Chhorii Movie Review: हॉरर के 'घूंघट' में सामाजिक संदेश देती 'छोरी', नुरसत भरूचा और मीता वशिष्ठ की उम्दा अदाकारी

Chhorii Movie Review नुसरत भरूचा की फिल्म छोरी की कहानी का विषय जरूर पुराना लगता है कि लेकिन इस फिल्म के अपने कुछ पड़ाव ऐसे हैं जो इसे देखने लायक बनाते है। हालांकि क्लाइमैक्स आते-आते फिल्म की पकड़ ढीली हो जाती है।

By Manoj VashisthEdited By: Publish:Fri, 26 Nov 2021 01:30 AM (IST) Updated:Sat, 27 Nov 2021 12:12 PM (IST)
Chhorii Movie Review: हॉरर के 'घूंघट' में सामाजिक संदेश देती 'छोरी', नुरसत भरूचा और मीता वशिष्ठ की उम्दा अदाकारी
Nusrratt Bharuccha in Chhorii film. Photo- Instagram

मनोज वशिष्ठ, नई दिल्ली। मराठी फिल्म लपाछपी को इसके निर्देशक विशाल फूरिया ने छोरी शीर्षक से हिंदी में रीमेक किया है। लपाछपी 2017 में सिनेमाघरों में रिलीज हुई थी और छोरी 2021 में ओटीटी प्लेटफॉर्म अमेजन प्राइम वीडियो पर आयी है। दोनों फिल्मों के बीच चार साल का लम्बा अंतराल और ओटीटी प्लेटफॉर्म्स के प्रचार-प्रसार के साथ देश और दुनिया की तमाम दिलचस्प कहानियों की स्ट्रीमिंग का एक अंतहीन-सा लगने वाला सिलसिला है।

इस स्ट्रीमिंग के जरिए इतना कंटेंट दर्शक की जेब में रखे मोबाइल तक पहुंच रहा है कि नये को पुराना होते देर नहीं लगती। छोरी के साथ भी यही दिक्कत है। अगर यह फिल्म तीन-चार साल पहले रिलीज हुई होती तो शायद इसका असर जबरदस्त रहता, मगर ओटीटी की बलिहारी, पिछले साल नेटफ्लिक्स पर आयी शबाना आजमी की काली खुही की याद आते ही छोरी पुरानी लगने लगती है।

काली खुही देख चुका दर्शक छोरी की कहानी के फैलाव में समानाएं नापता हुआ आगे बढ़ता है, जो फिल्म के क्लाइमैक्स में कुप्रथाओं के नाम पर छोरियों यानी कन्याओं की हत्या और भ्रूण हत्या के खिलाफ सामाजिक संदेश दिये जाने तक जारी रहता है। मगर, इस छोरी की अपनी अहमियत है।

छोरी की कहानी का विषय जरूर पुराना लगता है, मगर फिल्म के अपने कुछ पड़ाव ऐसे हैं, जो इसे देखने लायक बनाते है। हालांकि, क्लाइमैक्स आते-आते फिल्म की पकड़ ढीली पड़ जाती है। मगर, नुसरत भरूचा और मीता वशिष्ठ अपनी अदाकारी से फिल्म को फिसलने नहीं देते।

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हिंदी दर्शकों के लिए विशाल फूरिया छोरी की कहानी उत्तर भारत के किसी गांव में ले गये हैं। किरदारों के लहजे और पहनावे से यह हरियाणा या पश्चिमी उत्तर प्रदेश का कोई गांव लगता है। लगभग आठ महीने की गर्भवती साक्षी (नुसरत भरूचा) कस्बे में एनजीओ चलाती है। बिजनेस के लिए स्थानीय दबंग चंदेल से लिया गया लोन ना चुका पाने के कारण उसके आदमी साक्षी के पति हेमंत के साथ घर में घुसकर मारपीट करते हैं। गर्भवती पत्नी की सुरक्षा के लिए हेमंत अपने ड्राइवर कजला की सलाह पर 300 किलोमीटर दूर उसके गांव में छिपने के लिए तैयार हो जाता है, जहां तक चंदेल के गुंडे ना पहुंच सकें।

कजला जिस गांव में रहता है, वहां बस 5 घर हैं, जिसमें दो उसके ही हैं। घर पहुंचने पर कजला की पत्नी भन्नो देवी साक्षी की देखभाल का आश्वासन हेमंत को देती है। साभी भन्नो देवी की आवभगत से संतुष्ट और सुरक्षित महसूस करती है, मगर कुछ वक्त बाद उसे तीन बच्चे दिखने लगते हैं, जो दूर-दूर तक ईख से घिरे घर खेतों में खेलते रहते हैं और अचानक गायब हो जाते हैं। साक्षी इनके साथ खेलना चाहती है, मगर भन्नो देवी हिदायत देती है कि बच्चों से दूर रहे।

