मिंजर मेला आज से, मुस्लिम-हिदू भाईचारे का प्रतीक है यह उत्सव

मुस्लिम-हिदू भाईचारे का प्रतीक मिंजर मेला इस बार भी पिछले वर्ष की भांति कोरोना के कारण मात्र रस्म के तौर पर मनाया जाएगा।

By JagranEdited By: Publish:Sat, 24 Jul 2021 07:04 PM (IST) Updated:Sat, 24 Jul 2021 07:04 PM (IST)
मिंजर मेला आज से, मुस्लिम-हिदू भाईचारे का प्रतीक है यह उत्सव
मिंजर मेला आज से, मुस्लिम-हिदू भाईचारे का प्रतीक है यह उत्सव

सुरेश ठाकुर,चंबा

मुस्लिम-हिदू भाईचारे का प्रतीक मिंजर मेला इस बार भी पिछले वर्ष की भांति कोरोना के कारण मात्र रस्म के तौर पर मनाया जाएगा। जिला के लोगों के लिए हर वर्ष जुलाई का अंतिम रविवार काफी अहम होता है। माह के अंतिम रविवार को चंबा मुख्यालय में अंतरराष्ट्रीय मिंजर मेले का आगाज होता है।

नगर परिषद कार्यालय से एक शोभायात्रा निकलती है जो लक्ष्मीनाथ मंदिर से होते हुए पिक पैलेस पहुंचती है। यहां पहुंचने के बाद मिर्जा परिवार द्वारा बनाई गई मिंजर को भगवान रघुनाथ को अर्पित करने के साथ ही मिंजर मेले का आगाज होता है। हिदू और मुस्लिम भाईचारे का प्रतीक मिजर मेला प्रदेश में ही नहीं बल्कि देशभर में प्रसिद्ध है।

चंबा के मिर्जा परिवार के सदस्य आज भी हिदू भाइयों के लिए मिजर बनाते हैं। रेशम के धागे में मोती पिरोकर बनाई इस मिजर के लक्ष्मीनारायण मंदिर में चढ़ाने के बाद ही मिजर महोत्सव यानी मिजर मेला शुरू होता है। लगभग 400 साल से यह परंपरा निभाई जा रही है। चंबा शहर राजा साहिल वर्मन द्वारा उनकी बेटी राजकुमारी चंपावती के कहने पर रावी नदी के किनारे बसाया गया था, इसलिए इस शहर का नाम चंबा रखा गया था। यह मेला श्रावण मास के दूसरे रविवार को शुरू होकर सप्ताह भर चलता है। इस बार यह मेला 25 जुलाई से दो अगस्त तक चलेगा। दो समुदायों में एकजुटता की मिसाल इस मेले की खासियत यह भी है कि सावन की रिमझिम फुहारों के बीच भगवान श्री लक्ष्मीनारायण के मंदिर में मिजर अर्पित की जाती है। इसके बाद अखंड चंडी महल में भगवान रघुवीर को मिजर चढ़ाई जाती है। ऐतिहासिक चंबा चौगान (मैदान) में मिजर का ध्वज चढ़ाया जाता है। इसके साथ ही मिजर मेला विधिवत रूप से आरंभ होता है।

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इसे कहा जाता है मिंजर

मक्की, गेहूं, धान और जौ आदि की बालियों को स्थानीय लोग मिंजर कहते हैं। मिंजर मेले के दौरान जरी या गोटे से बनाई गई मिंजर को कमीज के बटन पर लगाया जाता है और मेले के दौरान पहना जाता है। मेले के समापन पर इसे रावी नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है। मिंजर का आदान-प्रदान करना शुभ माना जाता है। आजकल मेले का स्वरूप बदला है लेकिन हिंदू देवताओं पर अर्पित होने वाली मिंजर को मुस्लिम समुदाय के लोगों द्वारा तैयार करने की परंपरा कायम है। मुस्लिम समुदाय के लोग रेशम के धागे में मोती पिरोकर मिंजर तैयार करते हैं।

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ऐसे बदला स्वरूप

पद्मश्री विजय शर्मा की मानें तो 1946 तक चंबा में झोटे (भैंसे) को रावी नदी में उतारा जाता था। मान्यता थी कि यदि भैंसा रावी के पार पहुंच जाए तो चंबा नगर के सभी दुख खत्म हो जाएंगे। लोग दूरदराज के गांवों से मिंजर में सिर्फ अंतिम दिन शोभायात्रा को देखने के लिए आते थे। 1947 में इस प्रथा को खत्म कर दिया गया। अब सिर्फ मिंजर का ही विसर्जन किया जाता है।

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मेले की परंपराएं

मिंजर मेले में पहले दिन भगवान रघुवीर जी की शोभायात्रा निकलती है। इसे चंबा के ऐतिहासिक चौगान तक लाया जाता है, यहां से मेले का आगाज होता है। भगवान रघुवीर जी के साथ आसपास के 200 से अधिक देवी-देवता भी चौगान में पहुंचते हैं। मिंजर मेले की मुख्य शोभायात्रा राजमहल अखंड चंडी से चौगान से होते हुए रावी नदी के किनारे तक पहुंचती है। यहां मिंजर के साथ लाल कपड़े में नारियल लपेट कर, एक रुपया और फल-मिठाई नदी में प्रवाहित की जाती है।

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मिजर मेले के आगाज पर प्रवेश रहेगा वर्जित

कोविड-19 के बीच रविवार को शुरू होने वाले मिंजर मेले के दौरान इस बार कई प्रकार की पाबंदियां रहेंगी। रविवार सुबह नौ से दोपहर एक बजे तक चंबा शहर के चौगान वार्ड, हटनाला वार्ड, चौंतड़ा वार्ड और सपड़ी वार्ड पूरी तरह से सील रहेंगे। भरमौर चौक पर नाकाबंदी कर शहर में किसी को भी प्रवेश की अनुमति नहीं दी जाएगी।

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