किसान संगठनों द्वारा एमएसपी गारंटी की मांग अनुचित एवं अव्यावहारिक

सरकार गेहूं का न्यूनतम मूल्य तय कर दे परंतु इसमें समय-समय पर संशोधन की गुंजाइश रखी जाए एवं किसानों की लागत का भी ध्यान रखा जाए। इससे किसानों की जीविका की रक्षा भी हो जाएगी और एमएसपी की विसंगतियों से भी बचा जा सकेगा।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Wed, 24 Nov 2021 12:56 PM (IST) Updated:Wed, 24 Nov 2021 01:10 PM (IST)
किसान संगठनों द्वारा एमएसपी गारंटी की मांग अनुचित एवं अव्यावहारिक
राजनीतिक स्वार्थ से ऊपर उठकर सभी को किसान एवं किसानी के यथार्थ से परिचित होना होगा।

कीर्तिदेव कारपेंटर। लंबे समय से कुछ किसानों के विरोध के चलते केंद्र सरकार ने तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा कर दी, परंतु किसान संगठनों ने आंदोलन खत्म नहीं किया, बल्कि वे सरकार से न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के लिए कानून बनाने की मांग कर रहे हैं। सतही तौर पर देखें तो एमएसपी को कानूनी दर्जा देना सही लग सकता है, परंतु तार्किक रूप से विचार किया जाए तो एमएसपी को कानूनी दर्जा देना अनुचित एवं अव्यावहारिक प्रतीत होता है। इस बात को समझने के लिए हमें एमएसपी से जुड़े कुछ पहलुओं को समझना होगा।

पहला, यदि सरकार किसी फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय कर दे एवं इसे कानून बना दे तो ऐसी दशा में किसान फसल की गुणवत्ता सुधारने पर अधिक ध्यान नहीं देंगे। इससे न केवल घरेलू प्रसंस्करण उद्योगों के लिए गुणवत्तापूर्ण कच्चे माल की दिक्कतें बढ़ेंगी, बल्कि कृषि निर्यात भी प्रभावित होगा। इस समय भारतीय कृषि की जरूरत यह नहीं है कि फसलों की कीमतों में बढ़ोतरी की जाए, बल्कि यह है कि कृषि लागत को कम किया जाए। वैश्विक स्तर पर कई देश भारत से सस्ती कीमतों पर अनाज उपलब्ध करा रहे हैं।

दूसरा, यदि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए कानून बना देगी तो मांग एवं पूर्ति का नियम काम करना बंद कर देगा। ऐसी दशा में क्रेता एवं विक्रेता दोनों की हालत खराब हो जाएगी। किसान ऐसी फसलों की खेती करेंगे जिन्हें उगाने में कम मेहनत, निम्न तकनीक एवं कम लागत लगे। ऐसा होने पर बाजार में कुछ फसलों की मात्र अत्यधिक बढ़ जाएगी, परंतु उन्हें खरीदेगा कौन? वह भी अधिक मूल्य देकर, जबकि और अधिक मात्र की बाजार में जरूरत ही नहीं है।

तीसरा, यदि फसलें उगाने में विविधता खत्म होती है तो इसका पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। कई पर्यावरणविदों का पहले ही मानना है कि पंजाब एवं हरियाणा में अधिक सिंचाई वाली फसलें लगातार उगाने से मृदा की उर्वरता का ह्रास हो रहा है एवं जल जैसे अमूल्य प्राकृतिक संसाधन का भी अति दोहन हो रहा है। चौथा, ऐसा कानून बनाना एवं उसे व्यावहारिकता में लागू करना आसान नहीं है, क्योंकि समय के साथ किसी भी वस्तु की उपयोगिता बदलती रहती है। फसलों का मूल्य भी बदलेगा, उसे एक जैसा स्थिर नहीं रखा जा सकता है। ईंधन और उर्वरक आदि की कीमतों के बढ़ने से भविष्य में फसलों के उत्पादन की लागत बढ़ेगी। ऐसी दशा में फसलों की कीमतों को स्थिर रखना गलत होगा।

सरकार ने कृषि कानूनों को वापस लेकर एक प्रकार से हीरे की कीमत पर शीशा खरीदने जैसा काम किया है। भारतीय कृषि की वर्तमान हालत अच्छी नहीं है। देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान मात्र 15 प्रतिशत के आसपास है तो वहीं कृषि क्षेत्र पर देश की आधी आबादी को रोजगार मुहैया कराने का दबाव है। भारत में लगभग 80 प्रतिशत किसानों के पास दो हेक्टेयर या उससे छोटी जोते हैं। अत: यहां निजी निवेश एवं सहकारिता का फामरूला कारगर साबित होता।

यहां न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए कानून बनाने के बजाय फसलों की न्यनूतम कीमत के निर्धारण के विकल्प पर विचार किया जा सकता है। सरकार सभी फसलों का न्यूनतम मजदूरी की तरह न्यूनतम मूल्य तय कर सकती है। न्यूनतम मूल्य का अर्थ ऐसे मूल्य से होगा जिससे कम पर कोई फसल नहीं खरीदी जा सकेगी। जैसे सरकार गेहूं का न्यूनतम मूल्य तय कर दे, परंतु इसमें समय-समय पर संशोधन की गुंजाइश रखी जाए एवं किसानों की लागत का भी ध्यान रखा जाए। इससे किसानों की जीविका की रक्षा भी हो जाएगी और एमएसपी की विसंगतियों से भी बचा जा सकेगा।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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