Grahan Web Series Review: पिता-बेटी की संवेदनशील कहानी में समाज और सियासत के विकृत गठजोड़ का 'ग्रहण'

डिज़्नी प्लस हॉटस्टार की वेब सीरीज़ ग्रहण समाज और सियासत के ऐसे ही विकृत स्वरूप को सामने लाने वाली एक संवेदनशील और विचारोत्तेजक कहानी है जिसके केंद्र में एक पुलिस ऑफ़िसर बेटी दंगे का मुख्यारोपी पिता स्याह सियासत और एक दहलाने वाला राज़ है।

By Manoj VashisthEdited By: Publish:Thu, 24 Jun 2021 12:02 PM (IST) Updated:Thu, 24 Jun 2021 05:42 PM (IST)
Grahan Web Series Review: पिता-बेटी की संवेदनशील कहानी में समाज और सियासत के विकृत गठजोड़ का 'ग्रहण'
Pavan Malhotra and Zoya Hussain in Grahan. Photo- Screenshots

मनोज वशिष्ठ, नई दिल्ली। ज़माना कोई सा हो। सरकार किसी की हो। मगर, सियासी पिक्चर में दंगों की पटकथा लगभग एक जैसी लगती है। सब जानते हैं। समझते भी हैं। मगर, जब समझदारी दिखाने का वक़्त आता है तो नफ़रत का सैलाब मोहब्बत और इंसानियत पर भारी पड़ जाता है।

सीने में नफ़रत की दबी हुई चिंगारी को कोई शातिर हवा देकर दंगों की आग में बदल देता है। पीछे रह जाती है बर्बादी और कभी ना भरने वाले ज़ख़्म। यह पटकथा कभी पुरानी नहीं होती, बस किरदार और सरोकार बदल जाते हैं, जो सियासत अपनी ज़रूरत के हिसाब से तय करती है।

डिज़्नी प्लस हॉटस्टार की वेब सीरीज़ ग्रहण समाज और सियासत के ऐसे ही विकृत स्वरूप को सामने लाने वाली एक संवेदनशील और विचारोत्तेजक कहानी है, जिसके केंद्र में एक आईपीएस बेटी, दंगे का मुख्यारोपी पिता, स्याह सियासत और एक दहलाने वाला राज़ है।

ग्रहण की कथाभूमि, कालखंड और किरदार भले ही दशकों पुराने दौर में स्थापित हों, मगर दृश्य ऐसे लगते हैं, मानो अभी की बात है। वैसे, ग्रहण की कथावस्तु सत्य व्यास के उपन्यास चौरासी से प्रेरित है। यह उपन्यास पंजाब में ऑपरेशन ब्लू स्टार और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद की घटनाओं की पृष्ठभूमि पर लिखा गया था।

ग्रहण की कहानी मुख्य रूप से तीन दशकों के अंतराल पर दो काल खंडों में चलती है। 2016 से शुरू होकर 1984 और उसके एक-दो साल आगे पीछे की घटनाओं को समेटती है। अमृता सिंह 2016 के रांची में सिटी एसपी है। ईमानदार और अपने काम के लिए समर्पित। सिख पिता गुरसेवक के साथ रहती है। पिता चाहते हैं कि अमृता शादी करके कनाडा चली जाए, जहां बॉयफ्रेंड रहता है, मगर अमृता टाल रही है।

अमृता संविधान से मिली अपनी ताक़त का इस्तेमाल समाज को बदलने में करना चाहती है, पर सीनियर उसे 'प्रैक्टिल' होने की नसीहत देते हैं। एक स्थानीय पत्रकार की हत्या की जांच के दौरान राजनीतिक हस्तक्षेप से तंग आकर वो नौकरी छोड़ने का मन बना लेती है, मगर डीआईजी के समझाने पर रुक जाती है।

 

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झारखंड में चुनाव की दस्तक हो चुकी है। मुख्यमंत्री नेता विपक्ष संजय सिंह के बढ़ते सियासी रसूख़ से असुरक्षित है और उस पर लगाम कसने के लिए बोकारो में 1984 में सिखों के ख़िलाफ़ हुए दंगों की जांच दोबारा शुरू करने के आदेश पुलिस विभाग को देता है। इन दंगों के पीछे संजय सिंह का हाथ माना जाता है, मगर किसी भी जांच में उसके ख़िलाफ़ कोई सबूत या गवाह नहीं मिल सका था।

