कुम्हारों को नहीं मिल रही लागत

आधुनिक युग में जहां आज मशीनों से बने विभिन्न प्रकार के उत्पादों का बाजार जोरों पर है।

By JagranEdited By: Publish:Mon, 26 Oct 2020 06:55 PM (IST) Updated:Tue, 27 Oct 2020 05:11 AM (IST)
कुम्हारों को नहीं मिल रही लागत
कुम्हारों को नहीं मिल रही लागत

चंद्रप्रकाश गर्ग, होडल

आधुनिक युग में जहां आज मशीनों से बने विभिन्न प्रकार के उत्पादों का बाजार जोरों पर है। ऐसे में हाथों से मिट्टी के बर्तन, दीपक, कलश आदि बनाने वाले कुम्हार बेरोजगारी की मार झेलने को मजबूर हैं। वर्षों पहले जहां दीपावली के मौके पर कुम्हारों के यहां दीपक और मिट्टी से बने बर्तनों की खरीदारी के लिए लाइन लगी रहती थी। आज वही कुम्हार अपने सामान की बिक्री के लिए ग्राहकों के इंतजार में बैठे रहते हैं।

आधुनिक मशीनरी ने उनकी मेहनत और कलाकारी को लगभग समाप्त करके रख दिया है। प्रजापत समाज के लोगों की एक और पीड़ा यह है कि पहले मिट्टी जोहड़ों से मुफ्त मिल जाती थी, लेकिन आज उस मिट्टी के लिए भी कुम्हारों को जगह-जगह भटकना पड़ता है। अगर कहीं चिकनी मिट्टी मिलती भी है तो वह लगभग चार हजार रुपये प्रति ट्राली से कम नहीं मिलती।

कुम्हारों का कहना है कि महंगाई के दौर में मिट्टी से बने बर्तनों के रेट में कोई खास इजाफा नहीं हुआ है। वर्षों पहले दशहरा के त्योहार शुरू होते ही कुंभ कलश, करवे, कुलिया, हटरी, दीपक, मटके, तोली आदि की बिक्री शुरू हो जाती थी, लेकिन मिट्टी मिटटी से बने करवे की जगह स्टील के बर्तनों ने अपनी पकड़ बना ली है तो वहीं मटके की जगह मयूर जग, मिंट्टी के दीपक की जगह बिजली की लड़ियों ने ले ली है।

प्रजापत समाज के लोग राजू, श्याम सुंदर, मनमोहन, राजेंद्र का कहना है कि प्रतिस्पर्धा के चलते हस्त निर्मित सामान की बिक्री भी कम हो गई है। उनका कहना है कि पहले तो दीपावली के सीजन में ही साल भर की रोटी का जुगाड़ कर लेते थे, लेकिन आज प्रतिस्पर्धा के चलते हस्त निर्मित सामान की बिक्री के लिए जी तोड़ मेहनत करने के बावजूद कुछ नहीं मिलता।

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