Pahari Baba kanshi Ram Jayanti: पचास पैसे का डाक टिकट हुआ आउटडेटिड, कांशीराम बाबा नहीं
एक तो डाक टिकट और वह भी पचास पैसे का..मतलब आज के जमाने में पूरी तरह से आउटडेटिड..लेकिन जिनके लिए डाक टिकट जारी किया गया हो वह कभी पुराने नहीं हो सकते।
धर्मशाला, भूपेंद्र जम्वाल भूपी। एक तो डाक टिकट और वह भी पचास पैसे का..जिसका अब मूल्य ही कुछ नहीं रहा..मतलब आज के जमाने में पूरी तरह से आउटडेटिड या पुराना..लेकिन जिनके लिए डाक टिकट जारी किया गया हो, वह कभी पुराने नहीं हो सकते। 'बुलबुल-ए-पहाड़' और 'पहाड़ी गांधी' के नाम से नवाजे गए बाबा काशीराम के योगदान को कैसे पुराना माना जाए, जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए अनेक कष्ट सहे। 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाधी ने बाबा कांशीराम के सम्मान में पचास पैसे का डाक टिकट जारी किया था। यह न केवल बाबा के परिवार, गाव या जिले के लिए नहीं बल्कि पूरे हिमाचल प्रदेश के लिए गौरव की बात थी। परंतु आज हम बाबा के योगदान को भूलते जा रहे हैं।
उदासीन सा रवैया अपना रखा है हम सबने बाबा काशीराम के लिए। बाबा के नाम पर कभी पुरस्कार दिए जाते थे, सांस्कृतिक सदन होते थे परंतु आज बाबा का पुश्तैनी घर भी खंडहर बन चुका है। बाबा की स्मृतियों से संबद्ध अनेक वस्तुएं जिनका उपयोग बाबा ने अपने जीवनकाल में किया था नष्ट होने को हैं। बाबा काशीराम को स्याह जरनैल के रूप में भी जाना जाता है। बाबा ने सरदार भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की शहादत के समय यह प्रतिज्ञा की थी कि वे तब तक स्याह (काले) कपड़े पहनेंगे जब तक देश अंग्रेजों के अत्याचार से मुक्त नहीं हो जाता। उनके नसीब में आजादी देखना नहीं लिखा था, परंतु जब तक जीवित रहे तब तक उन्होंने अपना प्रण पूरा किया।
1937 में बाबा को जब गढ़दीवाला (होशियारपुर) की सभा में तो पंडित नेहरू ने सुना तो वे उनसे प्रभावित हुए बिना न रह सके। पंडित जी ने उन्हें 'पहाड़ी गांधी' का नाम दिया। बाबा ने कागड़ी भाषा में खुद के लिखे गीत लोगों को सुनाए ताकि लोग जागें, अपनी बेड़ियों को तोड़ने का साहस जुटाएं और गुलामी के खिलाफ आवाज उठाएं। 11 जुलाई 1882 को जन्मे काशीराम की सुरीली आवाज जब सरोजिनी नायडू ने सुनी तो उन्होंने बाबा को बुलबुल-ए-पहाड़ की उपाधि दे दी। जीवन के महत्वपूर्ण वर्ष उन्होंने गुरदासपुर, लाहौर, मुल्तान, फिरोजपुर, धर्मशाला, अटक, लायलपुर आदि जेलों में व्यतीत किए।
गृहस्थ जीवन का सुख तो उनके भाग्य में था ही नहीं। 1916 से 1943 तक वे आजीविका के लिए कुछ भी नहीं कर पाए। उनका एकमात्र उद्देश्य जनचेतना ही रह गया था। होशियारपुर के पहाड़ी इलाकों से लेकर कागड़ा घाटी के हरेक गाव में वे आजादी की अलख जगाने घूमते रहे। अपने शब्द-बाण स्थानीय जनता पर कुछ इस प्रकार चलाते रहे : इह्ना पहाड़िया दी मारी गई मत्त लोको उजड़ी कागड़ा देस जाणा परदेसे दे लोक जागी उठे सारे कागड़े दे लोक खूब सुत्ते इह्ना बड्डेया अपणा नक्क लोको उजड़ी कागड़े देस जाणा.. कागड़ी पहाड़ी भाषा में रचित इन गीतों की लंबी सूची है, जिनमें प्रेम रस और देशभक्ति के अनेक उदाहरण मिलते हैं।
बाबा तो कष्ट सहते सहते 15 अक्टूबर 1943 को संसार को अलविदा कह गए परंतु हम लोग उनकी कुर्बानियों के बदले उनका सम्मान नहीं कर पाए। स्मारक बनना तो दूर जो बचा है वह भी हम से संभाला नहीं जा रहा । हम सबका यह कर्तव्य है कि उनसे जुड़ी प्रत्येक वस्तु को यथासंभव संरक्षित करें ताकि अगली पीढ़ी तक एक महान क्रातिकारी देशभक्त, लोक कवि के योगदान की गाथा को साक्ष्यों सहित प्रस्तुत किया जा सके। (लेखक शिक्षक एवं युवा साहित्यकार हैं)