Sherni Review: शोर-शराबे और हंगामे के बिना सादगी से सही जगह चोट करती है विद्या बालन की 'शेरनी', पढ़ें पूरा रिव्यू

Sherni Review सरकारी महकमों की लचर कार्यशैली सरकारी मुलाज़िमों और स्थानीय सियासत का गठजोड़ जानवर की जान के लिए इंसानी नज़रिया और इंसानी जान के लिए सियासत का रवैया... सब कुछ स्क्रीनप्ले में पिरोया है। बिना किसी शोर-शराबे और हंगामे के फ़िल्म मुद्दे की बात करती है।

By Manoj VashisthEdited By: Publish:Fri, 18 Jun 2021 02:54 AM (IST) Updated:Fri, 18 Jun 2021 09:23 PM (IST)
Sherni Review: शोर-शराबे और हंगामे के बिना सादगी से सही जगह चोट करती है विद्या बालन की 'शेरनी', पढ़ें पूरा रिव्यू
Vidya Balan in Sherni as DFO. Photo- PR

मनोज वशिष्ठ, नई दिल्ली। विद्या बालन ने जागरण डॉट कॉम के साथ हुई बातचीत में निर्देशक अमित मसुरकर के बारे में एक बात कही थी। उन्हें जंगलों से बहुत प्यार है और इसीलिए न्यूटन के बाद वो एक बार फिर जंगल पहुंच गये। विद्या ने भले ही यह बात हल्के-फुल्के अंदाज़ में कही हो, मगर शेरनी देखने के बाद इस बात की संजीदगी साफ़-तौर समझ आती है।

जंगल और इंसान के बीच संघर्ष की कई कहानियां हमने पहले भी पर्दे पर देखी हैं। मगर, इन कहानियों को सिनेमाई कारोबार के लिहाज़ से चमकीला बनाने के लिए इतना बर्क चढ़ा दिया जाता रहा है कि असल मुद्दा कहीं नेपथ्य में चला जाता है।

'शेरनी' की असली दहाड़ इसकी सादगी और उन बारीक़ियों में है, जिसे अमित मसुरकर ने 'मैन वर्सेज़ एनिमल' की इस कहानी को दिखाने में इस्तेमाल किया है। बिना किसी शोर-शराबे और हंगामे के फ़िल्म मुद्दे की बात करती है।

जहां चोट करनी होती है, वहां चोट करती है और इस चोट के निशानों का मंथन दर्शक के हवाले छोड़ जाती है। फ़िल्म में एक संवाद है- जंगल कितना भी बड़ा हो, शेरनी अपना रास्ता खोज ही लेती है। शेरनी तब क्या करेगी, जब उसके रास्ते में हाइवे, तांबे की खदान और कंक्रीट के जंगल आ जाएंगे? 

हिंदी सिनेमा में ऐसी फ़िल्में तो बनी हैं, जिनमें मुख्य किरदार को फॉरेस्ट ऑफ़िसर दिखाया गया हो, मगर वन विभाग की कार्यशैली पर इतनी गहराई के साथ सम्भवत: पहली बार कैमरा घुमाया गया है। विभाग के अच्छे और बुरे पहलुओं को स्क्रीन पर पेश किया गया है। 

विद्या फ़िल्म में विद्या विंसेंट नाम की कड़क, ईमानदार और निष्ठावान डीएफओ (डिवीजनल फॉरेस्ट ऑफ़िसर) के किरदार में हैं। 4-5 साल की ऑफ़िस पोस्टिंग के बाद विद्या को फील्ड  में तैनाती मिलती है। जिस इलाक़े की वो अधिकारी हैं, उसमें एक शेरनी (बाघिन) आदमखोर हो जाती है। आस-पास के दो गांव वालों को मार चुकी है।

