श्राद्ध पक्ष में घर में सुख शांति के लिए करें पितरों को याद, जानें कब और क्‍यों शुरू हुई परंपरा

वर्ष 2018 में पितृपक्ष का आरंभ 24 सितंबर को भाद्रपद पूर्णिमा से हो रहा है। 8 अक्तूबर को सर्वपितृ अमावस्या पितृपक्ष की अंतिम तिथि रहेगी।

By Kamlesh BhattEdited By: Publish:Sun, 23 Sep 2018 03:54 PM (IST) Updated:Mon, 24 Sep 2018 02:28 PM (IST)
श्राद्ध पक्ष में घर में सुख शांति के लिए करें पितरों को याद, जानें कब और क्‍यों शुरू हुई परंपरा
श्राद्ध पक्ष में घर में सुख शांति के लिए करें पितरों को याद, जानें कब और क्‍यों शुरू हुई परंपरा

हिसार [मनोज कौशिक]। सदियों से पितरों के निमित्त श्राद्ध करने की परंपरा है। पितृपक्ष का आरंभ आज भाद्रपद पूर्णिमा से हो गया है। 8 अक्टूबर को सर्वपितृ अमावस्या पितृपक्ष की अंतिम तिथि रहेगी। पितृपक्ष पूर्णिमा से अमावस्या तक 16 दिन का होता है।

कैलाश पंचाग के संपादक पंडित देव शर्मा का कहना है कि धर्मशास्त्रों के अनुसार हमारी मान्यता है कि प्रत्येक की मृत्यु इन 16 तिथियों को छोड़कर अन्य किसी दिन नहीं होती है, इसीलिए इस पक्ष में 16 दिन होते हैं। एक मनौवैज्ञानिक पहलू यह है कि इस अवधि में हम अपने पितरों तक अपने भाव पहुंचाते हैं, क्योंकि यह पक्ष वर्षाकाल के बाद आता है। ऐसा माना जाता है कि आकाश पूरी तरह से साफ हो गया है और हमारी संवेदनाओं और प्रार्थनाओं के आवागमन के लिए मार्ग सुलभ है। ज्योतिष और धर्मशास्त्र कहते हैं कि पितरों के निमित्त यह काल इसलिए भी श्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि इसमें सूर्य कन्या राशि में रहता है और यह ज्योतिष गणना पितरों के अनुकूल होती है।

क्यों करते हैं श्राद्ध, कौआ और गाय के लिए क्यों होता है भोजन ग्रास

साधारण शब्दों में श्राद्ध का अर्थ अपने कुल देवताओं, पितरों, अथवा अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा प्रकट करना है। हिंदू पंचाग के अनुसार वर्ष में पंद्रह दिन की एक विशेष अवधि है जिसमें श्राद्ध कर्म किए जाते हैं। इन्हीं दिनों को श्राद्ध पक्ष, पितृपक्ष और महालय के नाम से जाना जाता है। मान्यता है कि इन दिनों में तमाम पूर्वज़ जो शशरीर परिजनों के बीच मौजूद नहीं हैं वे सभी पृथ्वी पर सूक्ष्म रूप में आते हैं और उनके नाम से किए जाने वाले तर्पण को स्वीकार करते हैं। कौआ को यम का दूत माना जाता है, वहीं गाय को भगवान का, ऐसे में श्राद्ध के दिन ब्राह्मण को भोजन करवाने से पहले इन्हें ग्रास दिया जाता है।

कौन होते हैं पितर

परिवार के दिवंगत सदस्य चाहे वह विवाहित हों या अविवाहित, बुजुर्ग हों या बच्चे, महिला हों या पुरुष जो भी अपना शरीर छोड़ चुके होते हैं उन्हें पितर कहा जाता है। मान्यता है कि यदि पितरों की आत्मा को शांति मिलती है तो घर में भी सुख शांति बनी रहती है और पितर बिगड़ते कामों को बनाने में आपकी मदद करते हैं लेकिन यदि आप उनकी अनदेखी करते हैं तो फिर पितर भी आपके खिलाफ हो जाते हैं और लाख कोशिशों के बाद भी आपके बनते हुए काम बिगडऩे लग जाते हैं।

