Indian Dog Breed: नक्सली इलाकों की निगहबानी से लेकर देश की सीमाओं की सुरक्षा तक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे देसी श्वान
विदेशी नस्ल के श्वानों को साथ लेकर निकलना स्टाइल स्टेटमेंट रहा है मगर अब बढ़ रही है देसी श्वानों के प्रति जागरूकता। नक्सली इलाकों की निगहबानी से लेकर देश की सीमाओं की सुरक्षा तक में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे इंसान के इन सबसे वफादार साथियों पर एक रिपोर्ट...
गुडगांव, प्रियंका दुबे मेहता। जिन्हें हम बेसहारा समझकर हेयदृष्टि से देखते हैं, उनका इतिहास कितना गर्वीला है। जिन्हें हम रोटी-पानी देने में भी कतराते हैं, वे देश की सुरक्षा में शहादत तक दे चुके हैं। जिन्हें हम अपनी ड्योढ़ियों से अंदर तक नहीं आने देते, वे सीमा पर मजबूत रक्षा तंत्र का ताकतवर हिस्सा हैं। इन बातों का शायद किसी को अंदाजा भी नहीं होगा, तभी तो भारतीय नस्लों के श्वान की अवहेलना होती आई है।
‘ब्रिटिश औपनिवेशिक हैंगओवर’ का प्रभाव ही है कि आज तक हम देसी श्वान को बेसहारा और विदेशी नस्लों को स्टाइल स्टेटमेंट के तौर पर देख रहे थे। अब वक्त बदलाव का है। अब देसी नस्लों के प्रति जागरूकता बढ़ रही है और उनकी खूबियां लोगों को समझ आ रही हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘मन की बात’ भी लोगों पर असर करती दिख रही है। केवल घरेलू ही नहीं, बल्कि देश की रक्षा में भी जर्मन शेफर्ड, लेब्राडोर और बेल्जियम शेफर्ड का एकाधिकार तोड़ श्वानों की देसी नस्लें अपनी क्षमता साबित करती नजर आ रही हैं।
गुणों की खान हैं देसी श्वान : देसी नस्ल के श्वानों ने विदेश में भी अपनी दक्षता और लोकप्रियता का परचम लहराया है। ‘द बुक ऑफ इंडियन डॉग्स’ के लेखक और डॉग ब्रीडर तमिलनाडु के सुंदरराज थियोडोर भास्करन कहते हैं, ‘इतिहास गवाह है कि भारतीय नस्लों के कई श्वान बाहरी आक्रमणकारियों को इतने पसंद आए कि वे इन्हें अपने साथ ले गए और आज भी अमेरिका, इंग्लैंड और आस्ट्रेलिया में इन्हें बेहद पसंद किया जाता है। दरअसल, इनकी तेज बुद्धि, तत्परता, पहचानने की क्षमता और अनुकरण करने का गुण विदेशी श्वान की अपेक्षा कहीं अधिक होता है।’ देसी नस्लें अवहेलना का शिकार हो विलुप्ति के कगार पर पहुंच रही थीं, लेकिन एक बार फिर इनकी तरफ लोगों का ध्यान आकर्षित हुआ और अब लोग देसी नस्लों को पालने में दिलचस्पी दिखाने लगे हैं। मुंबई के श्वान पालक और प्रशिक्षक दीपक शर्मा बताते हैं, ‘देसी नस्ल के श्वानों की उम्र विदेशी श्वानों की अपेक्षा अधिक होती है। कई नस्लों की तो लंबाई, क्षमता और शक्ति भी ज्यादा होती है और सबसे बड़ी बात ये बीमार भी कम होते हैं। ये देश की पारिस्थितिकी और खान-पान से परिचित होते हैं व हर तरह का भोजन पचाने की क्षमता भी रखते हैं।’ इन श्वानों की आभास करने व पहचानने की बेहतर क्षमता के कारण ही सीमा सुरक्षा बल और भारत-तिब्बत सीमा पुलिस में भी भारतीय नस्ल के श्वानों को तरजीह दी जा रही है।
