Shershaah Interview: 'कारगिल में जहां शूटिंग की, वहां अभी भी मिल जाती है पाकिस्तानी युद्ध सामग्री'- निर्देशक विष्णु वर्धन

दक्षिण भारतीय भाषाओं की फ़िल्में निर्देशित करते रहे विष्णु शेरशाह को लेकर काफ़ी उत्साहित हैं क्योंकि निर्देशक के तौर पर उनकी पहली हिंदी फ़िल्म पहली बायोपिक और इंडियन आर्मी पर आधारित पहली फ़िल्म है। जागरण डॉटकॉम के साथ विष्णु की बातचीत।

By Manoj VashisthEdited By: Publish:Thu, 05 Aug 2021 02:57 PM (IST) Updated:Thu, 05 Aug 2021 02:57 PM (IST)
Shershaah Interview: 'कारगिल में जहां शूटिंग की, वहां अभी भी मिल जाती है पाकिस्तानी युद्ध सामग्री'- निर्देशक विष्णु वर्धन
Vishnu Vardhan directed Shershaah film. Photo- Instagram

मनोज वशिष्ठ, नई दिल्ली। अमेज़न प्राइम वीडियो पर 12 अगस्त को शेरशाह रिलीज़ हो रही है। फ़िल्म 1999 में हुए कारगिल युद्ध के हीरो शहीद परमव्रीर चक्र विजेता कैप्टन विक्रम बत्रा का बायोपिक है। सिद्धार्थ मल्होत्रा कैप्टन बत्रा के किरदार में हैं, जबकि कियारा आडवाणी उनकी प्रेमिका और मंगेतर डिम्पल चीमा के रोल में नज़र आएंगी। शेरशाह का निर्देशन विष्णु वर्धन ने किया है।

दक्षिण भारतीय भाषाओं की फ़िल्में निर्देशित करते रहे विष्णु शेरशाह को लेकर काफ़ी उत्साहित हैं, क्योंकि निर्देशक के तौर पर उनकी पहली हिंदी फ़िल्म, पहली बायोपिक और इंडियन आर्मी पर आधारित पहली फ़िल्म है। जागरण डॉटकॉम के साथ विष्णु ने शेरशाह के निर्माण के दौरान अपने दिलचस्प अनुभवों पर विस्तार से बातचीत की। 

निर्देशक के तौर पर शेरशाह से आपका जुड़ाव कैसे हुआ?

फ़िल्म से जुड़ने के बारे में पूछने पर विष्णु कहते हैं- ''मेरे लिए यह सौभाग्य है। यही बोल सकता हूं। इस फ़िल्म से पहले मैं एक दूसरी फ़िल्म करने वाला था। फ़िल्म के लेखक संदीप श्रावास्तव और मैं साउथ में एक दूसरे प्रोजेक्ट पर काम कर रहे थे। संदीप ने तब कैप्टन विक्रम बत्रा पर रिसर्च करना शुरू किया ही था, जिससे मुझे फ़िल्म के बारे में पता चला और मैं लेखन में निर्देशकीय दृष्टिकोण से मदद कर रहा था।

विक्रम बत्रा के बारे में जैसे-जैसे अधिक बातें पता चलीं, मैं इसकी ओर आकर्षित होने लगा। मैं उनसे कहता था कि जो भी इस फ़िल्म को करेगा, उसके जीवन की सबसे यादगार फ़िल्म बन जाएगी। उस समय मुझे भी नहीं पता था कि फ़िल्म मैं करूंगा। शब्बीर बॉक्सवाला के पास इसके राइट्स थे। मैं करण जौहर (धर्मा प्रोडक्शंस) से मिला और चीज़ें पटरी पर आने लगीं।

उस वक़्त मैं जो फ़िल्म करने वाला था, उसे छोड़ दिया, क्योंकि इस फ़िल्म ने ज़्यादा प्रभावित किया था। एक निर्देशक को और क्या चाहिए... करण जौहर, धर्मा प्रोडक्शंस और एक ऐसी फ़िल्म जो मैंने पहले कभी नहीं की। इससे पहले मैंने कोई बायोपिक नहीं की और ना ही इंडियन आर्मी पर कोई फ़िल्म बनायी थी। इस फ़िल्म को करना मेरे लिए बहुत एक्साइटिंग था।''

कारगिल में युद्ध के दृश्यों को शूट करने के दौरान किस तरह की चुनौतियां पेश आयीं?