तिथि याद न होने पर किसका कब करें श्राद्ध

कृष्ण प्रतिपदा इस तिथि को नाना-नानी के श्राद्ध के लिए सही बताया गया है। इस तिथि को श्राद्ध करने से उनकी आत्मा को शांति मिलती है। पंचमी तिथि को जिनकी मृत्यु अविवाहित स्थिति में हुई हो, उनका श्राद्ध इस तिथि को किया जाना चाहिए। नवमी तिथि सौभाग्यवती यानि पति के रहते ही जिनकी मृत्यु हो गई हो, उन स्त्रियों का श्राद्ध नवमी को किया जाता है। एकादशी और द्वादशी को एकादशी में वैष्णव संन्यासी का श्राद्ध करते हैं। अर्थात् इस तिथि को उन लोगों का श्राद्ध किए जाने का विधान है, जिन्होंने संन्यास लिया हो। चतुर्दशी को इस तिथि में शस्त्र, आत्म-हत्या, विष और दुर्घटना यानि जिनकी अकाल मृत्यु हुई हो उनका श्राद्ध किया जाता है जबकि बच्चों का श्राद्ध कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को करने के लिए कहा गया है। सर्वपितृमोक्ष अमावस्या को किसी कारण से पितृपक्ष की अन्य तिथियों पर पितरों का श्राद्ध करने से चूक गए हैं या पितरों की तिथि याद नहीं है, तो इस तिथि पर सभी पितरों का श्राद्ध किया जा सकता है। शास्त्र अनुसार, इस दिन श्राद्ध करने से कुल के सभी पितरों का श्राद्ध हो जाता है। जिनका मरने पर संस्कार नहीं हुआ हो, उनका भी अमावस्या तिथि को ही श्राद्ध करना चाहिए। बाकी तो जिनकी जो तिथि हो, श्राद्धपक्ष में उसी तिथि पर श्राद्ध करना चाहिए। यही उचित भी है।

हरियाणा में कहां-कहां और कैसे करें पिंडदान

सबसे पहले गेहूं, जौ या चावल के आटे के पिंड बनाएं। हरियाणा में जींद के पांडु पिंडारा, रामरा, कुरुक्षेत्र के पिहोवा,फलगू समेत अन्य कई जगहों पर पिंडदान करने का महत्व है। श्राद्ध में सबसे पहले अग्नि का भाग दिया जाता है। पहले पिता को देते है पिंड पहले पिता को देते है पिंड महाभारत के अनुसार, अग्नि में हवन करने के बाद जो पितरों के निमित्त पिंडदान दिया जाता है, उसे ब्रह्मराक्षस भी दूषित नहीं करते। श्राद्ध में अग्निदेव को उपस्थित देखकर राक्षस वहां से भाग जाते हैं। सबसे पहले परदादा, उनके बाद दादा को उसके बाद पिता को पिंड देना चाहिए। यही श्राद्ध की विधि है। प्रत्येक पिंड देते समय एकाग्रचित्त होकर गायत्री मंत्र का जाप तथा सोमाय पितृमते नम : स्वाहा का उच्चारण करना चाहिए।

पिंडदान करने का क्या है महत्व

पिंडदान करने के लिए सफेद या पीले वस्त्र ही धारण करें। जो इस प्रकार श्राद्धादि कर्म संपन्न करते हैं, वे समस्त मनोरथों को प्राप्त करते हैं और अनंत काल तक स्वर्ग का उपभोग करते हैं। श्राद्ध कर्म करने वालों को निम्न मंत्र तीन बार अवश्य पढ़ना चाहिए। यह मंत्र ब्रह्मा जी द्वारा रचित आयु, आरोग्य, धन, लक्ष्मी प्रदान करने वाला अमृतमंत्र है- देवताभ्य : पितृभ्यश्च महायोगिश्च एव च। नम : स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव भवन्त्युत (वायु पुराण) श्राद्ध सदैव दोपहर के समय ही करें। सुबह एवं सायंकाल के समय श्राद्ध निषेध कहा गया है। हमारे धर्म-ग्रंथों में पितरों को देवताओं के समान संज्ञा दी गई है।

