हिंदी दिवस: साहित्य और सिनेमा दोनों में ही रहा राही मासूम रज़ा का विशिष्ट योगदान

बता दें कि यह कम ही लोगों को पता है कि राही मासूम रज़ा अपनी ज़िंदगी के आखिरी वक्त में कैंसर से पीड़ित थे लेकिन, उनकी कलम नहीं थमी, वह लिखते रहे।

By Hirendra JEdited By: Publish:Thu, 15 Mar 2018 03:49 PM (IST) Updated:Fri, 14 Sep 2018 10:25 AM (IST)
हिंदी दिवस: साहित्य और सिनेमा दोनों में ही रहा राही मासूम रज़ा का विशिष्ट योगदान
हिंदी दिवस: साहित्य और सिनेमा दोनों में ही रहा राही मासूम रज़ा का विशिष्ट योगदान

मुंबई। 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाता है। बहुत कम लोग हैं जिन्होंने साहित्य और सिनेमा इन दो अलग-अलग विधाओं में भी अपनी छाप छोड़ी। राही मासूम रज़ा उनमें से एक रहे। महज 64 वर्ष की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कहने से पहले उन्होंने अपने काम से एक ऐसी दुनिया रच दी थी कि उसके जादू से कला, साहित्य और सिने प्रेमी आज भी नहीं निकल पाया है।

राही मासूम रज़ा 1 सितंबर 1927 को उत्तरप्रदेश के गाजीपुर में जन्में। उनके पिता सैयद बशीर हसन आब्दी नगर के मशहूर वकील थे। राही के चाचा वज़ीर हुसैन का शुमार अच्छे शायरों में था, लिहाजा शायरी और लेखनी उन्हें विरासत में मिली थी। साल 1954 तक वह गाजीपुर में रहे। उसके बाद वह इलाहाबाद चले गए। उसके बाद अलीगढ़ और अंत में मुंबई के बाशिंदे हो गए, जहां वे जीवन के आखिरी सांस तक रहे।

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जब देश की आज़ादी के दौरान हिंदू-मुस्लिम दंगे और देश का विभाजन हो रहा था तो इसका एक गहरा असर उन पर भी रहा और उनके लिखे रचनाओं में भी यह असर झांकता है! उपन्यासकार दयानंद पांडेय बताते हैं कि- “राही मासूम रज़ा का उपन्यास ‘आधा गांव’ जब आया था तब वो पहले उर्दू में ही आया लेकिन, उसे कोई छापने के लिए तैयार नहीं हुआ! तब वो बाद में हिंदी में अनुवादित होकर पहले हिंदी में छपा फिर जाकर वो उर्दू में भी छपा। पाकिस्तान पर हिंदी में बहुत कम लिखा गया है और 'आधा गांव' इस लिहाज़ से एक बहुत ही महत्वपूर्ण किताब है। वो विवादित भी बहुत रही!’’

बहरहाल, किताबों के अलावा उन्होंने 300 से ज्यादा फ़िल्मों की पटकथा और डायलॉग्स लिखे, उनकी लिखी ‘गोलमाल’ (1979) और ‘कर्ज’ (1980) जैसी फ़िल्में आज भी याद की जाती हैं! टीवी धारावाहिकों में ‘महाभारत’ के अलावा ‘नीम का पेड़’ भी उनका एक लोकप्रिय शो रहा। संवाद लेखन में उन्हें हिंदी फ़िल्मों ‘मिली’ (1975), ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’ (1978), और ‘लम्हे’ (1991) के लिए फ़िल्मफेयर अवार्ड से भी नवाज़ा गया था।  

गीतकार और लेखक जावेद अख्तर राही मासूम रज़ा को याद करते हुए कहते हैं कि- “वो उन चुनिंदा इन्टलेक्ट और स्कोलर में से रहे जिन्होंने सिनेमा के लिए भी काम किया! मैंने वर्षों उनकी पोएट्री पढ़ी हैं और यह कह सकता हूं कि वो कमाल हैं! उन्होंने सिर्फ एक ही फ़िल्म ‘अलाप’ के गाने लिखे हैं लेकिन, मैं समझता हूं उन्हें और भी गाने लिखने चाहिए थे।’’

उपन्यासकार दयानंद पांडेय के मुताबिक- "राही मासूम रज़ा का सबसे बड़ा काम है- 'महाभारत'। क्योंकि उसकी पटकथा जो थी वो अद्भुत थी। क्योंकि अगर वह कोई और लिखता तो उस पर बहुत विवाद हो सकता था! आप सब जानते हैं कि पांडव भाइयों में से कोई वायु पुत्र था तो कोई इंद्र देव का पुत्र था तो कोई धर्मराज पुत्र! लेकिन, यह राही मासूम रज़ा ही थे जिन्होंने हर जगह पांडवों के लिए कुंती पुत्र का प्रयोग किया! धृतराष्ट्र से लेकर विदुर तक उन्हें कुंती पुत्र ही कह कर संबोधित करते हैं!" दयानंद पांडेय के मुताबिक- "ऐसा करके राही मासूम रज़ा ने कई विवादों को रोक दिया। साथ ही मां के नाम को भी गरिमा दी। उनके लिखे का जादू ऐसा है कि महाभारत पढ़ने से ज्यादा आनंद महाभारत देखने में है।"


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बता दें कि यह कम ही लोगों को पता है कि राही मासूम रजा अपनी ज़िंदगी के आखिरी वक्त में कैंसर से पीड़ित थे लेकिन, उनकी कलम नहीं थमी। वह लिखते रहे। बीमारी की दशा में भी वह बिस्तर पर नहीं पड़े। निधन के एक दिन पहले उन्हें अस्पताल पहुंचाया गया था। अपने अंतिम दिनों में मासूम मुंबई में अपनी पुत्री मरियम के साथ रहते थे। पत्‍‌नी के इंतकाल के बाद उन्होंने मरियम को मां-बाप दोनों का प्यार दिया। फ़िल्मी दुनिया के अनुभवों पर लिखी राही मासूम रज़ा की किताब- 'सीन-75' में भी उन्होंने कई राज़ खोले हैं! मीडिया और सिनेमा के छात्रों में यह पुस्तक बेहद लोकप्रिय है।

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