हमें प्रकृति से मिलती है परमार्थ की प्रेरणा: सीवी सिंह

स्वार्थ से दूर रहकर परमार्थ भाव से जो मनुष्य निरंतर कर्म करता रहता है वह ईश्वर की कृपा का पात्र बनता है।

By JagranEdited By: Publish:Wed, 21 Oct 2020 07:33 PM (IST) Updated:Wed, 21 Oct 2020 07:33 PM (IST)
हमें प्रकृति से मिलती है परमार्थ  की प्रेरणा: सीवी सिंह
हमें प्रकृति से मिलती है परमार्थ की प्रेरणा: सीवी सिंह

स्वार्थ से दूर रहकर, परमार्थ भाव से जो मनुष्य निरंतर कर्म करता रहता है, वह ईश्वर की कृपा पात्र बन जाता है। ऐसा इंसान समस्त मानव जाति के लिए एक प्रेरणास्त्रोत होता है। इसमें ईश्वरीय कृपा से अनेक दैवीय शक्तियां साथ देने लगती हैं। ऐसा मनुष्य समस्त जीवों के कल्याण भावना से कर्म करता है तथा अपने आप को पूर्ण रूप से समर्पित कर ईश्वर की इच्छा समझकर सेवा भाव से कार्य कर श्रेष्ठता प्राप्त करता है। भगवान राम का चरित्र निस्वार्थ कर्म का एक अनुपम उदाहरण है। श्री राम का चरित्र हमें सिखाता है कि सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति, सहज कृपन सन सुंदर नीति, ममता रत सन ज्ञान कहानी, अति लोभी सन बिरती बखानी। कहते भी हैं कि मूर्ख से विनय, कुटिल से प्रीति, कंजूस से उदारता और लोभी से वैराग्य की अपेक्षा रखना व्यर्थ है। श्री राम पूर्ण रूप से समर्थ हैं, पराक्रमी हैं, बलशाली हैं, फिर भी अपनी शक्ति का प्रयोग दूसरों पर आधिपत्य स्थापित करने के लिए नहीं करते हैं। यही महानता है। श्रीराम के जीवन का एक ही उद्देश्य है, पशु, पक्षी, मनुष्य सहित प्रत्येक जीव का परमार्थ। महाराज दशरथ राज सिंहासन की जगह कैकेयी के वचन में बंधकर जब श्रीराम को 14 वर्ष के लिए वनवास जाने की आज्ञा देते हैं तथा उनकी जगह भरत को राजगद्दी की घोषणा करते हैं। तब भी वह इसमें अपना सौभाग्य ही समझते हैं और कैकेयी और भरत के प्रति किचित मात्र भी द्वेष नहीं रखते। सुग्रीव से मित्रता निभाते हैं और बाली को मारकर उसका राज्य उसे दिलाते हैं। रावण को मारकर भी श्री राम लंका पर अपना आधिपत्य नहीं जमाते, बल्कि उनके छोटे भाई विभीषण को लंका के राजा के रूप में राज्याभिषेक करते हैं।

वृक्ष कबहुं नहि फल भखै, नदी न संचै नीर, परमार्थ के कारने साधुन धरा शरीर। सनातन परंपरा के अनुसार मनुष्य का नैसर्गिक गुण परमार्थ ही माना गया है। स्वयं के लाभ के लिए कार्य करना, स्वयं के भले के लिए ही सोचना पाप की श्रेणी में आता है। वृक्ष, नदी, सूर्य, धरती सभी हमें परमार्थ करने की प्रेरणा देते हैं। प्रकृति का यही संदेश है, औरों के लिए जीओ। इस धरती पर मनुष्य कुछ भी तो साथ लेकर नहीं आता, सब कुछ यहीं से प्राप्त करता है परंतु यहां आकर वह लालच के वशीभूत होकर अपना परम कर्तव्य भूल जाता है।

अधिक से अधिक धन इकट्ठा करने की लालसा में स्वार्थी हो जाता है और कोई भी पाप करने से नहीं चूकता। यही अज्ञानता है। मनुष्य की यही प्रवृत्ति उसे नरक के द्वार तक ले जाती है। जब अंत समय आता है, तो वह पश्चाताप की अग्नि में जलता है कि वह किस उद्देश्य से इस धरती पर आया था और क्या कर बैठा। अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत। इस प्रकार मनुष्य अज्ञानता, अनभिज्ञता के कारण अपना सब कुछ छोड़कर पछतावा करते हुए जीवन त्याग देता है। इसलिए यह प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह व्यक्तिगत स्वार्थ से दूर रहकर परमार्थ भाव से अपने कर्म करे। यही ईश्वर की कृपा प्राप्त करने का सबसे सीधा और सच्चा मार्ग है। इस मार्ग पर उसे पग-पग कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, परंतु ऐसे परमार्थी मनुष्य को चाहिए कि वह ईश्वर में आस्था रखे और साहस के साथ आगे बढ़ता जाए। अंत में उसकी जय-जयकार होगी और वह परमधाम को प्राप्त होगा। स्वार्थ को त्याग दो और परमार्थ पर ध्यान दो।

-सीवी सिंह, प्रधानाचार्य, रावल इंटरनेशल स्कूल।

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