Balraj Sahni: क्या मार्क्सवाद से थे बलराज साहनी के रिश्ते? सवालों के तार खोलती परीक्षित साहनी की किताब

Balraj Sahni लेखक अपने पिता के दौर को खूबसूरती से बांचते हुए इतिहास की उस यात्रा पर ले जाता है। इसमें उनके और मार्क्सवाद प्रेम के बारे में भी बताया गया है।

By Rajat SinghEdited By: Publish:Sun, 12 Jul 2020 02:17 PM (IST) Updated:Sun, 12 Jul 2020 02:17 PM (IST)
Balraj Sahni: क्या मार्क्सवाद से थे बलराज साहनी के रिश्ते? सवालों के तार खोलती परीक्षित साहनी की  किताब
Balraj Sahni: क्या मार्क्सवाद से थे बलराज साहनी के रिश्ते? सवालों के तार खोलती परीक्षित साहनी की किताब

नई दिल्ली, जेएनएन। अपने जीवंत अभिनय और प्रबुद्ध व्यक्तित्व से हिंदी सिनेमा ही नहीं, बौद्धिक समाज में भी सम्मानित अभिनेता बलराज साहनी के जीवन और संस्मरणों पर उनके पुत्र परीक्षित साहनी ने 'द नॉन कंफर्मिस्ट- मेमोरीज ऑफ माय फादर-बलराज साहनी' लिखी है। एक बेटा अपने पिता की यादों के सहारे जिस दुनिया के दरवाजे हमारे सामने खोल रहा है, वह किसी हिंदी फीचर फिल्म को देखकर सिनेमा हॉल से निकलने जैसा मामला नहीं है। लेखक अपने पिता के दौर को खूबसूरती से बांचते हुए इतिहास की उस यात्रा पर ले जाता है, जहां बलराज साहनी की तरुणाई से लेकर मार्क्सवाद में उनकी आस्था, पारिवारिक जीवन और फिल्मों के लिए संघर्ष करते हुए अपना मुकाम बनाने की बात साफगोई से की गई है।

यह संस्मरणनुमा किताब अर्धकथात्मक रूप से बलराज साहनी की जीवनी भी है, जिसे कुछ अनकहे किस्सों और वाकयों के तहत अभिव्यक्त किया गया है। अर्धकथात्मक इस रूप में, कि परीक्षित साहनी जो कुछ भी कह रहे हैं, उसमें पूरी तटस्थता और संलग्नता के बावजूद, एक पुत्र का दृष्टिकोण अधिक उभरता है, जीवनीकार की खोजी निगाह फिर भी कहीं एक झीने परदे के पीछे गुम हो जाती है। अभिनेता, मित्र, पिता और देश के प्रति सम्मान रखने वाले नागरिक के तौर पर बलराज साहनी का मूल्यांकन ठीक ढंग से आकार पाता है। इस पूरे प्रकरण में कहानियों, घटनाओं और अभिनेता के वक्तव्यों के कारण, संस्मरणों का यह कोलाज मानीखेज बन जाता है।

