फिल्मों के जरिए लोगों ने फैमिली के महत्व को पहचाना, सिनेमा में मुस्कुराती पारिवारिक कहानियां

कोरोना काल में परिवार की अहमियत को हमने शिद्दत से महसूस किया है। सिनेमा ने पारिवारिक मूल्यों को हमेशा तवज्जो दी है। दहेज खानदानस्वर्ग बीवी हो तो ऐसी से लेकर हम आपके है कौन हम साथ साथ हैं समेत अनेक पारिवारिक फिल्मों ने बॉक्स आफिस पर खूब सफलता बटोरी है।

By Ruchi VajpayeeEdited By: Publish:Fri, 14 May 2021 05:07 PM (IST) Updated:Fri, 14 May 2021 05:07 PM (IST)
फिल्मों के जरिए लोगों ने फैमिली के महत्व को पहचाना, सिनेमा में मुस्कुराती पारिवारिक कहानियां
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स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई। कोरोना काल में परिवार की अहमियत को हमने शिद्दत से महसूस किया है। हमारे सिनेमा ने पारिवारिक मूल्यों को हमेशा से तवज्जो दी है। 'दहेज', 'खानदान','स्वर्ग', 'बीवी हो तो ऐसी' से लेकर 'हम आपके है कौन', 'दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे', 'हम साथ साथ हैं', 'थ्री इडियट्स', 'बाहुबली' समेत अनेक पारिवारिक फिल्मों ने बॉक्स आफिस पर खूब सफलता बटोरी है। 'हम आपके हैं कौन' सिनेमाघरों में सर्वाधिक दर्शक संख्या हासिल करने वाली फिल्म का रिकॉर्ड कायम कर चुकी है। उसके बाद 'बाहुबली' का नंबर आता है। विश्व परिवार दिवस (15 मई) के अवसर पर पारिवारिक फिल्मों के ट्रेंड, उनके महत्व और सफलता की वजहों की पड़ताल कर रही हैं स्मिता श्रीवास्तव...

सामाजिक बदलावों का असर सिनेमा में भी देखने को मिलता है। पहले घर के बंटवारे, दो भाइयों के बीच उनकी पत्नियों की वजह से बढ़ता मनमुटाव या तेज तर्रार मॉर्डन बहू का अपने सीधे-सादे सास-ससुर को प्रताडि़त करना जैसे पारिवारिक मामलों को देखकर कई बार आंखें भर आती थीं। दिल कचोटने लगता था।वक्त बदलने के साथ फिल्मों के विषय में बदलाव आया, लेकिन पारिवारिक फिल्मों को बनाने का ट्रेंड हर दौर में जारी रहा। ईद के मौके पर रिलीज सलमान खान कीफिल्म 'राधे- योर मोस्ट वांटेड भाई' भी पारिवारिक सिनेमा है।

पारिवारिक फिल्मों के पक्ष में आर्थिक समीकरण:

फिल्म समीक्षक जय प्रकाश चौकसे कहते हैं, 'हमारे यहां धार्मिक फिल्मों के बाद जब सामाजिक फिल्में बननी शुरू हुईं तो परिवार से संबंधित बहुत सारी फिल्में बनीं। ताराचंद बडज़ात्या के परिवार ने तो विवाह के इर्दगिर्द काफी फिल्में बनार्ईं। वी शांताराम, राज कपूर आर महबूब खान ने ज्यादातर सामाजिक और पारिवारिक फिल्में ही बनाईं। परिवार और विवाह भारतीय फिल्मों का सेंट्रल थीम रहा, क्योंकि, भारतीय सिनेमा का बड़ा दर्शक वर्ग मध्यम वर्गीय है। पुरानी फिल्मों को देखें तो 'घर परिवार' जैसी अनेक फिल्में बनी है। दक्षिण भारत में सबसे ज्यादा फिल्में परिवार को लेकर बनी हैं। दूसरा हमारे यहां अभी भी औरतें अकेले फिल्म देखने नहीं जाती हैं। उनके साथ पूरा परिवार जाता है। आर्थिक समीकरण उसके फेवर में होते हैं।