वन विभाग ने शेरनी की गतिविधियों को पकड़ने के लिए जो कैमरे लगाये, उसकी फुटेज से पता चलता है कि वो टी-12 शेरनी है। वन विभाग तमाम कोशिशों और दफ़्तर में यज्ञ-हवन के बाद भी शातिर शेरनी को पकड़ने में नाकाम रहता है। इधर, राज्य में विधान सभा चुनावों की दस्तक हो गयी है। स्थानीय विधायक जीके सिंह को बैठे-बिठाये मुद्दा मिल जाता है।

सरकारी महकमे की नाकामी को भुनाकर इलाक़े के लोगों का दिल और फिर वोट जीतने के लिए वो एक प्राइवेट शिकारी रंजन राजहंस यानी पिंटू भैया की मदद से बाघिन का शिकार करना चाहता है। वहीं, पूर्व विधायक पीके सिंह आदमखोर बाघिन को मारने में वन विभाग की नाकामी को सरकारी साजिश मानता है और लोगों को जीके सिंह के ख़िलाफ़ भड़काता है।

विद्या विंसेंट किसी भी तरह आदमखोर बाघिन के शिकार के पक्ष में नहीं है। वो अपने सीनियर्स से भिड़ जाती है। इस बीच पता चलता है कि बाघिन के दो बच्चे भी हैं। सीनियर अधिकारी किसी तरह इस मुसीबत से पीछा छुड़ाना चाहते हैं, चाहे बाघिन को मारना पड़े।

इसमें सियासी स्वीकृति भी शामिल है। अब विद्या विंसेंट के सामने सबसे बड़ी चुनौती बाघिन और उसके दोनों बच्चों को बचाने की है, जिसमें उसकी मदद जीव विज्ञान के प्रोफेसर हसन नूरानी, कुछ गांव वाले और महकमे के कुछ कर्मचारी कर रहे हैं। 

एक लाइन में सुनेंगे तो शेरनी की कहानी आपको सुनी-सुनाई लगेगी। विकास के बड़े-बड़े दावों वाली चार कॉलम की ख़बरों के बीच अख़बारों में अक्सर ऐसी कहानियां एक कॉलम में छपी हुई मिल जाती हैं। मगर, आस्था टीकू के स्क्रीनप्ले में इसकी जो डिटेलिंग है, वो बांधे रखती है।

सरकारी महकमों की लचर कार्यशैली, अफ़सरशाही और सियासत का गठजोड़, जानवर की जान के लिए इंसानी नज़रिया और इंसानी जान के लिए सियासत का रवैया... सब कुछ स्क्रीनप्ले में पिरोया है। वन विभाग के दफ़्तर के दृश्य हों या गांव वालों के अधिकारियों से मुलाक़ातों के दृश्य या फिर किरदारों के आपसी मेल-मिलाप के दृश्य। संयोजन इतना विस्तृत है कि असली जैसे लगते हैं।

अमित मसुरकर और यशस्वी मिश्रा के संवाद बहुत वास्तविक और प्रैक्टिल हैं। एक जगह विद्या विंसेंट का सीनियर अफ़सर नांगिया एक वर्कशॉप में कहता है- ''क्या विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन ज़रूरी है? विकास के साथ जाओ तो पर्यावरण को बचा नहीं सकते और अगर पर्यावरण को बचाने जाओ तो विकास बेचारा उदास हो जाता है।'' यह संवाद बहुत कुछ कह जाता है। विकास को आख़िर उदास कौन देखना चाहेगा? तो बलि किसकी चढ़ेगी? यह ऐसा ग्रे एरिया है, जहां जवाब जानते हुए भी अक्सर ख़ामोशी साध ली जाती है।

लेखन के साथ फ़िल्म की दूसरी सबसे बड़ी ताक़त है इसकी कास्टिंग। गांव वालों के किरदार निभाने वाले कलाकार हों या वन विभाग के महकमे के कर्मचारियों का किरदार निभाने वाले कलाकार। हाव-भाव, भाषा और व्यवहार में बिल्कुल वास्तविक लगते हैं।

