एक वैक्सीन हो भ्रमों के खिलाफ, गलत सूचना और मिथ्या के प्रचार-प्रसार से हो रहा देश का नुकसान
देश में कोरोना वायरस के खिलाफ वैक्सीन के साथ ही एक और वैक्सीन की भी जरूरत है। जो भ्रमों और मिथ्या प्रचार के खिलाफ हो। अधूरे ज्ञान और उसके प्रचार-प्रसार से हित तो किसी का नहीं सधता। इसलिए ऐसी वैक्सीन की सख्त जरूरत है।
कांगड़ा[हिमाचल प्रदेश], नवनीत शर्मा। बीते सप्ताह हिमाचल प्रदेश में एक आंगनबाड़ी सहायिका की मौत हो गई। यह महिला फ्रंटलाइन कोरोना वॉरियर थी, इसलिए उसे वैक्सीन दी गई थी। उसने आखिरी सांस कोरोना टीका लगने के 23-24 दिन के बाद ली। इधर इस घटना ने अपनी ऐसी प्रस्तुति देखी जैसे उसकी मौत वैक्सीन के कारण हुई। यही वह बिंदु है जहां कोरोना के खिलाफ वैक्सीन के साथ एक ऐसी वैक्सीन की जरूरत है जो भ्रमों और मिथ्या प्रचार के खिलाफ भी हो। क्योंकि अधूरे ज्ञान और उसके प्रचार-प्रसार से हित तो किसी का नहीं सधता। हां, कोरोना के विरुद्ध अपनी जंग जारी रखे हुए सभी पक्ष हतोत्साहित अवश्य होते हैं, जबकि कितने ही देश वैक्सीन देने के लिए भारत के आभारी हैं।
कितने लोग ऐसे हैं जिनकी मौत हुई और उससे पहले उन्हें कोरोना का टीका लगाया था? आंकड़ा बेशक 30 से ऊपर बताया जाता है, लेकिन यह कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है। भारत की समग्र साक्षरता दर जो भी हो, यह झलक मिली कि मेडिकल की पढ़ाई किए बगैर ही लोग मौत के कारणों के प्रति पूरी जानकारी रखते हैं। कभी-कभी तो इतनी कि स्वयं चिकित्सा जगत के लोग भी चुप रहने में भला समझते हैं। पहली बात, यह केवल पोस्टमार्टम से नहीं कई प्रकार की सघन जांच से पता चलेगा कि मौत का कारण क्या रहा। दूसरी बात, मौत को सीधे कोरोना वैक्सीन के साथ जोड़ना न केवल विज्ञानियों के श्रम के प्रति अन्याय है, अपितु इतने बड़े देश में जो अभियान चल रहा है, उसके प्रति संदेह व्यक्त करना भी है। तीसरी बात, अगर वैक्सीन के दुष्प्रभाव हैं भी तो कितने हैं? चौथा पक्ष, कई जीवन रक्षक दवाइयां ऐसी हैं जिनका दुष्प्रभाव हो सकता है। तो क्या वे बंद हो गईं, उनका प्रयोग बंद कर दिया गया?
प्रदेश के वरिष्ठ फॉरेसिंक विज्ञानी डॉ. राहुल गुप्ता कहते हैं, ‘किसी को कोई चीज बुरी नीयत के साथ खिलाई जाए तो उसे जहर कहा जाता है, लेकिन पूरे शोध के बाद कोई चीज किसी को उसकी जान बचाने के लिए खिलाई जाए तो उसे दवा कहते हैं।’ कोरोना के खिलाफ पूरा तंत्र शिद्दत के साथ काम कर रहा है। ऐसे में बिना तथ्यों को जाने-परखे वैक्सीन पर संदेह करना वस्तुत: एक देश के रूप में किए गए कार्य को कम आंकना है, उसका अपमान करना है, लोगों में वैक्सीन के प्रति भयभीत करना है।
हां, एक बात अवश्य हो सकती है कि ऐसे मामलों का अनिवार्य अध्ययन किया जाए, ताकि उसके निष्कर्ष और बेहतरी के काम आ सकें। स्वास्थ्य के क्षेत्र में कार्य करने वाले कुछ लोगों ने बीते दिनों केंद्र सरकार को लिखा भी था कि ऐसे मामले परखे जाएं और क्या निकला, यह सार्वजनिक किया जाए। जनवरी में ही सरकार कह चुकी है कि एक-एक मामले का अध्ययन किया जाएगा, निष्कर्ष सार्वजनिक किए जाएंगे।
सच यह है कि अभी देश के सामने कोरोना की चुनौती है और बड़ा दायित्व अधिक से अधिक लोगों को वैक्सीन देना है। जहां तक पारदर्शिता की बात है, आंगनबाड़ी सहायिका की पैथोलॉजिकल ऑटोप्सी की गई है। पूरी प्रक्रिया की वीडियोग्राफी हुई है। कोई अंधेरे में न रहे, इसीलिए चिकित्सा अधीक्षक ने साफ कहा कि महिला ग्यूलिन बार सिंड्रोम से ग्रस्त थी। कुछ दवाइयां लेने के बाद यह सिंड्रोम आता है। इसमें पैरासिस और पैरालिसिस की आशंका रहती है।
पैरासिस यानी शरीर में कमजोरी और जब दुर्बलता बढ़ जाए तो वह लकवे या अधरंग तक पहुंच जाती है। समिति गठित हो चुकी है, शरीर के विभिन्न अंगों से नमूने लेकर विभिन्न प्रयोगशालाओं को भेज दिए गए हैं। एक वरिष्ठ चिकित्सक तो कहते हैं, ‘पारदर्शिता का इससे अधिक प्रमाण क्या होगा कि जो भी नमूने लिए गए हैं, वे सहेज लिए गए हैं, ताकि उच्चतर शोध की आवश्यकता होने पर उन्हें प्रयोग किया जा सके।’
निष्कर्ष के प्रति मनुष्य की जिज्ञासा नई बात नहीं है, लेकिन यदि वह उत्सुकता गलत धारणाओं को बल दे या एक बड़े उद्देश्य को कमजोर करे तो अपना प्रयोजन खो देती है। इसलिए कोरोना के साथ युद्धरत हर व्यक्ति का साहस बढ़ाएं। हमीरपुर की आंगनबाड़ी सहायिका के विषय में जांच रपट की प्रतीक्षा करना ही उचित है।