Jharkhand Election 2019: नक्सलियों की गतिविधियां कुंद, अब कुंदा में विकास की बातें Chatra Ground Report

Jharkhand Assembly Election 2019 यहां सड़कों की मांग रेल लाइन की संभावनाएं विकास के अन्य आयामों की चर्चा यहां आम जनमानस में चारो ओर है।

By Alok ShahiEdited By: Publish:Wed, 20 Nov 2019 08:53 PM (IST) Updated:Wed, 20 Nov 2019 08:53 PM (IST)
Jharkhand Election 2019: नक्सलियों की गतिविधियां कुंद, अब कुंदा में विकास की बातें Chatra Ground Report
Jharkhand Election 2019: नक्सलियों की गतिविधियां कुंद, अब कुंदा में विकास की बातें Chatra Ground Report

कुंदा किला से विशेष संवाददाता आशीष झा। नक्सली घटनाओं के लिए कुख्यात चतरा इन दिनों शांत भले ही दिख रहा हो, लोगों का डर कम नहीं हुआ है। खासकर चतरा के दूरदराज कुंदा और प्रतापपुर प्रखंड के सीमावर्ती इलाकों में। इसके बावजूद लोग विकास की बातें कर रहे हैं और उनकी उम्मीदें लगातार बढ़ रही है। सड़कों की मांग, रेल लाइन की संभावनाएं, विकास के अन्य आयामों की चर्चा यहां आम जनमानस में चारो ओर है।

लोग राजनीति की बात से बिदकते हैं लेकिन विश्वास में आते ही सच परोसकर रख देते हैं। 100 से अधिक नक्सल हत्याओं का चश्मदीद रहा यह क्षेत्र अब किसानों की भविष्य की चिंता करता दिखता है, रोजगार के नए अवसरों को तलाश रहा है और सरकार से हजार उम्मीदें पाल रखी हैं। अभी चंद वर्ष पहले इस क्षेत्र के लोग जहां पलायन करना चाहते थे वहीं अब शिकायतें कम हुई हैं।

चतरा मेन रोड में दवा की दुकान पर काम करनेवाले राकेश कुमार बताते हैं कि अब कुंदा आने-जाने में कोई डर नहीं लगता। उनके साथ मौजूद सुजीत के अनुसार शहरों में काम कर रहे लोग भी त्यौहारों में खुशी-खुशी पहुंचते हैं। सुजीत के चाचा रामप्रवेश को प्रधानमंत्री कृषि आशीर्वाद योजना का लाभ मिला है और वह अपने हिस्से की जमीन के कागजातों को दुरुस्त कराने में लगा है ताकि आनेवाले समय में उसे भी लाभ मिल सके। चतरा से कुंदा के रास्ते में अब वह सूनापन नहीं है जो कुछ वर्षों पूर्व तक था। हां शाम ढलने के बाद मूवमेंट सीमित जरूर है।

कुंदा में सांसद प्रतिनिधि जितेंद्र यादव बताते हैं कि लोग अब जनप्रतिनिधियों से अधिक उम्मीदें रखने लगे हैं। सड़क, बिजली, पानी की मांग के साथ-साथ शिक्षा और स्वास्थ्य लोगों की प्राथमिकताओं में शामिल है। दूसरी ओर, पुलिस दावा करती है कि गांवों (सरजामातू, मोहनपुर, हेसातू आदि) में किसानों ने डोडा (अफीम) की खेती छोड़कर गेंदा फूल की खेती को अपना लिया है और कई लोगों ने गेंदा फूल की खेती में नाम भी कमाया है। यहां के लोग गैस सिलेंडर के मिलने से खास तौर पर उत्साहित हैं। किसानों के खाते में राशि आने से परिस्थितियां बदली हैं। मोदी एक बार फिर फैक्टर साबित होने जा रहे हैं।

बड़ी वारदातें बंद, लेकिन जारी हैं छोटी घटनाएं

नक्सलियों के नाम पर बड़ी वारदातें पूरे इलाके में बंद हैं लेकिन छोटी-मोटी घटनाएं पुलिस को सतर्क कर रही हैं। कुछ महीनों पूर्व भी हंटरगंज में नक्सलियों ने एक उग्रवादी की हत्या कर दी थी। मारे गए अंबाखाड़ गांव के बसंत सिंह भोक्ता के उग्रवादी संगठन टीएसपीसी से जुड़े होने की बात कही गई। कुछ इलाकों में ठेका मजदूरों को पीटे जाने की वारदातें भी हुई हैं। इटखोरी में कार्यरत एक पुलिस अधिकारी बताते हैं कि हाल के दिनों में भी कई जगहों पर नक्सलियों से आमना-सामना हुआ है। लेकिन, पुलिस सतर्कता से इस चुनौती को नाकाम कर रही है।

डोडा का केंद्र बन रहा था, रोक की कोशिशें जारी

कहीं ना कहीं नक्सलियों की पनाह में यहां अफीम की खेती जोर पकड़ रही है और यह डोडा का एक बड़ा केंद्र विकसित हो रहा है। अभी कुछ दिनों पूर्व ही कुंदा थाना क्षेत्र के मेदवाडीह गांव निवासी नंदकेसर यादव के पुत्र साहब यादव के घर से तीन क्विंटल डोडा बरामदगी इस बात का संकेत है कि क्षेत्र में अफीम की खेती जारी है। दबी जुबां से लोग भी कबूल करते हैं। फूलों की खेती से लोकनाथ महतो, खुशबू देवी, कौशल्या देवी जैसी महिलाओं को देखकर ऐसा जरूर लगता है कि विकल्प मिलने पर लोग जरूर इस पेशे को छोड़कर कृषि को अपनाएंगे।

औरंगजेब से भी लड़े, अंग्रेजों से भी अड़े

इस क्षेत्र के लोगों ने सदियों से संघर्ष कर अपने अस्तित्व को बचाए रखा है और अभी भी लगता है कि क्षेत्र में लड़ाकुओं की कमी नहीं है। औरंगजेब शासनकाल में मुगल गवर्नर दाऊद खान ने 2 जून 1660 को कुंदा के किले पर कब्जा कर लिया था और ध्वस्त भी कर दिया लेकिन बाद में 17वीं सदी में किले का यह क्षेत्र रामदास राजा के कब्जे में आ गया। 1734 में अलवर्गी खान ने एक बार फिर कुंदा के किले को ध्वस्त कर दिया। समाज सुधारक राजा राम मोहन राय भी इस इलाके में रहे।

बाद में ब्रिटिश शासनकाल में 1857 की सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई यहां पर लड़ी गई। 2 अक्टूबर 1857 को यह लड़ाई लगभग एक घंटे तक चली जिसमें अंग्रेजों ने स्थानीय सेना को परास्त कर दिया और 150 सैनिकों की हत्या भी कर दी। लेकिन इसके पूर्व चतरा के जाबांज सैनिकों ने 56 अंग्रेजी सैनिकों और अधिकारियों को मार गिराया था। इस युद्ध के आरोप में सूबेदार जयमंगल पांडे और नादिर अली खान को 4 अक्टूबर 1857 को फांसी की सजा सुनाई गई।

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