एसआईटी का गठन होता है। इंचार्ज अमृता सिंह को बनाया जाता है। अमृता को डिप्टी एसपी विकास मंडल ज्वाइन करता है, जिसके नाम हर जांच को अंजाम तक पहुंचाने का अनोखा रिकॉर्ड है। एसआईटी अपना काम शुरू करती है। मगर, अमृता के पैरों तले उस वक़्त ज़मीन खिसक जाती है, जब शुरुआती तफ्तीश में पता चलता है कि उसका पिता दंगों का मुख्यारोपी ऋषि रंजन है।

अमृता पिता से सच जानना चाहती है, मगर एक राज़ को छिपाने की ख़ातिर गुरसेवक कुछ भी कहने से मना कर देता है। इस राज़ को गुरसेवक ने सालों से अपने सीने में दबाकर रखा है और इसे सीने में ही दफ़्न करने के लिए कोई भी क़ुर्बानी देने के लिए तैयार है।

इस राज़ की कड़ियां बोकारो में हैं। जब उसे पता चलता है कि अमृता एसआईटी जांच के लिए बोकारो जाने वाली है तो उसे रोकने की भी पूरी कोशिश करता है। अपनी ज़िंदगी को झूठ का पुलिंदा मानने लगी अमृता को अपने सवालों के जवाब चाहिए और सच भी। अमृता बोकारो जाने का फ़ैसला करती है, जहां उसका इंतज़ार कई हैरतअंगेज़ खुलासे कर रहे होते हैं।

ग्रहण की कहानी अपने-आप में कई जज़्बात समेटे हुए है- दंगों का दर्द, दोस्त का धोखा, मासूम मोहब्बत, नफ़रत का सियासी कारोबार, दंगों का पछतावा। मगर, मुख्य रूप से यह एक पिता और बेटी के बीच के भावनात्मक रिश्ते का मार्मिक चित्रण है। सीरीज़ कई और अहम मुद्दों को रेखांकित भी करती है, जो आज भी प्रासंगिक हैं।

सीरीज़ की लेखन टीम ने इन मुद्दों को दृश्यों के ज़रिए कथ्य में पिरोया है। आठ एपिसोड की वेब सीरीज़ के केंद्र में यूं तो चौरासी के दंगों का दर्द और उसकी एसआईटी जांच है, मगर ऋषि रंजन और मनु की की प्रेम कहानी सीरीज़ का कोमल और मनोहारी हिस्सा है, जो उस दौर में स्थापित की गयी है, जब युवा पीढ़ी जैकी श्रॉफ और मीनाक्षी शेषाद्रि की फ़िल्म हीरो के तरानों पर झूमते हुए मोहब्बत में डूब जाती थी। ऋषि और मनु की प्रेम कहानी को अमित त्रिवेदी के संगीत ने इंटेंस बनाया है।

 

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दंगों के गवाहों के ज़रिए पीड़ितों की व्यथा विचलित और सोचने के लिए विवश करती है। सीरीज़ की एक ख़ूबी इसके किरदार भी हैं, जिन्हें गढ़ने में लेखन टीम (अनु सिंह चौधरी, नवजोत गुलाटी, विभा सिंह, प्रतीक पयोधी, निर्देशक रंजन चंदेल और क्रिएटर शैलेंद्र कुमार झा) ने परिवक्वता दिखायी है। वहीं, इन किरदारों में कलाकारों का चयन भी एक उपलब्धि है। गुरसेवक के किरदार की ख़ामोशी को पवन मल्होत्रा ने जो अभिव्यक्ति दी है, वो कमाल है। आख़िरी एपिसोड के दृश्यों में पवन मल्होत्रा के अभिनय का शानदार पक्ष देखने को मिलता है, जब गुरसेवक अदालत में ठहर-ठहर कर अपना दर्द और सच बयां करता है।

