आप भी जानें उन लोगों के बारे में जिन्‍होंने जुर्म को बेपर्दा करने के लिए मौत से लिया लोहा

डेरे की चारदीवारी में कैद इसी सच को बेनकाब करने के लिए अनाम चिट्ठी को छापने का साहस दिखाने वाले पत्रकार थे- रामचंद्र छत्रपति।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Wed, 23 Jan 2019 11:58 AM (IST) Updated:Wed, 23 Jan 2019 06:18 PM (IST)
आप भी जानें उन लोगों के बारे में जिन्‍होंने जुर्म को बेपर्दा करने के लिए मौत से लिया लोहा
आप भी जानें उन लोगों के बारे में जिन्‍होंने जुर्म को बेपर्दा करने के लिए मौत से लिया लोहा

सिरसा, [सुधीर आर्य]। डेरा सच्चा सौदा ... एक धार्मिक डेरे का लबादा, लेकिन काम अनैतिक। डेरे की चारदीवारी में कैद इसी सच को बेनकाब करने के लिए अनाम चिट्ठी को छापने का साहस दिखाने वाले पत्रकार थे- रामचंद्र छत्रपति। सच का साथ देने में रामचंद्र कभी किसी से नहीं डरते थे। अपनों के चिंता जताने पर कहते थे- सच ही तो छाप रहा हूं। अपना कर्म कर रहा हूं, मेरी चिंता मत करो। मेरा कफन मेरे साथ है। ऐसा ही हुआ भी।

जब राम रहीम के कुकृत्यों को छत्रपति सामने लाने लगे और सच को दबाने की डेरामुखी गुरमीत राम रहीम की तमाम कोशिशें विफल होने लगीं तो उसने षड्यंत्र के तहत छत्रपति को गोली मरवाकर रास्ते से हटा दिया। अब फैसला आ गया है, सीबीआइ अदालत ने डेरे की उस करतूत को सबके सामने ला दिया है, जिसे छत्रपति दुनिया के सामने लाना चाहते थे।

जिद्दी और जुनूनी थे छत्रपति
छत्रपति की पत्नी कुलवंत कौर ने बताया कि रामचंद्र छत्रपति का ज्यादातर समय अखबार को समर्पित था। साध्वी के पत्र छपने के बाद उन्हें कुछ कहा जाता तो एक ही जवाब होता- सच छाप रहा हूं और अखबार में सच छपेगा। वे जुनूनी थे और जिद्दी स्वभाव के थे। यही कारण है कि वे आसानी से कोई बात नहीं मानते थे। उनके एक अन्य मित्र वीरेंद्र भाटिया के अनुसार छत्रपति अखबार की लाभ-हानि का गणित नहीं जानते थे। सच के लिए उन्होंने कभी समझौते नहीं किए।

सच की खातिर ‘पूरा सच’
वो छत्रपति जिन्होंने वकालत छोड़कर पत्रकारिता को धर्म और कर्म माना था, पहले अन्य सांध्य दैनिक में एक कॉलम लिखते थे। एक दिन अखबार के संपादक ने उनका कॉलम नहीं छापा तो उन्होंने अपना समाचार पत्र निकालने का निर्णय कर लिया। 2 फरवरी 2002 को उन्होंने ‘पूरा सच’ का प्रकाशन शुरू किया जो उनकी मृत्यु के बाद भी 12 वर्ष तक चलता रहा। यह अखबार उनका जुनून बन गया था।

किसी ने नहीं छापा साध्वी का खत
मई 2002 में एक पत्र डेरे की एक साध्वी की ओर से लिखा गया, जिसमें डेरा प्रमुख पर दुष्कर्म करने और कई दूसरे संगीन आरोप लगाए गए। यह पत्र सभी समाचार पत्रों के अलावा प्रमुख राजनेताओं को भी भेजा गया। यह पत्र गुपचुप रूप से बंटना तो शुरू हो गया, लेकिन डेरे की ताकत के आगे कोई कुछ नहीं कर पा रहा था। 30 मई 2002 को यह स्टोरी रामचंद्र छत्रपति के समाचार पत्र में प्रकाशित हुई।

‘कलम के खिलाफ जूनूनी गुस्सा’
बस इसके बाद तो डेरे के लोग रामचंद्र छत्रपति के खिलाफ हो गए। उन्हें धमकियां दी जाने लगीं। 7 जून को फतेहाबाद के अखबार के दफ्तर में हुए हमले के बाद रामचंद्र छत्रपति ने ‘कलम के खिलाफ जूनूनी गुस्सा’ शीर्षक से खबर छाप दी। जिसमें इस हमले के कारणों को सामने रखा। इसके बाद तो वे डेरे के निशाने पर आ गए और 15 दिन पहले उन्हें धमकियां दी गईं।

सच को सामने आने दो
इस केस के चश्मदीद ग्वाह रामचंद्र छत्रपति के पुत्र अंशुल छत्रपति ने बताया कि उसके पिता को 24 अक्टूबर 2002 को गोली मारी गई। इससे पहले डेरे ने उनकी कलम को रोकने के लिए सब हथकंडे अपनाए। 15 दिन पहले डेरे के मैनेजर कृष्ण लाल पूरा सच के दफ्तर में आए और खबर छापने को लेकर पहले लालच देने का प्रयास और फिर धमकाया, लेकिन उनके पिता डरे नहीं और एक ही बात कही कि डेरा जांच से क्यों डरता है। सच को सामने आने दो। मैं तो सच के साथ हूं। गोली मारने के बाद एक आरोपित मौके पर पकड़ा गया और पूरा स्पष्ट हो गया कि गोली षड्यंत्र के तहत डेरे की ओर से मारी गई है। आज साबित हो गया है कि डेरा प्रमुख गुरमीत सिंह के इशारे पर गोली मारी गई थी।

