Constitution Day 2021: इन फिल्मों में गणतंत्र के मूल्यों को बड़ी खूबसूरती से पिरोया गया है
विक्की कौशल अभिनीत ‘उरी- द सर्जिकल स्ट्राइक’ 2019 अजय देवगन अभिनीत ‘भुज- द प्राइड आफ इंडिया’ 2021 जैसी फिल्में इन्होंने न सिर्फ बाक्स आफिस पर सफलता के कीर्तिमान रचे बल्कि प्रत्येक भारतीय के हृदय में संवैधानिक मूल्यों व देशभक्ति की भावना को भी मजबूत किया।
कीर्ति सिंह, मुंबई ब्यूरो। भारतीय फिल्मों की पटकथा में जैसे पिरो दी गई है संविधान की प्रस्तावना। इनमें सहज ही महसूस किया जा सकता है गणतंत्र के मूल्यों को सहेजने का भाव तथा सत्यमेव जयते की भावना। आज संविधान दिवस पर कीर्ति सिंह का आलेख....
1949 में आज ही संविधान सभा ने भारतीय संविधान को अंगीकार किया था। हमारे संविधान निर्माताओं ने यह सुनिश्चित किया कि जाति व धर्म के आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहींकिया जा सकता। अस्पृश्यता को अपराध घोषित किया गया। साथ ही यह नीति आदर्श सामने रखा गया कि समाज में सभी वर्ग बराबर के सम्मान के
अधिकारी हैं। स्वाधीनता प्राप्ति का लक्ष्य हासिल होने के बाद संविधान की प्रस्तावना में समाहित मूल आदर्श समाजवाद, पंथ निरपेक्षता, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक न्याय, प्रतिष्ठा व अवसर की समता व बंधुता इत्यादि भारतीय सिनेमा का आधार बने। भारतीय सिनेमा सिर्फ मनोरंजन का पर्याय नहींहै, बल्कि सामाजिक आकांक्षाओं
को प्रर्तिंबबित करने का माध्यम होने के साथ ही सामाजिक व देशहित से जुड़े अहम मुद्दों पर विमर्श का मंच भी है।
आजादी से पूर्व धार्मिक, सामाजिक कथानक की पृष्ठभूमि में गढ़ी गई ‘अछूत कन्या’ 1936 व ‘नीचा नगर’ 1946 जैसी फिल्मों ने जहां समाज में जात-पात जैसी सामाजिक बुराइयों के विरोध की बात की, वहीं अमीरी-गरीबी का भेद पाटने की जरूरत को भी स्वर दिए। हिमांशु राय व देविका रानी की फिल्म ‘अछूत कन्या’ में एक ब्राह्मण लड़के व अछूत लड़की की प्रेमकहानी उस दौर में अस्पृश्यता के खिलाफ एक बड़ा संदेश थी। बाद के वर्षों में बिमल राय ने इसी विषय पर सुनील दत्त व नूतन को लेकर फिल्म ‘सुजाता’ 1959 बनाई। यह फिल्म बाक्स आफिस पर सफल रही, जिसकी एक स्वाभाविक वजह थी कि वैचारिक उन्नति की राह पर बढ़ते भारतीय दर्शकों ने फिल्म से जुड़ाव महसूस किया।
पारिवारिक व सामाजिक फिल्मों के लिए प्रख्यात दिवंगत यश चोपड़ा ने अपनी फिल्मों में संविधान में वर्णित सांप्रदायिक सद्भाव व बंधुता के संदेश को खूबसूरत अंदाज में पिरोया। उनकी फिल्म ‘धूल का फूल’ 1959 के लिए साहिर लुधियानवी का लिखा गीत ‘तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा’ व एक अन्य फिल्म ‘धर्मपुत्र’ 1961 में किरदार डा. अमृत राय का डायलाग, ‘समाज को इंसान ने बनाया है, समाज ने इंसान को नहींबनाया’, उपरोक्त आदर्र्शों की सिनेमाई अभिव्यक्ति हैं। राज कपूर (जागते रहो, 1956), बी. आर. चोपड़ा (नया दौर, 1957) गुरुदत्त (प्यासा, 1957), महबूब खान (मदर इंडिया, 1957), श्याम बेनेगल (मंथन, 1976) जैसे फिल्मकारों ने भी अपनी फिल्मों में समाज में ऊंच-नीच, अमीरी-गरीबी का भेद, वैमनस्य मिटाने व सद्भाव स्थापित करने के विचारों प्रमुखता से पिरोया।
1976 में संविधान संशोधन के जरिए प्रस्तावना में समाजवाद व पंथ निरपेक्षता शब्द जोड़े गए। उस दौर में बनी फिल्मों में इन आदर्र्शों की व्यापक झलक नजर आती है। उसी दौर में सुपरस्टार अमिताभ बच्चन का उदय हुआ। एंग्री यंग मैन की छवि में ‘जंजीर’ 1973, ‘कुली’ 1983 जैसी अनेक हिट फिल्मों में वह समाज के वंचित तबके के नायक बनकर पूंजीपति वर्ग से अपने हक की मांग करते दिखे। दर्शकों को उनके गुस्से में अपना आक्रोश नजर आया। गूढ़ विषयों को उठाने के लिए चर्चित राकेश ओमप्रकाश मेहरा (रंग दे बसंती, 2006), प्रकाश झा (मृत्युदंड, 1997 व आरक्षण, 2011) जैसे फिल्मकारों ने शिक्षा व सामाजिक न्याय के विचारों को अभिव्यक्ति दी, वहीं शिमित अमीन (चक दे इंडिया, 2007), अमित मासुरकर (न्यूटन, 2017) जैसे फिल्मकारों ने क्रमश: अवसर की समता मिलने पर इतिहास रचने के स्त्रियों के हौसले व लोकतंत्र में मतदान की अहमियत को रेखांकित किया।
इन फिल्मों के साथ ही देशभक्ति के विचार सिनेमा को सतत गति देते रहे। आतंकवाद पर बनी मणिरत्नम निर्देशित ‘रोजा’ 1997 जैसी फिल्में हों या बाह्य आक्रमण से देश की रक्षा व संप्रुभता की खातिर मरमिटने वाले भारतीय वीर जवानों की कहानी कहती जेपी दत्ता निर्देशित ‘बार्डर’ 1997, ‘एलओसी’ 2003, विक्की कौशल अभिनीत ‘उरी- द सर्जिकल स्ट्राइक’ 2019, अजय देवगन अभिनीत ‘भुज- द प्राइड आफ इंडिया’ 2021 जैसी फिल्में, इन्होंने न सिर्फ बाक्स आफिस पर सफलता के कीर्तिमान रचे, बल्कि प्रत्येक भारतीय के हृदय में संवैधानिक मूल्यों व देशभक्ति की भावना को भी मजबूत किया।