साक्षी को भन्नो देवी की बातें कुछ अजीब लगती हैं और हेमंत के शहर से लौटने पर वो उसे वापस चलने को कहती है। दोनों रात में निकलने वाले ही होते हैं कि कजला हेमंत को डंडे से मारकर बेहोश कर देता है और भन्नो देवी साक्षी के हाथ-पांव बांधकर उसे कैद कर लेती है। भन्नो साक्षी के सामने इस परिवार के एक ऐसे रहस्य का खुलासा करती है, जो बेहद खौफनाक और दकियानूसी परम्पराओं को समेटे हुए है।

भन्नो देवी उसे बताती है कि उनके घर पर कजला के छोटे भाई की मर चुकी बीवी सुनयनी का श्राप है, जिसे वो डायन कहती है। कजला और भन्नो देवी के चार बेटे थे। सबसे बड़ा राजबीर था। सुनयनी घर में आने के बाद तीनों छोटे बेटों को अपने वश में कर लेती है। भन्नो देवी इसकी शिकायत सुनयनी के पति से करती है। दोनों में झगड़ा होता है। सुनयनी अपने पति को मार डालती है और भन्नो देवी के तीनों बेटों के साथ कुएं में कूदकर जान दे देती है। सुनयनी मौत के समय आठ महीने की गर्भवती होती है।

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कजला के बेटे राजबीर की तीन शादियां होती हैं। दो बीवियों को गर्भ के आठवें महीने में सुनयनी मार डालती है। तीसरी बीवी रानी का बच्चा भी मारा जाता है, मगर जान बच जाती है। हालांकि, सदमे की वजह से उसकी आवाज चली जाती है। भन्नो बताती है कि इस घर का श्राप तभी मिटेगा, जब कोई गर्भवती लड़की तीन दिनों तक वहां रुके और सही-सलमात रहे। इसके बाद साक्षी को अतीत के कुछ दृश्य यहां-वहां दिखने शुरू होते हैं, जिनमें सुनयनी और उससे जुड़ी घटनाओं की जानकारी सामने आती हैं। अब साक्षी इन लोगों के चंगुल से छूट पाती है या नहीं? हेमंत का क्या होता है? साक्षी को बच्चे और सुनयनी क्यों दिखते हैं? राजबीर का क्या रहस्य है? आगे की कहानी इन्हीं सवालों के जवाब देती है, जिसे खुद देखना ही बेहतर है।

छोरी की कहानी विशाल फूरिया की ही है, जबक पटकथा और संवाद विशाल कपूर ने लिखे हैं। छोरी का टेकऑफ बढ़िया है और आधी से ज्यादा फिल्म बांधकर चलती है, मगर साक्षी के भ्रम वाले दृश्य आने के बाद फिल्म डगमगाने लगती है। यह हिस्सा खिंचा हुआ लगता है और 2 घंटा 9 मिनट की अवधि थोड़ा लम्बी महसूस होने लगती है। क्लाइमैक्स में एक-दो ट्विस्ट्स को छोड़ दें तो कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसका असर फिल्म खत्म होने के बाद भी जहन में बना रहे। 

अगर हॉरर की बात करें तो गांव में ईख के बीचों-बीच बना घर और भूल-भुलैया जैसे रास्ते दृश्यों के प्रति उत्सुकता बढ़ाते हैं और अप्रत्याशितता का यही भाव इसमें हॉरर का तड़का लगाता है। साधारण से लगने वाले यह दृश्य सस्पेंस भी क्रिएट करने में मदद करते हैं। घर में घूमती सुनयनी और बच्चों की आत्मा से ज्यादा हॉरर लोकेशन के जरिए पैदा किया गया है और इसमें अंशुल दुबे की सिनेमैटोग्राफी तारीफ के लायक है। उन्होंने जिस तरह से गन्ने के खेतों के बीच धंसे घर को कैमरे की नजर से दिखाया है, उसने साधारण दृश्य को भी रोमांचक बना दिया है।

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छोरी में मुख्य रूप से नुसरत और मीता वशिष्ठ के किरदार ही फिल्म को आगे बढ़ाते हैं और इन दोनों एक्ट्रेसेज ने अपने-अपने किरदारों में बेहतरीन काम किया है। अजीब दास्तांस के बाद नुसरत ने एक बार फिर अपनी संजीदा अदाकारी की छाप छोड़ी है। वहीं, मीता वशिष्ठ की अदाकारी छोरी की रहस्मयी परत को गाढ़ा करती है। कजला के किरदार में राजेश जैस और हेमंत के किरदार में सौरभ गोयल ने इनका अच्छा साथ दिया है। फिल्म के अंत में कन्या भ्रूण हत्या और कन्या संतान हत्या के आंकड़े फिल्म को सरोकारी चेहरा देते हैं। विशाल फूरिया की छोरी भले ही हॉरर के मोर्चे पर कमजोर हो, मगर फिल्म बोर नहीं करती। 

कलाकार- नुसरत भरूचा, मीता वशिष्ठ, सौरभ गोयल, राजेश जैस आदि।

निर्देशक- विशाल फूरिया

कहानी- विशाल फूरिया

पटकथा और संवाद- विशाल कपूर

अवधि- 2 घंटा 9 मिनट।

रेटिंग- *** (तीन स्टार)

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