शहरनामा : मौसम की तरह शहर में रंग बदल रहे सियासी चेहरे

सुरेश गर्ग, चरखी दादरी : अब कौन किसके साथ है और विरोध में ? यह जानना इन दिनों यहां एक

By JagranEdited By: Publish:Sun, 06 Jan 2019 05:37 PM (IST) Updated:Sun, 06 Jan 2019 05:37 PM (IST)
शहरनामा : मौसम की तरह शहर में रंग बदल रहे सियासी चेहरे
शहरनामा : मौसम की तरह शहर में रंग बदल रहे सियासी चेहरे

सुरेश गर्ग, चरखी दादरी :

अब कौन किसके साथ है और विरोध में ? यह जानना इन दिनों यहां एक प्रकार से शोध का विषय बना दिखाई दे रहा है। कहा जाता है कुछ लोग रोजाना कपड़ों की तरह आस्थाएं बदलते हैं लेकिन इस शहर के हालात तो इससे भी आगे बने नजर आते हैं। अब सुबह, दोपहर, सायं के नजारे अलग अलग दिखाई दे रहे हैं। यहां बात विभिन्न सियासी पार्टियों से जुड़े स्थानीय कार्यकर्ताओं के साथ साथ ओहदेदारों की हो रही है। दादरी शहर में इस सप्ताह के दौरान ऐसे ही कुछ अजब गजब दृश्य दिखाई दिए। सुबह जिसके घर एक पार्टी के नेता का चाय का आयोजन था दोपहर को वह किसी दूसरे दल से जुड़े आयोजन में गुलदस्ता लिए खड़ा दिखाई दिया। हद तो तब हो गई देर सायं व अ‌र्द्ध उजाले में माला किसी ओर को पहना दी। इसी सिलसिले के आगे बढ़ने पर सप्ताह भर जो कुछ सामने आया वह भी काफी रोचक माना जा सकता है। एक प्रमुख विरोधी दल व उससे अलग होकर बने नए दल में तो यह अनुमान लगाना ही मुश्किल रहा कौन किसके पाले में है? दोनों दलों के स्थानीय नेता कार्यकर्ताओं, पदाधिकारियों के अपने अपने साथ होने के दावे-प्रतिदावे करते रहे। यहां तक की बैठकों, सभाओं व अन्य आयोजनों में भी रोजाना आस्थाओं मे सेंध लगती दिखाई दी। इस वीकली फ्रेंडली मैच में हर दिन टीम के खिलाड़ी ही नहीं बदलते रहे बल्कि प्रतिद्वंद्वियों पर कभी हमलावर तो कभी साफ्ट कार्नर की भावना से लबालब नजर आए। खास बात यह भी रही कि कई छोटे बड़े अलग अलग सियासी आयोजनों में भीड़ के बीच वहीं चेहरे घूमते रहे जो सदा बहार माने जाते रहे हैं। अपने आप पर राष्ट्रीय दलों का तमगा लगाकर लंबे चौड़े दावे करने वालों के आयोजनों की भी भीड़ उन्हीं लोगों की थी जो एक-दो रोज पहले कहीं ओर थे। गांवों से शहर के आयोजनों में आने वाले भी अधिकतर जाने पहचाने थे। बताया गया कि रैली, जलसे, प्रदर्शन, रोष मार्च इत्यादि कोई भी आयोजन किसी का हो उसमें शामिल होने वाले ज्यादातर लोग वही रहते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में अब ऐसे लोगों की तादात अच्छी खासी दिखाई देने लगी है जो शहर के राजनैतिक जलसों, जुलूसों, रैलियों में एक दिन की पिकनिक की तरह भागेदारी कर रहे हैं। आने जाने को गाड़ियां मिल जाए, चाय पानी, भोजन के साथ साथ कुछ और भी जुगाड़ कर दिया जाए तो उन्हें इस बात से कोई सरोकार नहीं होता आयोजन किस दल अथवा नेता का है। सियासी प्रोग्रामों का मजा लेने वाले कई चेहरे तो इतने जाने पहचाने हैं कि उनके नाम भी प्रेस कवरेज करने वालों को याद हो चले हैं। यही हालात दलों के युवा, महिला, किसान, श्रमिक, कर्मचारी प्रकोष्ठों में बनी हुई है। स्थानीय कालेजों में पढ़ने वाले काफी छात्रों को भी इन दिनों सियासत का अजीब चस्का लगाई दिखाई दे रहा है। ज्ञान चाहे अधूरा हो लेकिन वे सार्वजनिक स्थानों पर विभिन्न दलों, उसके नेताओं के पक्ष में वे जोरदार दलीलें देते देखे जा सकते हैं। बड़ों की देखा देखी युवा भी अब पाला बदलने की जरा भी विलंब नहीं कर रहे हैं। अखबारी बयानबाजी देने में चर्चित रही दो तीन ऐसी महिला नेत्रियों के नाम भी चर्चाओं में है जो लगातार सियासी बदलाव की बहार के साथ बहती रही हैं। दलों, झंडों, नेताओं, बैनरों के रंगों से अधिक रंग यहां उन लोगों के दिखाई देने लगे हैं जो चित्त भी मेरी, पट भी मेरी के असूल पर पूरी तरह कायम है। उनका कहना है बड़े नेताओं की कोई पार्टी नहीं, गठबंधन धर्म भी बदलाव की ओर चलता रहता है तो उन्हें लेकर ही सवाल उठाना गैरवाजिब है। वास्तव में सब कुछ सूत, कसूत पर टिका है।

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