क्यों मिलता है श्राद्ध के दिन पितरों को भोजन

यह भौतिक शरीर 27 तत्वों के संघात से बना है। स्थूल पंच महाभूतों एवं स्थूल कर्मेन्द्रियों को छोडऩे पर अर्थात मृत्यु को प्राप्त हो जाने पर भी 17 तत्वों से बना हुआ सूक्ष्म शरीर विद्यमान रहता है। हिंदू मान्यताओं के अनुसार एक वर्ष तक प्राय : सूक्ष्म जीव को नया शरीर नहीं मिलता। मोहवश वह सूक्ष्म जीव स्वजनों व घर के आसपास घूमता रहता है। श्राद्ध कार्य के अनुष्ठान से सूक्ष्म जीव को तृप्ति मिलती है इसीलिए श्राद्ध कर्म किया जाता है। ऐसा कुछ भी नहीं है कि इस अनुष्ठान में ब्राह्मणों को जो भोजन खिलाया जाता है वही पदार्थ ज्यों का त्यों उसी आकार, वजन और परिमाण में मृतक पितरों को मिलता है। मान्यता है कि श्रद्धापूर्वक श्राद्ध में दिए गए भोजन का सूक्ष्म अंश परिणत होकर उसी अनुपात व मात्रा में प्राणी को मिलता है जिस योनि में वह प्राणी है।

क्यों और किसने शुरू की गई श्राद्ध निकालने की परंपरा

आदिकाल, रामायण और महाभारत काल से श्राद्ध विधि का वर्णन सुनने को मिला है। महाभारत के अनुशासन पर्व में भी भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को श्राद्ध के संबंध में कई ऐसी बातें बताई हैं, जो वर्तमान समय में बहुत कम लोग जानते हैं। महाभारत के अनुसार, सबसे पहले श्राद्ध का उपदेश महर्षि निमि को महातपस्वी अत्रि मुनि ने दिया था। इस प्रकार पहले निमि ने श्राद्ध का आरंभ किया, उसके बाद अन्य महर्षि भी श्राद्ध करने लगे।

एक अन्य कथा के अनुसार जब भगवान राम पत्नी सीता के साथ जब बिहार के गया में पिता का श्राद्ध करने पहुंचे थे। राम जब श्राद्ध सामग्री लेने गए तो पीछे से दशरथ प्रकट हुए और उन्होंने सूर्यास्त होने की बात कह सीता को श्राद्ध करने के लिए कहा। सीता ने कहा कि उनके पास सामान नहीं है तो दशरथ ने कहा कि वो बालू मिट्टी का पिंड बनाकर ही पिंडदान करें। ऐसे मेें सीता ने इस प्रक्रिया को करते हुए वहां मौजूद गाय, फलगू नदी, ब्राह्मण और अक्षयवट को साक्ष्य बनाया।

राम के आने पर अक्षयवृक्ष यानि बरगद के पेड़ को छोड़कर सभी साक्ष्य मुकर गए और पिंडदान नहीं करने की बात कही। सभी ने भगवान राम के हाथों श्राद्ध विधि पाने की खातिर ऐसा किया था। इससे रोषित हो सीता जी ने फलगू नदी को जमीन में समाने, ब्राह्मण और गाय का कलयुग में अनादर होने का शाप दिया। वहीं सच बोलने की खातिर अक्षयवृक्ष को हमेशा हरा भरा रहने का वरदान दिया। मान्यता है कि बिहार के गया में आज भी अक्षयवृक्ष है और उसकी पूजा करने से मनोकामना पूरी होती है।

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