भारतीय परिधान ने तमाम दौर, प्रयोगों और बदलावों से गुजरते हुए आज भी खुद को अलग मुकाम पर रखा

बीते दिनों जब प्रधानमंत्री मोदी ने साड़ी के बदले अंदाज और उल्टे पल्ले के ट्रेंड पर बात की तो साड़ी एक बार फिर लोगों की चर्चा का विषय बन गई। इस भारतीय परिधान ने तमाम दौर और बदलावों से गुजरते हुए आज भी खुद को अलग मुकाम पर रखा है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Sun, 17 Jan 2021 12:03 PM (IST) Updated:Sun, 17 Jan 2021 12:05 PM (IST)
भारतीय परिधान ने तमाम दौर, प्रयोगों और बदलावों से गुजरते हुए आज भी खुद को अलग मुकाम पर रखा
आइए रूबरू होते हैं हर दौर में साड़ी के सफर से...सभी फ़ोटो - डिज़ाइनर प्रीति घई

गुडगांव, प्रियंका दुबे मेहता। ‘सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है कि सारी ही की नारी है कि नारी ही की सारी है।’ भारतीय सभ्यता और संस्कृति के प्रतीक के रूप में साड़ी वैश्विक जगत में हमेशा से ही उत्सुकता और जिज्ञासा का विषय रही है। पांच गज का कपड़ा अपनी चुन्नटों में सदियों लंबा इतिहास समेटे हुए है। कभी केवल तन ढकने के वस्त्र के रूप में प्रयुक्त होने वाला कपड़ा धीरे-धीरे किस तरह से बिना अपना मौलिक स्वरूप बदले, एक क्रमिक यात्रा पूरी करते हुए, पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव के बावजूद फैशन की मुख्यधारा का अभिन्न अंग बन गया, यह सफर अपने आप में अनोखा और दिलचस्प है। हर क्षेत्र की अलग खासियत, अलग अंदाज, कपड़ा वही पांच गज, लेकिन पहनने के तरीके हैं तमाम।

आदिकाल से है साड़ी : साड़ी का अस्तित्व आज से नहीं, आदिकाल से है। साड़ी इतिहासकारों का मानना है कि साड़ी पहनने की शुरुआत मेसोपोटामिया और सिंधु घाटी की सभ्यता के शुरुआती वक्त में उत्तर-पश्चिम इलाके में हो गई थी। साड़ी शब्द का उद्भव प्राकृत भाषा से हुआ। सत्तिका, सती और फिर साड़ी बने इस पहनावे का जिक्र जैन और बौद्ध धर्म के पाली साहित्य में भी मिलता है। फैशन डिजाइनर प्रीति घई का कहना है कि रेशम, सूती, इकत, ब्लॉक प्रिंट, कशीदाकारी और बंधेज के बाद ब्रोकेड रेशम, बनारसी, कांचीपुरम, गढ़वाल, पैठनी, मैसूर उप्पडा, भागलपुरी, बालूचरी, महेश्वरी, चंदेरी, घीचा जैसे प्रकार की साड़ियां प्रचलन में हैं। उनके मुताबिक, ‘साड़ी लगभग तीस क्षेत्रीय रूपों में मिलती है।

सभी फ़ोटो - डिज़ाइनर प्रीति घई

सुगमता और कार्य के प्रकार के अनुसार साड़ी पहनने के अलग-अलग अंदाज विकसित हुए। आंध्र प्रदेश में निवि और कप्पुलू, असम में मखेला चादोर, छत्तीसगढ़ में सरगुजा, गुजरात, उड़ीसा और उत्तर प्रदेश में सीधा पल्ला, झारखंड में संथल, पारसी में गोल साड़ी जैसे तमाम तरीके अपने-अपने इलाके की पहचान होते हैं।’ साड़ी की जानकार और हथकरघा विशेषज्ञ सीमा का कहना है कि साड़ी भारत के साथ-साथ पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश में प्रमुखता से पहनी जाती है। दरअसल, यहां की जलवायु में साड़ी उपयुक्त परिधान है। ऐसे में महिलाएं इसे सुगम मानती हैं और सुंदर भी। अब युवतियां जड़ों से जुड़ रही हैं तो साड़ियां पहनने का पारंपरिक अंदाज भी अपना रही हैं। देसी-विदेशी सेलेब्रिटीज पारंपरिक अंदाज में साड़ी पहन रहे हैं, जिनका वे अनुपालन करती हैं।

