'तूफान' बनाने वाले राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने कहा- हर इंसान की सबसे बड़ी लड़ाई खुद से होती है
हमने इसे फिल्माने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस फिल्म के जरिए मुझे जिंदगी के बारे में काफी कुछ सीखने का मौका मिला। संघर्ष की आग को पार करके कोई किरदार परफेक्ट बनता है। हर इंसान की सबसे बड़ी लड़ाई खुद से होती है।
मुंबई ब्यूरो, प्रियंका सिंह। ‘भाग मिल्खा भाग’ के बाद राकेश ओमप्रकाश मेहरा बाक्सिंग के खेल पर बनी ‘तूफान’ लेकर आए। अमेजन प्राइम वीडियो पर रिलीज हो चुकी इस फिल्म के निर्देशक व सह-निर्माता राकेश ही हैं। उनसे प्रियंका सिंह की बातचीत के अंश...
पहली बार आपकी फिल्म सीधे ओटीटी पर रिलीज हुई...
(मुस्कुराते हुए) हां, यह अच्छी बात है कि इस तरह दुनिया के कई देशों तक फिल्म पहुंची। लोग मुश्किल वक्त से गुजर रहे थे। अब परिस्थितियां थोड़ी काबू में हैं। यही वजह है कि हम फिल्म को रिलीज कर पा रहे हैं। अब मोबाइल की छोटी स्क्रीन बहुत बड़ी हो गई है, जिससे कंटेंट कई देशों तक पहुंच रहा है।
आपके हिसाब से ‘तूफान’ बाक्सिंग के अलावा और क्या कहना चाहती है?
(थोड़ा सोचकर) हर किसी की जिंदगी में पहले से ही मौजूद घाव कोरोना काल में और गहरे हो गए। यह फिल्म उन घावों पर मलहम लगाने का काम करेगी। बाक्सिंग फिल्म का अहम हिस्सा है, लेकिन प्रेम कहानी और ड्रामा भी इसका बड़ा पार्ट है। इस फिल्म को रोमांस ड्रामा स्पोट्र्स फिल्म कहा जा सकता है। मेरे लिए तूफान शब्द का मतलब खुद तूफान बन जाने से है। आपके आगे जब भी मुश्किलों के पहाड़ खड़े हो जाएं, तो तूफान बनकर उन्हें तोड़कर निकल जाएं। तूफान हर किसी के अंदर होना चाहिए। इस फिल्म से हर उम्र के लोगों को संदेश मिलेगा कि कोई मुसीबत इतनी बड़ी नहीं होती है कि उससे मुंह छुपाया जाए। हर मुसीबत का सामना करें।
आपने कहा था कि ‘रंग दे बसंती’ और ‘भाग मिल्खा भाग’ दोनों फिल्में बनाने में जितनी मेहनत लगी, उतनी अकेले ‘तूफान’ बनाने में लगी। वे क्या चुनौतियां रहीं?
यह टच (स्पर्श) वाला खेल है। दो खिलाड़ी आमने-सामने होते हैं। घूंसे मारने के साथ घूंसे खाने भी होते हैं। बक्सिंग का खेल यह भी बताता है कि आपमें मार खाने की कितनी क्षमता है। आखिर तक वही खड़ा रहता है, जो ज्यादा दर्द सह सकता है। मेरी सोच यही थी कि फरहान अख्तर के किरदार के सामने भी पेशेवर बाक्सर्स हों। वह सभी बाक्सर्स अपनी-अपनी वेट कैटेगरी में चैंपियंस थे। क्लाइमेक्स की फाइट में अमेरिका के प्रोफेशनल बाक्सर नजर आ रहे हैं। जब सामने वाले का स्तर ऊपर होता है, तो अपना स्तर ऊपर करना ही पड़ता है। शूटिंग स्टाइल, अभिनय एक हद तक ही काम आता है। यह बात मैंने ‘भाग मिल्खा भाग’ के दौरान ही सीख ली थी। इस प्रक्रिया में समझ आया कि यह अंडरडाग का खेल है। बाक्सर्स ज्यादातर क्यूबा, रशिया, अमेरिका के ब्रुकलीन, हरियाणा तथा भारत के पूर्वोत्तर राज्यों से आते हैं। वे इस खेल के जरिए खुद को एक्सप्रेस करते हैं। अंदर का दर्द, गुस्सा, जिंदगी से जंग सब रिंग के अंदर फाइट में नजर आती है। उन भावों को कैमरे पर सच्चाई से कैद करना मुश्किल रहा।
खिलाड़ी के संघर्ष को फिल्म का अहम हिस्सा बनाना कितना मायने रखता है?
किसी भी खिलाड़ी की आत्मकथा पढ़ें, तो वह संघर्ष जरूर नजर आएगा। मैंने यहां और विदेश के कई बाक्सर्स से बात की। उनके अंदर जो जुनून था, वह समझना मेरे लिए बहुत जरूरी था, ताकि उसे मैं अपने किरदार को दे सकूं। जब वह बात समझ में आ गई, तो हमने इसे फिल्माने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस फिल्म के जरिए मुझे जिंदगी के बारे में काफी कुछ सीखने का मौका मिला। संघर्ष की आग को पार करके कोई किरदार परफेक्ट बनता है। हर इंसान की सबसे बड़ी लड़ाई खुद से होती है।
‘दिल्ली-6’ के बाद आपने किसी फिल्म की स्क्रिप्ट नहीं लिखी। फिलहाल कुछ लिख रहे हैं?
हां, लेखन का काम लगातार चल रहा है। कोरोना की वजह से लिखने का समय मिला। इस दौरान लिखने का काम चौगुना हो गया था। तीन स्क्रिप्ट्स शूटिंग के लिए तैयार हैं। उसमें से दो मैंने ही लिखी हैं। माहौल सामान्य होने पर मौका मिलते ही उन कहानियों की शूटिंग शुरू करेंगे।