कारगिल के जिस इलाक़े में फ़िल्म शूट हुई है, वो अपने-आप में बहुत चुनौतीभरा था। हमने फ़िल्म समतल ज़मीन पर शूट नहीं की है, क्योंकि यह युद्ध समतल ज़मीन पर हुआ ही नहीं था और यह पहाड़ों पर लड़ी गयी सबसे मुश्किल जंगों में से एक है। हमारे सामने सबसे बड़ा चैलेंज यही था कि असली जवानों ने जिस तरह यह लड़ाई लड़ी, उसके कितने करीब शूट कर पाते हैं।

कारगिल लगभग 12 हज़ार फुट की ऊंचाई पर है और ऑक्सीजन की कमी रहती है। कारगिल वॉर का पूरा शेड्यूल 12-14 हज़ार फुट की ऊंचाई पर था। व्यवहारिक तौर पर सभी कलाकारों और टेक्नीशियंस के साथ इसे शूट करना बहुत मुश्किल था, लेकिन जिस बात ने हमारे जज़्बे को बनाये रखा, वो रिसर्च और उन ऑफ़िसर्स से मिलना था, जिन्होंने वाकई में यह युद्ध लड़ा था। यह बहुत प्रेरणादायी था, जिससे हर परेशानी छोटी लगने लगी थी। सिद्धार्थ, डीओपी कंवलजीत नेगी सब जोश में थे।

 

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इसका सबसे मुश्किल भाग प्रोडक्शन ही था, क्योंकि कारगिल में कभी किसी फ़िल्म शूटिंग नहीं हुई थी। पहली बार शूटिंग हो रही थी। इसलिए कोई बेस भी नहीं था। इंडियन आर्मी ने बहुत मदद की। वहां हम थर्माकॉल लाइट्स भी यूज़ नहीं कर पा रहे थे, क्योंकि तेज़ हवा चल रही थी। एक तरह से नेचर ने भी फ़िल्म के विजुअल्स को समृद्ध करने में हमारी मदद की। सब कुछ बिल्कुल असली जैसा लग रहा है। इस सबने फ़िल्म को काफ़ी सपोर्ट किया है।

इंडियन आर्मी की वजह से कोई ख़तरा नहीं था, लेकिन जहां हम शूट कर रहे थे, पहाड़ के उस पार पाकिस्तान था। हम इधर विस्फोट करते थे, तो लगता था वो लोग सुन लेंगे और कुछ कर ना बैठें। जहां हम शूटिंग कर रहे थे, वहां 20 साल बाद भी पाकिस्तानी युद्ध सामग्री पड़ी है। कई बार यह काफ़ी डरावना भी होता था, क्योंकि वो सब शेल्स (गोले) जीवित थे। पाकिस्तान की ओर से शेलिंग (गोलाबारी) हुई होगी और वो यहां ऐसे ही पड़े हुए थे। उन्हें डिफ्यूज़ करके शूटिंग करना था। ऐसी कई दिलचस्प यादें हैं।

आपने फ़िल्म का ट्रेलर द्रास में भारतीय सेना के जवानों के बीच रिलीज़ किया था। उनकी प्रतिक्रिया कैसी रही?