एमएलए जीके सिंह के किरदार में अमर सिंह परिहार, एक्स एमएलए पीके सिंह के रोल में सत्यकाम आनंद, ज्योति के रोल में शंपा मंडल, वन विभाग के कॉन्ट्रेक्टर मनीष के रोल में शकुल सिंह, फॉरेस्ट गार्ड के किरदार में मुकेश प्रजापति, प्यारे लाल के किरदार में अनूप त्रिवेदी, सभी ने अपने किरदारों को जीया है।

मुख्य स्टारकास्ट में विद्या बालन ने एक बार फिर ख़ुद को साबित किया है कि किरदार में उतरने की कला की वो माहिर हैं। जंगल और जानवरों से ज़्यादा विभागीय सियासत से जूझती एक डीएफओ, जो नौकरी छोड़ना चाहती है, मगर मुंबई में एक प्राइवेट कम्पनी में काम करने वाला पति आर्थिक सुरक्षा के लिए ऐसा करने से मना करता है। इस सबके बीच अपने काम के लिए समर्पित, संजीदा और ईमानदार डीएफओ के किरदार को विद्या ने ओढ़ लिया है।

शेरनी में विद्या के भावों की स्थिरता और निरंतरता भी बेहतरीन अदाकारी का नमूना है। वहीं, सहयोगी कलाकारों में बृजेंद्र काला ने विद्या के सीनियर के रोल में बेहतरीन काम किया है।

लगभग नाकारा, बेफ़िक्र और परिस्थिति के अनुसार रंग बदलने वाले अफ़सर के किरदार को बृजेंद्र ने कामयाबी के साथ पेश किया है।  सीनियर अफ़सर नांगिया के किरदार में नीरज कबी ठीक लगे हैं। नीरज का व्यक्तित्व और एटीट्यूड ऐसे किरदारों के लिए उन्हें बिल्कुल फिट बनाता है। शिकारी पिंटू भैया के किरदार में वरिष्ठ कलाकार शरत सक्सेना जान फूंक दी है।

बड़बोले, बेपरवाह और ढींगे हांकने वाले शिकारी के रोल में शरत को देखने में मज़ा आता है। विद्या के साथ उनके कुछ दृश्य मज़ेदार हैं। ज़ूलॉजी के प्रोफेसर के किरदार में विजय राज़ ने अच्छा काम किया है। विद्या के पति पवन के रोल में मुकुल चड्ढा, पवन की मां के रोल में इला अरुण और विद्या की दक्षिण भारतीय मां के रोल में सूमा मुकुंदन ने ठीक ठाक काम किया है। हालांकि, इनके रोल की लम्बाई अधिक नहीं है। 

राकेश हरिदास की सिनेमैटोग्राफी बेहतरीन है। जंगल और गांवों को उन्होंने जिस तरह दिखाया है, वो थ्रिल का भाव जगाता है। वहीं, फ़िल्म का संगीत कहानी के मिज़ाज के मुताबिक है। वन विभाग के कर्मचारियों और गांव वालों के पहनावे में प्रोडक्शन और साज-सज्जा विभाग की विचारशीलता और कुशलता नज़र आती है।

फ़िल्म से पहले डिस्क्लेमर में बता दिया गया है कि जानवर सीजीआई से बनाये गये हैं, जिसमें वास्तविकता झलकती है। शेरनी की कहानी में कोई नयापन नहीं है और ना ही यह चौंकाती है। कुछ जगहों पर फ़िल्म की रफ़्तार धीमी महसूस होती है। मगर, कलाकारों की परफॉर्मेंसेज इसकी भरपाई कर देती हैं।

कलाकार- विद्या बालन, बृजेंद्र काला, नीरज कबी, मुकुल चड्ढा, विजय राज़, शरत सक्सेना, इला अरुण आदि।

निर्देशक- अमित मसुरकर

निर्माता- टी-सीरीज़, एबंडनशिया एंटरटेनमेंट।

रेटिंग- ***1/2 (साढ़े तीन स्टार)

अवधि- 2 घंटा 2 मिनट

chat bot
आपका साथी