कम खर्च में बेहतर सुरक्षा : देसी श्वान का जिक्र आते ही जेहन में गली में घूमने वाले बेसहारा पशु की छवि उतर आती है। हालांकि विशेषज्ञ बताते हैं कि देसी नस्लों के श्वान न केवल घरेलू सुरक्षा देते हैं बल्कि पालक के प्रति अनुरागशील, परवाह करने वाले व अधिक वफादार होते हैं। आज देसी श्वान नक्सली इलाकों में अपनी क्षमता का परिचय दे रहे हैं। सीमा पर संदेशवाहक बन रहे हैं और इनका प्रशिक्षण, खान-पान और रखरखाव भी अपेक्षाकृत कम खर्चीला है। छत्तीसगढ़ पुलिस में सातवीं वाहिनी के कमांडेंट विजय अग्रवाल बताते हैं, ‘तकरीबन दस वर्ष पहले छत्तीसगढ़ में देसी श्वान का प्रशिक्षण शुरू किया गया था और उनका प्रदर्शन भी बेहतरीन था। आने वाले समय में भारतीय नस्ल के अधिक श्वानों को प्रशिक्षण देने की योजना है।’
आदर्श है इनकी संरचना : भास्करन के मुताबिक, हिमालयन श्वान घरों पर पालने के लिए आदर्श होते हैं क्योंकि ये आकार में छोटे और कम वजन के होते हैं। इनमें तिब्बतियन टेरियर, तिब्बतियन स्पेनियल नस्ल के श्वान प्रमुख हैं। इसके अलावा सुरक्षा श्वान के तौर पर समतल इलाकों की नस्लें सही मानी जाती हैं। इनमें पॉली, राजापल्यम, रामपुर हाउंड, कोंबाई आदि नस्लें उपयुक्त होती हैं। वे बताते हैं, ‘राजापल्यम, मुधोल हाउंड, रामपुर हाउंड, हिमालयन शीपडॉग, सिंधी हाउंड जैसे श्वान अपनी क्षमता का लोहा मनवाते हैं। लद्दाख में पाए जाने वाले हिमालयन शीपडॉग को भारतीय सेना में संदेशवाहक के तौर पर प्रयोग में लाया जाता था। यह सियाचिन में एक पोस्ट से दूसरी पोस्ट तक संदेश और सूचनाएं पहुंचाते थे। तो वहीं पर्वतारोहण के दौरान लोग मास्टिफ श्वान साथ ले जाते थे। ये इतने लोकप्रिय हुए कि अमेरिका और इंग्लैंड में आज भी इनकी मांग है।’
दाम है बस थोड़ा सा दुलार : मेरठ के हृदयरोग विशेषज्ञ डॉ. राजीव अग्रवाल ने बरसों से विदेशी नस्लों के श्वान पाले, लेकिन जब उन्होंने भारतीय नस्ल का श्वान पाला तो उन्हें समझ में आया कि देसी नस्लें हर हाल में बेहतर हैं। गुरुग्राम की श्वान पालक आयुषी का कहना है कि हर नस्ल का देसी श्वान केवल थोड़ा सा दुलार चाहता है और बिना अतिरिक्त खर्च के आपका साथी बनने को तत्पर रहता है। इसी प्रकार दीपक शर्मा कहते हैं कि अगर विदेशी संस्कृति का पट्टा उतारकर देसी नस्ल अपनाएं, तो ये मित्रता, सुरक्षा और वफादारी की नई मिसाल पेश करते नजर आएंगे।
देसी में ज्यादा दम : देसी श्वान विशेषज्ञ के ब्रीडर और लेखक सळ्ंदरराज थियोडोर भास्करन ने बताया कि सभ्यता के क्रम में श्वान प्रथम पालतू पशु हैं। इसके साक्ष्य मोहनजोदड़ो में बनी छोटी-छोटी मूर्तियों, अजंता के भित्ति चित्रों और जातक कथाओं में मिलते हैं। कहते हैं कि भारतीय नस्ल के श्वानों के डीलडौल, स्वास्थ्य, तत्परता और तीव्रता से सिकंदर इतना प्रभावित हुआ था कि कई भारतीय श्वान और उनके पालकों को साथ ले गया था। भारतीय श्वान हर हाल में बेहतर हैं। राज्य सरकारों को चाहिए कि वे ब्रीडिंग केंद्रों की स्थापना करें। कर्नाटक के ब्रीडिंग केंद्र पर बहुत ही वैज्ञानिक तरीके से इन श्वान को ब्रीड किया जाता है। भारतीय सेना ने इस केंद्र से दस मुधोल हाउंड लिए हैं जिन्हें सुरक्षा गार्ड और लैंडमाइन सूंघने के लिए इस्तेमाल किया जाएगा।
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