फ़िल्म का ट्रेलर कारगिल विजय दिवस पर रिलीज़ करना मेरे लिए सबसे शानदार बात रही। रक्षा मंत्रालय और इंडियन आर्मी ने फ़िल्म देखने के बाद हमें पहले ही क्लीयरेंस दे दी थी। इंडियन आर्मी के तमाम बड़े अफ़सर द्रास (कारगिल) में मौजूद थे। उन सबने तो फ़िल्म देखी नहीं है। ट्रेलर देखने के बाद मुझे अभी भी सब लोगों के चेहरे के भाव याद हैं। मैंने ट्रेलर तो देखा ही नहीं, मैं तो बस उनकी प्रतिक्रियाएं देख रहा था।

उनके चेहरे पर जो मुस्कान और गर्व था, वो सबसे बड़ी उपलब्धि है। वहां विक्रम बत्रा के भाई विशाल बत्रा भी मौजूद थे। जनरल बिपिन रावत ने कहा कि ऐसी फ़िल्में और बननी चाहिए, जो यह दिखाएं कि हमारे जवान किस तरह के काम करने में सक्षम होते हैं। मुझे याद है, सभी लोगों ने ट्रेलर देखने के बाद कहा था- हमारे रोंगटे खड़े हो गये। यह सुनकर मुझे लगा कि हमारे टेक्नीशियंस, प्रोडक्शन और कलाकारों की मेहनत सफल रही।

 

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फ़िल्म के लिए रिसर्च में कितना वक़्त लगा और किन लोगों से मुलाक़ात की?

संदीप और मैंने कुछ महीनों तक रिसर्च के लिए ट्रैवल किया था, क्योंकि यह ऐसा बिषय है, जिसे लिखने से पहले यह जानना ज़रूरी था कि कैप्टन विक्रम बत्रा क्या थे और युद्ध के दौरान क्या हुआ था? यह सब जानने के लिए हम कुछ महीनों तक पूरा देश घूमे और उन सब अधिकारियों से मिले, जिन्होंने विक्रम बत्रा के साथ काम किया था।

हम उनसे जुड़े हरेक व्यक्ति से मिले और जाना कि युद्ध के दौरान क्या हुआ था? कैसा व्यक्तित्व था? कैसे रिएक्ट करते थे? कैसे बातें करते थे? परिवार के साथ मिलने पर भी बहुत कुछ पता चला। विशाल (विक्रम के जुड़वां भाई) से बात की ताकि पता चले कि किस तरह के व्यक्ति थे। पालमपुर और चंडीगढ़ में उनके दोस्तों से मिले। उनकी गर्लफ्रेंड डिम्पल चीमा से मिले। यह सबसे ख़ूबसूरत कहानियों में से एक है। लोगों ने जो हमें बताया, उसके ज़रिए हमने उनके बारे में जाना।

क्या कैप्टन विक्रम बत्रा के परिवार ने फ़िल्म देखी है?

कैप्टन विक्रम बत्रा के परिवार में अभी उनके भाई विशाल बत्रा ने ही फ़िल्म देखी है। हम पूरे परिवार को फ़िल्म दिखाना चाहते हैं। पूरी इंडियन आर्मी को फ़िल्म दिखाना चाहते हैं। विशाल जब भी अपने भाई की बात करते हैं, उनके चेहरे पर गर्व की चमक देखी जा सकती है। उनकी आंखों में नमी और ख़ुशी के आंसू। फ़िल्म देखने के बाद वही रिएक्शन उनके चेहरे पर था। इसकी मुझे सबसे अधिक ख़ुशी है।

सिद्धार्थ मल्होत्रा को कैप्टन विक्रम बत्रा के लिए चुनने के पीछे सबसे बड़ी वजह क्या रही?

सिद्धार्थ मल्होत्रा की कास्टिंग को लेकर विष्णु कहते हैं- सिद्धार्थ मल्होत्रा को इस किरदार में देखकर आप कहेंगे कि विक्रम बत्रा बिल्कुल ऐसे ही करते। सिद्धार्थ ने बहुत अच्छे से किरदार निभाया है। शब्बीर बॉक्सवाला ने सिद्धार्थ को एप्रोच किया था और जब मैं बोर्ड पर आया तो मुझे पता चला और यह बिल्कुल सही फ़ैसला था, क्योंकि विक्रम बत्रा का जैसा चार्म था, उस किरदार में सिद्धार्थ मल्होत्रा से बेहतर और कोई नहीं हो सकता था।

 

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आपने अभिनय से फ़िल्मों में करियर शुरू किया था। फिर कैमरे के पीछे कैसे पहुंचे?