कांसेप्ट स्पष्ट होना चाहिए

पारिवारिक फिल्मों के दर्शक बच्चों से लेकर बुजुर्ग होते हैं। ऐसे में फिल्म बनाते और लिखते समय फैमिली ऑडियंस का खास ध्यान रखना पड़ता है। पारिवारिक फिल्मों के लेखन के संबंध में 'सिंह इज किंग', 'वेलकम', 'वेलकम

बैक', 'मुबारकां' जैसी हिट फिल्में दे चुके निर्देशक और लेखक अनीस बज्मी कहते हैं, 'मुझे लगता है दुनिया का सबसे मुश्किल काम फिल्म लिखना है और सबसे आसान काम भी फिल्म लिखना है। दरअसल, आपको कांसेप्ट समझ आना जरूरी है।आपको स्पष्टता होनी जरूरी है कि आपकी टारगेट ऑडियंस क्या है? किसके लिए बना रहे तो फिर तो आसान है। जैसे मैं फिल्म बनाता हूं तो स्पष्ट रहता हूं कि फैमिली ऑडियंस के लिए बना रहा हूं। उसकी वजह से मैं कोई द्विअर्थी संवाद

नहीं रखता हूं। कोई ऐसे दृश्य नहीं दिखाता हूं जिससे परिवार आकवर्ड महसूस करे, क्योंकि मैं खुद परिवार में रहता हूं। आज इतनी फिल्में बनाने के बाद लोगों को यकीन है कि मेरी फिल्म देखते हुए उन्हें असहज नहीं होना पड़ेगा।

फिल्मकार की सोच ही है उसका मापदंड:

हिंदी सिनेमा का माहौल बदला है, लेकिन सूरज बडज़ात्या अपने ढांचे में ही काम कर रहे हैं। उनकी फिल्मों में परिवार के प्रति संदेश होता है। आज के दौर से मेल खाने के बाबत उनका कहना रहा है, 'मुझे इसी तरह की फिल्में बनानी आती

हैं। मेरा मानना है कि हर फिल्म के दर्शक हैं। पैसा खर्च करने से फिल्म पसंद आएगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है। आज के समय में हर किस्म की फिल्में चल रही हैं। फिल्ममेकर जो बनाना चाहता है, वही उसका मापदंड है। मेरे टाइप की फिल्मों के लिए हर वर्ग के दर्शक हैं। बाकी के संग ऐसा नहीं है। मिसाल के तौर पर आतंकवाद। उसके लिए दर्शक सीमित होते हैं। जहां पारिवारिक फिल्मों की बात आती है, उसके लिए सभी तैयार रहते है। हां यह है कि मैंने ज्वाइंट फैमली

पर फिल्में बनाईं। अब मामला थोड़ा अलग है।

फिल्में ऐसी बनाएं, जो परिवार देखे

अब न्यूक्लियर फैमिली हो गई है।इसके बावजूद परिवार में माता-पिता को अहम माना जाता है। मेरे दादा जी बताते थे कि हमारे समय में हम अपने बच्चों को प्यार नहीं कर सकते थे पिता के सामने। दादा का ही हक रहता था पोते को प्यार करने का। आज ऐसा नहीं है। मेरा बेटा मुझसे बेझिझक सारी बातें करता है। इसका मतलब यह नहीं है कि प्यार और सम्मान कम हो गया है। मैं आगे भी इसी तरह की फिल्में बनाऊंगा। फिल्में ऐसी बनाएं, जो परिवार देखे आयुष्मान खुराना अभिनीत फिल्म 'ड्रीमगर्ल' बॉक्स आफिस पर सफल रही थी।