आईपीएस अमृता सिंह के किरदार में ज़ोया हुसैन ने अच्छा काम किया है। स्क्रिप्ट ने उन्हें अपनी अभिनय क्षमता दिखाने के कई बेहतरीन मौक़े दिये, जिन्हें ज़ोया ने हाथ से जाने नहीं दिया। एसआईटी इंचार्ज और मुख्यारोपी की बेटी होने की कशमकश को ज़ोया ने बख़ूबी दिखाया है।

वहीं, ऋषि रंजन के किरदार में अंशुमान पुष्कर और मनु के किरदार में वमिका गब्बी ने सीरीज़ के सीपिया ट्रैक को पूरी तरह संभाला है। इनकी प्रेम कहानी सीरीज़ की तपती विषयवस्तु पर ठंडी फुहार की तरह है। जामतारा में नज़र आ चुके पुष्कर ग्रहण में निखरकर सामने आये हैं।

बोकारो स्टील फैक्ट्री के यूनियर लीडर और दंगों के मास्टरमाइंड संजय सिंह यानी चुन्नु के किरदार में टीकम जोशी, दलित डिप्टी एसपी विकास मंडल के किरदार में सहीदुर रहमान और मनु की दोस्त प्रज्ञा के किरदार में नम्रता वार्ष्णेय और सीएम केदार भगत के रोल में सत्यकाम आनंद ने बेहतरीन काम किया है। इनके अलावा सहयोगी किरदारों में नज़र आए कलाकारों का भी योगदान कम नहीं है। 

ग्रहण का विषय ऐसा है कि किरदारों के साथ-साथ संवादों की भूमिका भी बेहद अहम थी और लेखन टीम इस मोर्चे पर भी काफ़ी हद तक सफल रही है। कुछ पंक्तियां विचारोत्तेजक हैं। ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद पंजाब में हो रही ज़्यादतियों की चर्चा जब बोकारो में एक टी स्टॉल पर छिड़ती है तो चुन्नु सिंह की नफ़रत पूरी कौम को ज़िम्मेदार ठहराती है, जिस पर मनु का पिता कंवलजीत छाबड़ा कहता है कि दूसरों के घाव दिखाकर अपने घाव छिपाना सियासत का तरीका है।

 

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ऋषि के किरदार के ज़रिए सीरीज़ दंगों के दौरान पक्ष और विपक्ष की भूमिका पर विचारशील टिप्पणी करती है- हम उनके साथ हो सकते थे या फिर उनके ख़िलाफ़। उन्माद के उस माहौल में दंगाइयों के ख़िलाफ़ जाना तो सम्भव नहीं होता तो फिर बेकसूरों की जान बचाने के लिए क्या किया जाए? या फिर दंगाई गुरनाम का पछतावे में कहना कि नफ़रत हम सबमें होती है। सीरीज़ ख़त्म करने के बाद एक और बात ज़हन में आती है कि कई बार जो आंख देखती है, ज़रूरी नहीं वही सच हो।

अगर ग्रहण की कमियों की बात करें तो सीरीज़ कहीं-कहीं खिंची हुई लगती है। इसकी वजह हो सकती है, कहानी को आठ एपिसोड्स में फैलाना। प्रति एपिसोड अवधि 43 मिनट से 54 मिनट तक है। हिंद नगर का घटनाक्रम मूल कहानी में कोई योगदान नहीं करता। कुछ दृश्य गैरज़रूरी भी लगते हैं। दंगों की अगुवाई करने वाला ऋषि रंजन सिख गुरसेवक क्यों बन जाता है। इसका सीधा जवाब सीरीज़ में नहीं दिया गया है। कयास लगाने की ज़िम्मेदारी दर्शक पर छोड़ दी गयी है। हालांकि, निर्देशक रंजन चंदेल को इस बात के लिए सराहा जाना चाहिए कि एक अतिसंवेदनशील विषय को उन्होंने उतनी ही ज़िम्मेदारी के साथ पेश किया है।  

 

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कलाकार- पवन मल्होत्रा, ज़ोया हुसैन, अंशुमान पुष्कर, वमिका गब्बी, टीकम जोशी, सत्यकाम आनंद, सहीदुर रहमान, अभिनव पटेरिया, नम्रता वार्ष्णेय आदि। 

निर्देशक- रंजन चंदेल

प्लेटफॉर्म- डिज़्नी प्लस हॉटस्टार वीआईपी

रेटिंग- *** (तीन स्टार)

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