संघर्ष, जुनून और सहकारिता की रोमांचक कहानी समेटे है न्यू इंडस्ट्रियल टाउन

स्मार्ट सिटी के रूप में विकसित हो रहा अपना शहर न्यू इंडस्ट्रियल टाउन की कहानी बड़ी दिलचस्प है।

By JagranEdited By: Publish:Fri, 16 Oct 2020 03:50 PM (IST) Updated:Fri, 16 Oct 2020 03:50 PM (IST)
संघर्ष, जुनून और सहकारिता की रोमांचक कहानी समेटे है न्यू इंडस्ट्रियल टाउन
संघर्ष, जुनून और सहकारिता की रोमांचक कहानी समेटे है न्यू इंडस्ट्रियल टाउन

सुशील भाटिया, फरीदाबाद : स्मार्ट सिटी के रूप में विकसित हो रहा अपना शहर न्यू इंडस्ट्रियल टाउन (एनआइटी)शनिवार को अपनी स्थापना के 71 साल पूरे कर लेगा। आज जिस शहर की पहचान देश-विदेश में कल-कारखानों की नगरी के रूप में बन चुकी है, उसकी स्थापना की कहानी एक लंबा संघर्ष समेटे हुए है, साथ ही सहकारिता व जुनून की गाथा। यह संघर्ष तब के युवाओं और बुजुर्गों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू की दिल्ली स्थित कोठी के सामने त्रिमूर्ति चौक पर किया था और एक लंबा आंदोलन चला था। इस आंदोलन की जीत हुई थी तथा देश विभाजन की भयंकर त्रासदी झेलकर उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रांत (अब पाकिस्तान में) के छह जिलों बन्नू, पेशावर, हजारा, मर्दान, कोहाट और डेरा इस्माईल खान से आए करीब 50 हजार शरणार्थियों के लिए प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को राजधानी दिल्ली से सटे फरीदाबाद में नया शहर बसाने की स्वीकृति देनी पड़ी। इसलिए करना पड़ा संघर्ष, त्रिमूर्ति चौक पर धरना देकर दीं गिरफ्तारियां

देश विभाजन के बाद अपना सब कुछ मूल वतन में छोड़ कर आए इन शरणार्थियों को सरकार शरणार्थियों को राजस्थान के अलवर और भरतपुर में बसाना चाहती थी, पर शरणार्थी दिल्ली के आसपास बसना चाहते थे। इसके लिए संघर्ष शुरू हुआ। संघर्ष के लिए खुदाई खिदमतगारों सरदार गुरबचन सिंह, कन्हैया लाल खट्टक, खामोश सरहदी पं.गोबिद दास, सालार सुखराम, जेठा नंद, चौ.दयालागंद, दुली चौधरी, पंडित अनंत राम शौक, श्रीचंद मर्दानी, खुशी राम गणखेल, तोता राम, निहाल चंद, छत्तू राम गेरा, लक्खी चाचा जैसे संघर्षशील लोगों का एक संगठन बना, जिसके बैनर तले कुरुक्षेत्र की सुभाष व साधु मंडी में रोजाना जलसा होता था, जिसमें केंद्र सरकार तक आवाज पहुंचाने के लिए आंचलिक भाषा में यह गीत गाए जाते थे कि 'अलवर नहीं जाणा सरकार अलवर नहीं जाणा, इत्थे मर जाणा' अर्थात हम यहीं पर मर जाएंगे, पर अलवर या भरतपुर नहीं बसेंगे।

स्व.कन्हैया खट्टक के पुत्र बसंत खट्टक, स्व.सरदार गुरबचन सिंह के पुत्र सरदार गुरबीर सिंह के अनुसार जब लोगों की आवाज नहीं सुनी गई, तो सभी खुदाई खिदमतगार अपने आंदोलन को जुलाई 1948 में दिल्ली ले आए और खामोश सरहदी के नेतृत्व में पुन:स्थापना मंत्रालय व त्रिमूर्ति चौक पर सत्याग्रह शुरू हुआ। इसके तहत रोजाना 11 व्यक्ति गिरफ्तारी देते थे, इन सभी को दिल्ली सेंट्रल जेल में हवालाती के तौर पर रखा जाता। इस मुहिम में कुल 81 सत्याग्रही गिरफ्तार हुए।

बंटवारे के बाद नाजुक माहौल में हुई गिरफ्तारियों से प्रधानमंत्री पं.नेहरू चितित हुए और अपनी निकटतम सलाहकार मृदुला साराभाई को सत्याग्रहियों से बातचीत करने की जिम्मेदारी सौंपी, बातचीत के बाद सरकार ने फरीदाबाद, राजपुरा व बहादुरगढ़ के रूप में तीन नए शहर विकसित करने का फैसला किया। दिल्ली के निकट होने के कारण सबकी सहमति फरीदाबाद पर बनी और अंतत: एनआइटी शहर का जन्म हुआ। 17 अक्टूबर 1949 को पड़ी थी नींव

अखिल भारतीय तालीमी संघ की संयुक्त सचिव आशा देवी आर्यनायकम ने एनएच पांच में जहां आज आइटीआइ स्थित है, इस स्थान पर 17 अक्टूबर 1949 के दिन खुदाई खिदमतगार सालार सुखराम, सरदार गुरबचन सिंह, भारतीय सहकारिता यूनियन के मुख्य संगठनकर्ता एलसी जैन व अन्य बुजुर्गो के साथ फावड़े चला कर शहर स्थापित करने की शुरुआत की। इस पूरे संघर्ष का जिक्र एलसी जैन की पुस्तक 'द सिटी ऑफ होप' में है। नए फरीदाबाद का डिजाइन जर्मन आर्किटेक्ट निस्सन ने बनाया था। इसीलिए एक, दो, तीन, चार एवं पांच नंबर क्षेत्र को एनएच (निस्सन हट्स) के नाम से भी जाना जाता है। एनआइटी की स्थापना में शहर के बुजुर्गों की कड़ी मेहनत छिपी हुई है, जो निस्वार्थ भाव से की गई। आज के युवाओं को यह गाथा पढ़ कर प्रेरणा मिलेगी।

-हंसराज खत्री, 84 वर्षीय, पुत्र खुदाई खिदमतागार स्व.सालार सुखराम इस शहर को स्थापित हुए सात दशक से अधिक हो गए, पर लगता है जैसे कल की बात है। सभी बुजुर्गों ने अपने हाथों से यह शहर बनाया। हमें गर्व है कि हम एनआइटी के निवासी हैं।

-गणेश दास कालड़ा, 85 वर्षीय

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