Interview: युद्ध की दास्तां के साथ मानवीय पहलू दिखाना जरूरी: अभय देओल

सच्ची घटनाओं से प्रेरित शो 1966- द वॉर इन द हिल्स स्ट्रीमिंग के लिए उपलब्ध होगा। लगभग 60 साल पहले भारतीय सैनिकों ने लद्दाख की रक्षा के लिए अदम्य साहस एवं बहादुरी का परिचय दिया था। यह उन 125 सैनिकों की कहानी है जिन्होंने 3000 चीनी सैनिकों का सामना किया।

By Rupesh KumarEdited By: Publish:Fri, 26 Feb 2021 05:20 PM (IST) Updated:Fri, 26 Feb 2021 10:53 PM (IST)
Interview: युद्ध की दास्तां के साथ मानवीय पहलू दिखाना जरूरी: अभय देओल
वेब सीरीज में अभय देओल ने सैन्य अधिकारी की भूमिका निभाई है।

स्मिता श्रीवास्तव, मुंबईl भारतीय सैनिकों के साहसिक और हैरतअंगेज कारनामों को दर्शाने में फिल्ममेकर खासी दिलचस्पी ले रहे हैं। डिज्नी प्लस हॉटस्टार पर आज से सच्ची घटनाओं से प्रेरित शो '1966- द वॉर इन द हिल्स स्ट्रीमिंग के लिए उपलब्ध होगा। लगभग 60 साल पहले भारतीय सैनिकों ने लद्दाख की रक्षा के लिए अदम्य साहस एवं बहादुरी का परिचय दिया था। यह उन 125 सैनिकों की कहानी है, जिन्होंने हिम्मत के साथ 3000 चीनी सैनिकों का सामना किया। 10 एपिसोड की इस सीरीज का निर्देशन महेश मांजरेकर ने किया है। वेब सीरीज में अभय देओल ने सैन्य अधिकारी की भूमिका निभाई है। फिलहाल वह लॉस एंजिलिस में हैं। उनसे वीडियो कॉल पर बातचीत की स्मिता श्रीवास्तव ने-

आप सत्य घटना से प्रेरित शो कर रहे हैं। ऐसे में किस प्रकार की जिम्मेदारी उन सैनिकों और उनके परिवार के प्रति महसूस करते हैं?

यह शो सच्ची घटना पर आधारित है, लेकिन हमने किरदारों को फिक्शनल बनाया है। सैनिकों का जीवन तो वही है। हमने उनके जीवन में घटित घटनाओं के साथ क्रिएटिव लिबर्टी भी ली है। हमारा शो सिर्फ युद्ध पर फोकस नहीं करता है।

सैनिकों और उनके परिवार पर क्या बीती है, उनके घरेलू हालात कैसे रहे हैं, उन्हें किन अनुभवों से गुजरना पड़ा है?

शो में इन पहलुओं को गहराई से दर्शाया गया है। दोनों ही ओर के सैनिकों की निजी जिंदगी भी होती है। दोनों को एकसमान विभीषिका का सामना करना पड़ता है। हमने उन भावनात्मक पहलुओं को दर्शाया है।

 

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महेश मांजरेकर के साथ शो को लेकर किस प्रकार की चर्चा हुई थी?

मुझे शुरुआत में ही आइडिया बहुत पसंद आया था। यह बॉलीवुड फिल्म नहीं है। हमें यहां पर जबरन गाना या आइटम सांग डालने की जरूरत नहीं थी। हर किरदार इसमें अहम है। महेश जी ने इसे करके दिखाया है। उनका निर्देशन का लंबा अनुभव है। जब कोई इंडिपेंडेंट सिनेमा या नॉन फार्मूला फिल्म नहीं बना रहा था तब भी वह उसमें कोशिश कर रहे थे। उन्होंने कमर्शियल फिल्में भी अलग अंदाज में बनाई थीं। मैं तो उनके साथ काम करने को लेकर एक्साइटेड था। वह काम पर बहुत फोकस्ड रहते हैं।

पहले दिन की शूटिंग का कैसा अनुभव रहा?