यह किताब यादों का संदूक है, जिसमें कुछ बेहद दिलचस्प तथ्य उनके जीवन को उस उजाले में देखने की सहूलियत देते हैं, जिस पर कम बात होती है। जैसे, उस समय के कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के महासचिव पी.सी. जोशी और बलराज साहनी में गुरु-शिष्य का रिश्ता था। बलराज हर बात, चाहे वह व्यक्तिगत ही क्यों न हो, पर जोशी जी से सलाह लेते थे। उनके मार्क्सवाद बनने के पीछे लेनिन या 'दास कैपिटल' पढ़कर प्रेरित होना नहीं था, बल्कि सोवियत जमीन की वे फिल्में थीं, जिन्हें देखकर वे आगे बढ़े। इसमें बलराज साहनी की आत्मकथा से रूसी फिल्म 'सर्कस' का जिक्र है, जिससे वे बेहद प्रभावित हुए। वे लिखते हैं- 'ये रूसी फिल्में ही थीं, जिन्होंने मुझे सोवियत यूनियन, मार्क्सवाद और लेनिनवाद से पहले-पहल परिचित कराया।' बंबई (अब मुंबई) के दिनों में जब वे रंगमंच के मंजे हुए अभिनेता रहे, इप्टा के सदस्य थे। परीक्षित साहनी एक सुंदर बात लक्ष्य करते हैं कि उनके पिता का मार्क्सवाद, केवल सिद्धांत पर आधारित न होकर उस मानवता के प्रति था, जो लोगों में विश्वास करते हुए उसके व्यावहारिक रूप को पसंद करती थी। इसी कारण उन्होंने ख्वाजा अहमद अब्बास द्वारा निर्देशित और इप्टा की बनाई 'धरती के लाल' में काम किया था। एक दिलचस्प प्रसंग यह भी है कि बलराज साहनी की पत्नी यूरोपियन शास्त्रीय संगीत की मुरीद थीं। वे अक्सर खाली समय में लांग प्ले रेकॉर्ड पर बीथोवन, मोजार्ट और ताइकोवस्की की सिंफनीज सुनना पसंद करती थीं। जब भी वे ऐसा करतीं तो बलराज दूसरे कमरे में चले जाते थे, क्योंकि उन्हें वेस्टर्न क्लासिकल और ओपेरा बिल्कुल भी नहीं भाता था।

परीक्षित साहनी ने अपने पिता को क्रांतिकारी, उदारवादी, खुले मन से दुनियाभर के ज्ञान का मनन करने वाले अध्येता के रूप में याद किया है। बलराज साहनी का स्वभाव भी उनकी अभिनीत फिल्मों और लेखन में व्यक्त होता रहा है। वे ऐसे कलाकार थे, जो पार्टियों और दावतों के माहौल में तॉलस्तॉय की किताबों को याद कर सकते थे, तो दूसरी तरफ अपनी फिल्मों के प्रचार अभियान के दौरान भी बेहद मानवीय होकर परिवार के प्रति जिम्मेदार बने रहते थे। शिमला का एक प्रसंग यहां याद किए जाने योग्य है कि कैसे गेटी थियेटर के सामने, जब उनके छोटे भाई भीष्म साहनी की पत्नी शीला जी गर्भावस्था के दौरान उनके प्रशंसकों की भीड़ में फंस गईं और उनकी तबीयत बिगड़ने लगी, तब भीड़ को संयमित करते हुए बलराज किस तरह अपील करके शीला जी को बचा पाए।

ऐसे तमाम ब्यौरे खुशनुमा ढंग से बलराज साहनी के उस कद से परिचय कराते हैं, जिनके चलते वे सिनेमा की दुनिया में अभिनय के शिखर पर पहुंचे। किताब में भाइयों के रिश्ते पर खुलेपन से बात की गई है, जिसमें भीष्म साहनी का भी व्यक्तित्व पूरी ऊष्मा के साथ निखरकर सामने आता है। फिल्म निर्देशकों से उनके रिश्ते, बिमल रॉय की 'दो बीघा जमीन' और 'काबुलीवाला' के बनने की कहानी, रवींद्रनाथ टैगोर के शांतिनिकेतन में एक शिक्षक की तरह पढ़ाने के अनुभव, नरगिस की मां की मृत्यु पर शोक सभा में बड़े लोगों की उपस्थिति के बीच नजरअंदाज किए जाने का क्षोभ, 'श्री गुरुग्रंथ-साहिब', बुल्लेशाह और हीर पढ़ने का शौक- ऐसी कई बातों और संस्मरणों से इस महान अभिनेता के अंतरंग का पाठ सामाजिक तौर पर ऐसा अध्ययन बन जाता है, जिसके सहारे हम सिनेमा की दुनिया के किरदारों का प्रामाणिक ढंग से दस्तावेज बना सकते हैं। पढ़ने लायक किताब, जो प्रेरित भी करती है।

(यतीन्द्र मिश्र)

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