सिनेमा में मेरा पहला एक्सपोज़र मणि रत्नम के साथ अंजली के ज़रिए हुआ था। मैं बाल कलाकारों में से एक था। उस वक़्त मैं फ़िल्म निर्माण की प्रक्रिया की ओर आकर्षित हुआ था। कैमरे के सामने अभिनय करना मेरे लिए मुश्किल नहीं था। उसके बाद मेरे पास कई फ़िल्म आयीं, जिनमें अभिनय करना था, लेकिन मुझे 'बिहाइंड द सींस' क्या हो रहा है, उसमें अधिक मज़ा आता था। मैंने फोटोग्राफी में स्पेशलाइज़ेशन किया है तो इसलिए मैंने वो चुना। यह असल में ख़ुद को पहचानने जैसा है। यह उस तरह नहीं है कि एक्टिंग अच्छी कर लेते हो तो एक्टिंग में ही जाओ।

दक्षिण भारतीय और हिंदी दर्शक की सिनेमाई समझ के बीच क्या अंतर देखते हैं?

हमारे देश की यही तो ख़ूबसूरती है। हर स्टेट की अलग संस्कृति है और लोगों के सोचने का तरीक़ा भी बहुत अलग है। लेकिन, हमारा देश एक है, इसको लेकर सभी की सोच एक जैसी है। कैप्टन विक्रम बत्रा पर फ़िल्म बनाना मेरे लिए इसलिए ख़ास रहा... मैं तेलुगु भाषी हूं। चेन्नई में पला-बढ़ा हूं और काम मैंने मुंबई में किया। मेरी आख़िरी फ़िल्म शाह रुख़ ख़ान के साथ अशोका है।

चार बंगला में रहता था। (हंसते हुए) तब मेरी हिंदी थोड़ी बेहतर थी। अभी और सीख लूंगा। विक्रम बत्रा हिमाचल प्रदेश से हैं तो मेरे लिए यह फ़िल्म करते वक़्त यह ज़रूरी था कि उत्तर भारत के सोचने के तरीक़े को पकड़ूं। वो कैसे सोचते हैं और कैसे रिएक्ट करते हैं। उससे भी अधिक, फ़िल्म की घटनाएं नब्बे के दौर में हो रही हैं। जिन लोगों ने फ़िल्म देखी है, उन्होंने मुझसे आकर कहा कि लगता नहीं यह फ़िल्म किसी दक्षिण भारतीय ने बनायी है, तो यह मेरे लिए किसी कॉम्प्लीमेंट से कम नहीं था। 

 

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आपको नहीं लगता कि पृष्ठभूमि को देखते हुए यह फ़िल्म सिनेमाघरों में रिलीज़ होनी चाहिए थी?

मेरी यही इच्छा थी। इसका स्केल, टैरेन, वॉर... इससे अपने आप ही एक लार्ज फॉर्मेट बन जाता है। हम लोगों ने भी वैसे ही शूट किया था कि इस फ़िल्म के लिए आख़िर क्या-क्या चाहिए। लेकिन, जो हालात हैं, उसे देखकर हमें ख़ुशी है अमेज़न प्राइम पर आ रही है, क्योंकि पिक्चर लोगों तक पहुंचना ज़रूरी है। लोग सिनेमाघरों तक शायद ना जाएं, लेकिन हमें यह सुनिश्चित करना है कि स्टोरी बतायी जाए। ओटीटी का अपना अलग जादू है। ज़्यादा लोगों तक दुनियाभर में पहुंचेगी। 

हिंदी फ़िल्मों के निर्देशन को लेकर आगे क्या योजनाएं हैं?

इस फ़िल्म की शुरुआत में मुझे जो एक्साइटमेंट था। ऐसा काम मैंने पहले नहीं किया था। इस एक्साइटमेंट के साथ जो भी प्रोजेक्ट आएगा, मैं उसे करूंगा।

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