कोरोना काल में समझा परिवार का महत्व

फिल्म के निर्देशक राज शांडिल्य कहते हैं, 'हिंदुस्तान का मतलब ही परिवार है। पारिवारिक वैल्यूज हैं। हमने माता-पिता और गुरुओं से जो चीजें सीखी हैं, अगर उन्हें ही पर्दे पर दिखा दें तो इससे बड़ी बात क्या होगी। महामारी में परिवार के साथ बैठकर लोगों ने 'रामायण', 'महाभारत' धारावाहिक देखे हैं। हॉरर, एक्शन, यूथ सेंट्रिक फिल्में कभी भी देखी जा सकती हैं, लेकिन पारिवारिक फिल्मों का मजा तभी है, जब पूरा परिवार साथ बैठा हो। कोरोना काल में लोग जो परिवार से दूर हैं, वह इस वक्त परिवार का महत्व समझ रहे हैं। ऐसे में आने वाले दिनों में पारिवारिक फिल्मों का महत्व बढ़ेगा। मैं आने वाले दिनों में भी ऐसी ही फिल्में बनाऊंगा, जिनमें फैमिली वैल्यूज निकलकर आ सकें। मैं अपने परिवार के बिना कुछ नहीं हूं। 'हम आपके हैं कौन', 'हम साथ-साथ हैं' जैसी फिल्में देखकर बड़ा हुआ हूं। जब 'ड्रीमगर्ल' फिल्म बनाई थी तो सूरज बडज़ात्या जी का मैसेज आया था कि इतने सालों बाद एक पारिवारिक फिल्म देखी है और बहुत मजा आया। ऐसी फिल्में बनाते रहें। पारिवारिक फिल्में बनाना भी आसान काम नहीं है।

'सिनेमा की कोशिश अच्छाइयों को बरकरार रखने की होती है

सिनेमा की भूमिका बड़ी है खबरें हैं कि 'चीनी कम', 'पा' और 'की एंड का' जैसी फिल्मों के निर्देशक आर बाल्की अब सनी देओल और श्रुति हासन के साथ फिल्म बनाने की तैयारी में हैं। यह फिल्म लंदन की पृष्ठभूमि पर आधारित एक पारिवारिक ड्रामा फिल्म होगी। जिसमें एक बेटी और उसके माता-पिता के साथ उसके रिश्तों के भावनात्मक पहलू दिखाए जाएंगे। वहीं अर्जुन कपूर अभिनीत फैमिली ड्रामा 'सरदार का ग्रैंडसन' नेटफ्लिक्स पर 18 मई को स्ट्रीमिंग के लिए उपलब्ध होगी। यह फिल्म पोते द्वारा अपनी दादी के सपने को पूरा करने के संबंध में है। सिनेमा के जरिए सभ्यता और संस्कृति को संरक्षित करने की बात पर 'बद्रीनाथ की दुल्हनिया' और 'हंप्टीशर्मा की दुल्हनिया' के निर्देशक शशांक खेतान कहते हैं, 'सिनेमा की कोशिश अच्छाइयों को बरकरार रखने की होती है।

हर परिवार में कई रीति जो लंबे समय से चली आ रही है, उसे कभी-कभी लोग मैनीपुलेट करने लगते हैं। मैं अपनी फिल्मों में कोशिश करता हूं कि अच्छाइयां दिखाने के साथ ही रिश्तों में जो जटिलताएं हैं, उन्हें भी दिखाऊं, ताकि लोग उन्हें समझकर सुलझाने का भाव मन में ला सकेें। मुझे लगता है कि चीजों को सही रूप में दर्शाना ही सिनेमा का काम है ताकि आप उस समस्या को सुलझा सको और एक अच्छी फैमिली क्रिएट कर सको। बॉक्स परिवार से जुड़ाव का एहसास बड़ा है। फिल्म 'गैंग ऑफ सरदार' का हिस्सा बनने को लेकर अर्जुन कपूर कहते हैं, 'इस माहौल में पारिवारिक फिल्में एक हल्कापन महसूस कराती हैं। आजकल पारिवारिक फिल्में ज्यादा नहीं आती हैं। जब मेरे पास इस फिल्म का ऑफर आया था तो मैं भी भावुक हुआ था। कहीं न कहीं इस विषय से कनेक्ट कर रहा था।

दो साल पहले मैंने यह फिल्म साइन की थी। आज का माहौल ऐसा है कि परिवार का महत्व और भी समझ आने लगा है। हर फिल्म का अपना एक भाग्य होता है। इस वक्त लोगों को एक इमोशनल आउटलेट की जरूरत है। कई बार रोना भी अच्छी चीज होती है। फिल्म अगर आपको प्यार से भी रुला दे तो वह आप तक अपने इमोशन को पहुंचाने में सफल रही है। फिल्म अगर दो पल के लिए भी अपने परिवार से कनेक्ट करा दे तो यह बहुत बड़ी बात होगी इस फिल्म के लिए। अगर यह फिल्म चेहरे पर मुस्कान ले आई तो मेरे लिए इस मुश्किल समय में यह फिल्म ब्लॉकबस्टर है। 

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