पुण्यतिथि पर याद आये भारतीय फ़िल्म के पितामह दादा साहब फाल्के, ऐसे हुई थी मौत

साल 1944 में दादा साहेब फाल्के ने अंतिम बार फ़िल्म बनाने की इच्छा ज़ाहिर की थी। उस समय ब्रिटिश राज था और फ़िल्म बनाने के लिए फ़िल्मकारों को लाइसेंस लेना पड़ता था। जनवरी 1944 में दादा साहेब ने..

By Hirendra JEdited By: Publish:Sat, 16 Feb 2019 12:26 PM (IST) Updated:Sat, 16 Feb 2019 12:26 PM (IST)
पुण्यतिथि पर याद आये भारतीय फ़िल्म के पितामह दादा साहब फाल्के, ऐसे हुई थी मौत
पुण्यतिथि पर याद आये भारतीय फ़िल्म के पितामह दादा साहब फाल्के, ऐसे हुई थी मौत

मुंबई। भारतीय फ़िल्म के पितामह दादा साहब फाल्के की आज 75 वीं बरसी है। 16 फरवरी 1944 को उनका निधन हुआ था। लेकिन, आज भी वो एक मिसाल की तरह याद किये जाते हैं। दादा साहब फाल्के का जन्म 30 अप्रैल 1870 को त्रयंबकेश्वर, नासिक में एक मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनका मूल नाम धुंडीराज गोविंद फाल्के था। उन्हें बचपन से ही कला के प्रति एक समर्पण भाव था।

15 साल की उम्र में उन्होंने उस ज़माने में मशहूर मुंबई के जे.जे स्कूल ऑफ़ आर्ट्स में दाखिला लिया। फिर उन्होंने महाराजा सायाजीराव यूनिवर्सिटी में दाखिला लेकर चित्रकला के साथ फोटोग्राफी और स्थापत्य कला की भी विधिवत शिक्षा ली। गौरतलब है कि भारतीय सिनेमा में उनके योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने उनकी 25 वीं पुण्यतिथि पर यानी साल 1969 में उनके नाम पर फाल्के अवॉर्ड शुरू किया। भारतीय सिनेमा का यह सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार है जो उन हस्तियों को दिया जाता है, जो सिनेमा जगत में उल्लेखनीय योगदान देते हैं। साल 1969 में पहला दादा साहब फाल्के पुरस्कार अभिनेत्री देविका रानी को दिया गया था। पिछले साल यह प्रतिष्ठित पुरस्कार विनोद खन्ना को दिया गया है! दादा साहब के नाम पर भारत सरकार ने साल 1971 में डाक टिकट भी जारी किया था!

पहली मूक फ़िल्म ‘राजा हरिश्चंन्द्र’ के बाद दादासाहब ने दो और पौराणिक फ़िल्में ‘भस्मासुर मोहिनी’ और ‘सावित्री’ बनाई। 1915 में अपनी इन तीन फ़िल्मों के साथ दादासाहब विदेश चले गए। लंदन में इन फ़िल्मों की बहुत प्रशंसा हुई। कोल्हापुर नरेश के आग्रह पर 1938 में दादासाहब ने अपनी पहली और अंतिम बोलती फ़िल्म ‘गंगावतरण’ बनाई। फाल्के के फ़िल्म निर्माण के प्रयास और फ़िल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ के निर्माण पर मराठी में एक फीचर फ़िल्म 'हरिश्चंद्राची फॅक्टरी' 2001 में बनी, जिसे देश विदेश में सराहा गया।

साल 1944 में दादा साहेब फाल्के ने अंतिम बार फ़िल्म बनाने की इच्छा ज़ाहिर की थी। उस समय ब्रिटिश राज था और फ़िल्म बनाने के लिए फ़िल्मकारों को लाइसेंस लेना पड़ता था। जनवरी 1944 में दादा साहेब ने लाइसेंस के लिए अंग्रेज़ी हुकूमत को एक चिट्ठी लिखी। 14 फ़रवरी 1944 को जवाब आया कि आपको फ़िल्म बनाने की इजाज़त नहीं मिल सकती। कहा जाता है कि उस दिन उन्हें ऐसा सदमा लगा कि दो दिन के भीतर ही वो चल बसे। लेकिन, आज भी हिंदी सिने जगत दादा साहब फाल्के का नाम पूरे सम्मान से लेता है और भारतीय सिनेमा के आकाश पर उनका नाम सुनहरे अक्षरों में दर्ज़ है।

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