बेटे को करना पड़ा संघर्ष
रामचंद्र छत्रपति के बेटे अंशुल ने बताया कि स्वर्गवासी पिता को न्याय दिलाने के लिए उन्हें भी घोर संघर्ष करना पड़ा। न तो पुलिस उनके साथ थी और न ही तंत्र। पहले इसे पारिवारिक लड़ाई का रूप देने का प्रयास किया गया। फिर हथियार बदलने तक के प्रयास हुए। कोर्ट रूम में भी उन्हें नफरत भरी आंखों से देखने का प्रयास होता लेकिन वे घबराए नहीं। डेरे के 40 हजार लोगों के बीच से पेशी पर गए। फिर इस लड़ाई में आरएस चिम्मा जैसे दिग्गज वकील निस्वार्थ भाव से जुड़ गए। अंशुल ने बताया कि आरएस चिम्मा ने उनका केस हाईकोर्ट में इतने वर्षों तक निशुल्क लड़ा। पूर्व जस्टिस राजेंद्र सच्चर ने भी चिम्मा के आग्रह पर सुप्रीम कोर्ट में उनके केस की निशुल्क पैरवी की। अंशुल कहते हैं कि इस लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाने के दौरान हौसला कई बार टूटा लेकिन एक बात हमेशा मन में रही कि पिता जैसे और भी कळ्छ लोग इस देश में हैं। सच्चे आदमियों की आज भी कमी नहीं। बस कदम-कदम पर ऐसे सच्चे लोग मिलते गए और लड़ाई आखिरकार न्याय तक पहुंची।

पत्रकारिता आसान नहीं...
प्रेस आदर्श रूप से लोकतंत्र का प्रहरी है। पत्रकारिता एक गंभीर व्यवसाय है, जो सत्य की तलाश करने और रिपोर्ट करने की इच्छा को प्रज्वलित करता है। जो एक बेहतर समाज और दुनिया की जरूरत है। किसी भी ईमानदार और समर्पित पत्रकार के पास हमेशा सच्चाई को रिपोर्ट करना एक कठिन कार्य होता है, विशेष रूप से एक शक्तिशाली व्यक्तिके बारे में, जिसे पार्टी की तर्ज पर राजनीतिक संरक्षण प्राप्त हो। ऐसी स्थिति में यदि पत्रकार प्रभावशाली लोगों के हिसाब से काम करे, तो इनाम मिलता है और यदि ईमानदारी से काम करे, तो उसे सजा मिलती है। इसलिए लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को हिलाने की कोशिश करने वालों को बख्शा नहीं जाना चाहिए। इस केस में भी पत्रकार ने अतिशक्तिशाली डेरे के खिलाफ निर्भीकता से लिखा और मासूम पत्रकार को मार दिया गया।

'राजन बनाम जे डे'
जागरण समूह के सहयोगी अंग्रेजी अखबार मिड-डे के पत्रकार ज्योतिर्मय डे की हत्या मामले में करीब सात साल बाद मई, 2018 में सीबीआइ की विशेष अदालत ने सजा का एलान किया था। अदालत ने अंडरवर्ल्ड डॉन छोटा राजन को दोषी करार देते हुए उसे उम्रकैद की सजा सुनाई। राजन के अलावा आठ और दोषियों को उम्रभर में जेल में रहना होगा। छोटा राजन ने जे डे को मारने के निर्देश दिए थे। ज्योर्तिमय इंवेस्टिगेटिव और क्राइम रिपोर्टिंग करते थे। 11 जून 2011 की दोपहर मुंबई के पवई इलाके में अंडरवल्र्ड के शूटरों ने उनकी हत्या कर दी थी। जेडे के सीने पर 5 गोलियां मारी गई थीं। घटना के वक्तजेडे बाइक से कहीं जा रहे थे।

आसाराम बनाम नरेंद्र यादव
नाबालिग लड़की के साथ दुष्कर्म के मामले में अंतत: तथाकथित संत आसाराम को अदालत ने दोषी करार देते हुए अप्रैल, 2018 को उम्रकैद की सजा सुनाई थी। आसाराम को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचाने में दैनिक जागरण के तत्कालीन पत्रकार नरेंद्र यादव की बहुत बड़ी भूमिका थी। किसी प्रलोभन में आए बिना उन्होंने आसाराम जैसी शख्सियत के खिलाफ निडरता से रिपोर्टिंग की। शाहजहांपुर, उप्र निवासी नरेंद्र यादव पर जानलेवा हमला भी हुआ। अगस्त 2013 को पहली बार उन्हें आसाराम की काली करतूत की जानकारी शाहजहांपुर, उप्र की रहने वाली एक नाबालिग लड़की से मिली थी। जब वे मामले की गहराई तक पहुंचे तो आध्यात्मिक चोले में लिपटे आसाराम के खिलाफ उन्हें पुख्ता सुबूत मिलते गए। नरेंद्र यादव तब शाहजहांपुर में दैनिक जागरण में काम करते थे। नाबालिग को न्याय दिलाने के लिए उनकी कलम बिना डरे बिना रुके चलने लगी। दैनिक जागरण में प्रकाशित होने वाली खबरें आसाराम को उम्र कैद तक खींच ले गईं। नरेंद्र पर 2014 में हुए जानलेवा हमले के बाद प्रशासन ने उन्हें सुरक्षा दे रखी है।

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