(मुस्कुराते हुए) पहले दिन हम लद्दाख में शूट कर रहे थे। वहां पर मैं जीप चला रहा था। उसका ब्रेकडाउन हो जाता है। उसके बाद मैं अपने सैनिक साथ वॉक पर जाता हूं। लद्दाख जाने पर शूटिंग से एक दिन पहले आपको वहां के मौसम के अनुकूल ढलना होता है। इसलिए एक दिन मैं भी होटल के अंदर कमरे में ही रहा। आमतौर पर जब आप दस मिनट वॉक करते हैं तो इतनी सांस नहीं चढ़ती है, जितनी वहां पर चढ़ रही थी। मौसस से तालमेल बिठाना भी बड़ी चुनौती थी।

शो के दरम्यान युद्ध को लेकर क्या समझ बनी और एक्शन करने के अनुभव कैसे रहे?

चीन और भारत के बीच 1962 के युद्ध से सब वाकिफ हैं। हमने उस युद्ध में जीत की कहानी को दिखाया है। यह 125 सैनिकों की कहानी है, जिन्होंने हिम्मत के साथ 3000 चीनी सैनिकों का सामना किया। इसमें काफी एक्शन करने को भी मिला। हमारे एक्शन डायरेक्टर काफी अनुभवी हैं। वह लॉस एंजिलिस में ही रहते हैं। उन्होंने कहानी के साथ किरदारों को समझते हुए एक्शन डिजाइन किया। उनके साथ काम करने में मजा आया। जहां तक कायांतरण की बात है तो हम कलाकार हैं। हमें अपना फिजिकल रूटीन तो रखना ही पड़ता है। फिलहाल मैं चोट से उबर रहा हूं। मैं जितना करना चाहता था, शायद उतना कर नहीं पाया। शो से सेना के बहादुरी के किस्से दुनिया तक आसानी से पहुंचते हैं... सिनेमा बहुत सशक्त माध्यम है। निजी तौर पर मैं युद्ध के खिलाफ हूं। मुझे नहीं लगता कि युद्ध से कोई हल निकल सकता है। इसलिए मेरे लिए यह जरूरी था कि लोगों को बताएं कि इससे किसी का भला नहीं होने वाला है। अगर आप चीजों को डिप्लोमैटिक तरीके से सुलझा पाएं तो बेहतर है। युद्ध ने समस्याएं भी पैदा की हैं। बहरहाल युद्ध से जुड़ी कहानियों को दिखाते समय देशभक्ति के साथ मानवीय एंगल और उसके  प्रभाव को दिखाना जरूरी है, क्योंकि कुछ भी ब्लैक एंड व्हाइट नहीं होता है। ग्रे एरिया भी होता है।

 

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आपने अपनी ही फिल्म 'रांझणा' में दिखाए गए कुछ दृश्यों पर अब आपत्ति जाहिर की है। ऐसा किस कारण से किया?

मैंने बस मुद्दा हाइलाइट किया था कि उसमें समस्या क्या थी। बॉलीवुड की थीम रही है, जहां एक लड़का, लड़की का तब तक पीछा करता है जब तक वो हां न कर दे। यह बात मैंने निर्देशक आनंद एल राय से तब भी की थी जब हम फिल्म बना रहे थे। उन्होंने कहा था कि आखिर में लड़की ही लड़के को मार देती है। मैंने कहा यह अच्छी बात है। मैं हिंसा को बढ़ावा नहीं दे रहा हूं, लेकिन मैं उत्पीडऩ को रोमेंटेसाइज नहीं करना चाहूंगा। बॉलीवुड फिल्मों का फार्मूला होता है कि आप हीरो को ग्लैमराइज करें। हालांकि आनंद की मंशा यह नहीं थी। बाद में वह दिख रहा था। मेरे लिए यह सिर्फ 'राझंणा' की बात नहीं थी, बल्कि यह सोच कहां से आती है, यह महत्वपूर्ण रहा। हम उस मुद्दे को अलग तरह से उठा रहे थे। 'रांझणा' बनकर रिलीज भी हो गई। मैसेज भी ठीक था। ऐसा नहीं था कि हमने उत्पीडऩ को स्वीकार किया।

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