जवानों में जोश भर दिया था। अदम्य साहस और बहादुरी के चलते शेरशाह के नाम से विख्यात विक्रम बतरा के नाम से दुश्मन भी कांपते थे।

By Edited By: Publish:Mon, 26 Jul 2021 06:46 AM (IST) Updated:Mon, 26 Jul 2021 11:42 AM (IST)
Kargil Vijay Divas: अदम्य साहस के प्रतीक थे कैप्टन विक्रम बतरा, पढ़ें कारगिल युद्ध में उनकी शौर्यगाथा
कारगिल युद्ध के बलिदानी कैप्टन विक्रम बतरा

पालमपुर, कुलदीप राणा। कारगिल युद्ध के बलिदानी कैप्टन विक्रम बतरा ने युद्ध के दौरान 'यह दिल मांगे मोर' का नारा देकर भारतीय जवानों में जोश भर दिया था। अदम्य साहस और बहादुरी के चलते शेरशाह के नाम से विख्यात विक्रम बतरा के नाम से दुश्मन भी कांपते थे। शहादत का जाम पीने से पहले कैप्टन बतरा के आखिरी शब्द थे 'जय माता दी'। 9 सितंबर, 1974 को पालमपुर में जन्मे विक्रम बतरा का बचपन का नाम लव था। गिरधारी लाल और कमला बतरा के घर दो बेटियों के बाद दो जुड़वां बेटों ने जन्म लिया, जिनका नाम लव-कुश रखा गया। लव को बाद में विक्रम और कुश को विशाल का नाम दिया गया। बताया जाता है कि विक्रम बतरा ने 18 वर्ष की आयु में ही नेत्रदान का निर्णय लिया था। यही कारण था कि नेत्र बैंक का कार्ड हमेशा अपने पास रखते थे।

टेबल टेनिस के थे बेहतरीन खिलाड़ी

डीएवी और केंद्रीय विद्यालय पालमपुर में शिक्षा ग्रहण करने वाले विक्रम बतरा बचपन में पिता से देशप्रेम की कहानियां सुनने के कारण देशभक्ति के जज्बे से प्रबल थे। पढ़ाई में बेहतर प्रदर्शन करने के साथ वह टेबल-टेनिस के भी अच्छे खिलाड़ी थे। पालमपुर में जमा दो तक की शिक्षा ग्रहण करने के बाद विक्रम चंडीगढ़ चले गए और उन्होंने डीएवी कालेज चंडीगढ़ में विज्ञान में स्नातक की डिग्री ली।

6 दिसंबर, 1997 को सोपोर में हुए थे तैनात

जुलाई 1996 में विक्रम ने भारतीय सेना अकादमी देहरादून में प्रवेश पाया। 6 दिसंबर, 1997 को विक्रम को जम्मू के सोपोर में सेना की 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स में बतौर लेफ्टिनेंट नियुक्ति मिली। वर्ष 1999 में विक्रम बतरा ने कमांडो प्रशिक्षण के साथ अन्य प्रशिक्षण भी हासिल किए। पहली जून, 1999 को विक्रम की टुकड़ी को कारगिल युद्ध में भेजा गया। हम्प और रॉकी नाब स्थानों को फतह करने के बाद विक्रम को कैप्टन बना दिया गया। इसके बाद श्रीनगर-लेह मार्ग से ऊपर 5140 चोटी को पाक सेना से मुक्त करवाने का जिम्मा विक्रम की टुकड़ी को सौंपा गया। अति दुर्गम क्षेत्र होने के बावजूद उन्होंने साथियों के साथ 20 जून, 1999 को सुबह 3.30 बजे पर चोटी पर कब्जा जमा लिया था। अगले दिन चोटी 5140 में भारतीय ध्वज के साथ विक्रम और उनकी टीम का फोटो मीडिया में आने पर हर कोई उनकी वीरता का कायल हो गया। इसके बाद सेना ने चोटी 4875 को भी कब्जे में लेने का अभियान शुरू किया। बतरा ने जान की परवाह न करते हुए लेफ्टिनेंट अनुज नैयर के साथ कई पाकिस्तानी सैनिकों को मार गिराया। इसी दौरान एक अन्य लेफ्टिनेंट नवीन घायल हो गए। उन्हें बचाने के लिए विक्रम बंकर से बाहर आ गए। दुश्मनों की एक गोली कै. बतरा के सीने में लगी और कुछ देर बाद विक्रम जय माता दी कहते हुए भारत की मां की गोद में सदा के लिए समा गए। हालांकि विक्रम की शहादत के बाद भी उनकी टुकड़ी ने चोटी 4875 को फतह कर लिया। कैप्टन विक्रम बतरा के अदम्य साहस को देखते हुए 15 अगस्त, 1999 को उन्हें परमवीर चक्र से नवाजा गया। यह अवार्ड बलिदानी के पिता जीएल बतरा ने राष्ट्रपति से प्राप्त किया। जीएल बतरा ने रोष जताया है कि स्वजन की बार-बार गुहार के बाद भी बलिदानियों की जीवनियां पाठ्य पुस्तकों में शामिल नहीं की गई हैं। एसडीएम पालमपुर अमित गुलेरिया ने कहा कि उपमंडल प्रशासन के पास बलिदानी कै. विक्रम बतरा सहित कुल छह प्रतिमाएं पहुंची हैं। इन्हें शीघ्र उचित स्थल पर स्थापित किया जाएगा।

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