हर अंदाज को समेटती साड़ी : अब जबकि साड़ी एक बार फिर फैशन की मुख्यधारा में आ गई है तो हर वर्ग की महिलाएं इसे अपना रही हैं। बड़े डिजाइनर भी अंतरराष्ट्रीय फैशन मंचों पर इसे बेहतरीन प्रयोगों के साथ उतार रहे हैं। हां, बदलाव इतना है कि इन दिनों साड़ी पारंपरिक ब्लाउज और पेटीकोट के संयोजन की जगह पैंट और शर्ट के साथ भी पहनी जा रही है। युवतियां इसे जींस के साथ या इसकी लंबाई कम करके इसके पल्लू पर गांठें लगाकर क्रॉप टॉप के साथ पहन रही हैं। रेडीमेड साड़ियां, वेस्टर्न साड़ियां, इंडो-वेस्टर्न साड़ियां युवतियों को खूब पसंद आ रही हैं। साड़ी विशेषज्ञ व फैशन डिजाइनर ज्योति बडमुंडा का कहना है कि प्रयोगों से साड़ी की महिमा कम नहीं होती बल्कि उसकी महत्ता को विस्तार मिलता है। साड़ी इतिहासकार ऋता कपूर चिश्ती कहती हैं, ‘हालांकि हर दौर के फैशन में साड़ी का अपना अनूठा और महत्वपूर्ण अंदाज रहा है, लेकिन साड़ी ने सदियों लंबा चक्र पूरा करके एक बार फिर युवतियों को आकर्षित करना शुरू कर दिया है। अब हर आयु वर्ग की महिलाओं में यह पहनावा लोकप्रिय हो रहा है। पश्चिमी फैशन के प्रभाव में युवतियां जहां इससे दूर होती चली गई थीं, आज वे भी साड़ी पहनना पसंद कर रही हैं।’

जिन्होंने साड़ी को बनाया कैनवस : भारतीय साड़ी को नए-नए रूप में दुनियाभर के फैशन मंच तक पहुंचाने वाले मशहूर फैशन डिजाइनर सत्या पॉल बीते दिनों नहीं रहे। बोल्ड रंगों के साथ प्रयोग कर अंतराराष्ट्रीय ख्याति दिलाने वाले इस फैशन जादूगर ने साड़ी को नया जीवन दिया था। उन्होंने सिल्क साड़ी में चटख रंगों के प्रिंट का समावेश कर साड़ी के सादगीपूर्ण और ग्लैमरस दोनों ही रंगों से दुनिया को रूबरू करवाया। प्लेन साड़ी को खूबसूरत पार्टीवियर बनाने की समझ उनमें बखूबी थी। सत्या पॉल हमेशा से भारतीय और विदेशी चित्रकारों से प्रभावित रहे और यही प्रभाव उनकी डिजाइन की गई साड़ियों पर भी नजर आया। चित्रकार एस.एच. रजा और पाब्लो पिकासो की पेंटिंग्स की झलक सत्या पॉल की बनाई साड़ियों में नजर आती थी, क्योंकि वे कलाप्रेमी और रंगों के प्रशंसक थे और इन नामचीन चित्रकारों को प्रेरणा मानते थे।

सहजता से स्वीकार हो गया सलीका : एक बार कवि रवींद्रनाथ टैगोर के भाई और देश के पहले आइसीएस अधिकारी सत्येंद्र नाथ टैगोर की पत्नी ज्ञानदानंदिनी देवी मुंबई गईं तो उन्होंने देखा कि लोग उनके साड़ी पहनने के अलग अंदाज के कारण उन्हें घूर रहे थे। दरअसल, तब बंगाली व अन्य प्रकार से पहनी जाने वाली साड़ी के साथ पेटीकोट और ब्लाउज पहनने की प्रथा नहीं थी और ऊपर से चादर ओढ़नी पड़ती थी। वे वहां पारसी समुदाय की महिलाओं से मिलीं और देखा कि वे अपने पहनावे में पेटीकोट और ब्लाउज का प्रयोग कर रही थीं। तब ज्ञानदानंदिनी ने भी बंगाली साड़ी के साथ ब्लाउज और पेटीकोट पहनना शुरू किया और साड़ी की लंबाई साढ़े चार मीटर से साढ़े पांच मीटर तक बढ़ा दी। साथ ही उसमें सामने चुन्नट डालकर इसे पहनने लगीं और पल्ले को बाएं कंधे पर फेंकना शुरू किया। इस तरह पहनी गई साड़ी में उन्हें काफी सहजता महसूस हुई। उन्होंने कोलकाता लौटकर एक स्कूल भी खोला, जहां कामकाजी महिलाएं साड़ी को इस तरह से पहनना सीख सकती थीं। पहले यह तरीका शहरों में प्रचलित हुआ, फिर बीसवीं सदी के आखिरी हिस्सों में गांवों में भी इसे अपनाया जाने लगा।

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