शहर की फिजा : प्रियंका दुबे मेहता
शहर में सभी सिस्टम हाइटेक हो गए हैं। चौराहों पर लाइटों से लेकर हाईवे और अंडरपास के डिजाइनों तक में तकनीक का बोलबाला है। अब जरा यहां के पुराने चौराहों का रुख करते हैं। सोहना चौक पर पहुंचते-पहुंचते लाल पीली और हरी बत्तियों के मानो मायने ही उलट जाते हैं।
फोटो 25 जीयूआर 17, 18 यहां बदल जाते हैं ट्रैफिट लाइटों के मायने शहर में सभी सिस्टम हाइटेक हो गए हैं। चौराहों पर लाइटों से लेकर हाईवे और अंडरपास के डिजाइनों तक में तकनीक का बोलबाला है। अब जरा यहां के पुराने चौराहों का रुख करते हैं। सोहना चौक पर पहुंचते-पहुंचते लाल, पीली और हरी बत्तियों के मानो मायने ही उलट जाते हैं। हरी बत्ती पर तो चलना ही है, पीली बत्ती पर और तेज चलना है और लाल बत्ती तो जैसे होती ही आटो निकलने के लिए है। आटो चालकों की मनमानी जैसे पुलिस वालों के लिए अदृश्य होती है। नतीजा यह होता है कि हरी बत्ती का इंतजार कर रहे चालकों के लिए 'निकलो तो जानें' वाला खेल बन जाता है। वे जान की बाजी लगाकर फर्राटा भरते हैं, लेकिन कहां जाएंगे, आटो अदृश्य हो सकते हैं, आप नहीं। चालान तो भरना ही होगा। फिर शुरू होता है बहस का दौर और उस बीच चौराहा मानो लाइटफ्री हो जाता है। ------------- प्राणरक्षक बनी बकरी इन दिनों बकरियों के भाव बहुत बढ़ गए हैं। हो भी क्यों न, उसका दूध जो डिमांड में है। गावों से लेकर शहरों और इंटरनेट के गलियारों तक में बकरी ट्रेंड कर रही है और उसका दूध हैशटैग की डोर में बंधकर इंटरनेट के आकाश में उड़ रहा है। मामला ही कुछ ऐसा है। डेंगू फैला तो बकरी पालने वालों की चांदी हो गई। प्लेटलेट्स बढ़ाने के लिए शहर से लेकर गांवों तक में बकरियां ढूंढी जाने लगी हैं। बकरी मालिकों ने भी मौके का फायदा उठाते हुए दूध की कीमत 15 सौ रुपए लीटर तक कर दी। वक्त-वक्त की बात है, कभी उपेक्षा का पर्याय रहे बकरी के दूध को अचानक इतनी लोकप्रियता मिल रही है। यह तो इंसान है, जरूरत में वह उपेक्षित से उपेक्षित जानवर को सिर पर बैठा सकता है, तो यह तो बेचारी सभ्य और शांत बकरी है, जिसका दूध फिलहाल जीवनरक्षक साबित हो रहा है।
------------ गलतियां विभाग की, सजा विद्यार्थियों को आजकल कोई भी गलती हो, किसी भी विभाग की हो। चाहे बच्चों की कक्षा में हो या फिर आफिस की मीटिग में, गड़बड़ी आनलाइन प्रक्रिया के माथे मढ़ दी जाती हैं। उच्च्तर शिक्षा विभाग की तो आदत है गलतियों पर गलतियां दोहराने की। विद्यार्थी परेशान हैं और विभाग खामोश। हुआ यूं कि विभाग ने पहली कटआफ लिस्ट जारी की तो आशांवित विद्यार्थी हैरान रह गए कि बेहतर अंकों के बाद भी उनका नाम लिस्ट में नहीं आया। कालेजों में बात कर रहे हैं तो पता चल रहा है कि उन्हें ओपन काउंसलिग का इंतजार करना पड़ेगा। उनकी शिकायत पर कालेज प्रबंधन ठीकरा उन्हीं पर फोड़ रहा हैं कि विद्यार्थियों ने विषयों के संयोजन में गड़बड़ी की है। भले ही गड़बड़ी तकनीकी हो या अनभिज्ञता में हुई हो, उसका खामियाजा तो विद्यार्थियों को ही भुगतना पड़ेगा क्योंकि विभाग को तो बस काम पूरा करना है, समस्या तो विद्यार्थियों की है। फाइलों में फैली हरियाली प्रशासन ने तीन लाख पौधे लगाकर शहर को हरा-भरा बनाने के आसमानी ख्वाब दिखाए थे लेकिन हकीकत की धरातल पर तो न पौधे लगे और न ही हरियाली बढ़ी। अब प्रकृति का शीतल अनुभव लेना हो, कंकरीट के जंगल से निकलना हो तो कहां जाएं। प्रशासनिक फाइलों में या फिर अधिकारियों के बगीचों में। पहले तो इंटरनेट योद्धा फोटो और लाइक्स की चाहत में ही सही, इस काम को अंजाम भी दे रहे थे। भले उसके बाद उन पौधों की नियति पनपना हो, या मुरझाना। इस बार तो उनके हौसले भी पस्त नजर आए। गैर सरकारी संगठनों ने भी हरियाली की मशाल थाम रखी थी लेकिन इस बार उनके जज्बों की रोशनी भी कहीं दिखाई नहीं दी। खाली सड़कें, पार्कों का सूखापन और विभिन्न इलाकों में वीरानी का आलम बताता है कि प्रशासन को केवल वादे से मतलब है, उस पर काम कितना होता है, उससे उसका कोई सरोकार नहीं है।