जल्द बने समान संहिता: आज का भारत जाति, मजहब और समुदाय से ऊपर उठ चुका, समान नागरिक संहिता वक्त की जरूरत

गोवा में समान नागरिक संहिता लागू है और इस राज्य के किसी भी समुदाय ने शायद ही कभी यह कहा हो कि उसे इस संहिता से समस्या पेश आ रही है। आखिर जो काम गोवा में हो सकता है वह शेष देश में क्यों नहीं हो सकता?

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Sat, 10 Jul 2021 01:43 AM (IST) Updated:Sat, 10 Jul 2021 01:43 AM (IST)
जल्द बने समान संहिता: आज का भारत जाति, मजहब और समुदाय से ऊपर उठ चुका, समान नागरिक संहिता वक्त की जरूरत
सुप्रीम कोर्ट भी समान नागरिक संहिता की जरूरत जता चुका है।

दिल्ली उच्च न्यायालय ने तलाक के एक मामले की सुनवाई करते हुए समान नागरिक संहिता को वक्त की जरूरत बताकर एक बार फिर इस मसले पर जारी बहस को बल प्रदान करने का काम किया है। अब इस मसले पर केवल बहस ही नहीं होनी चाहिए, बल्कि आगे भी बढ़ा जाना चाहिए, क्योंकि संविधान निर्माताओं की अपेक्षाओं को पूरा करने में जरूरत से ज्यादा देर हो चुकी है। समान नागरिक संहिता का निर्माण करने की दिशा में केवल इसलिए आगे नहीं बढ़ा जाना चाहिए कि संविधान निर्माताओं ने ऐसी अपेक्षा की थी, बल्कि इसलिए भी बढ़ा जाना चाहिए, क्योंकि इससे कई समस्याओं का निराकरण होगा और हमारा समाज अधिक समरस एवं एकजुट दिखेगा। ऐसा इसलिए होगा, क्योंकि समान नागरिक संहिता बन जाने के बाद अलग-अलग समुदायों के लिए शादी, तलाक, गुजारा भत्ता, गोद लेने की प्रक्रिया और विरासत से जुड़े अधिकार एक जैसे हो जाएंगे। आखिर इसमें क्या कठिनाई है? कठिनाई है तो इच्छाशक्ति का अभाव और कुछ राजनीतिक दलों की संकीर्णता।

यह समझ आता है कि संविधान लागू होने के तत्काल बाद का वक्त समान नागरिक संहिता के निर्माण के लिए अनुकूल न रहा हो, लेकिन बीते सात दशकों में बहुत कुछ बदल चुका है और अब भारतीय समाज इस संहिता में ढलने के लिए तैयार है। इसे दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी यह कहकर रेखांकित किया कि आज का भारत जाति, मजहब और समुदाय से ऊपर उठ चुका है और इनसे जुड़ी बाधाएं तेजी से टूट रही हैं। उसने यह भी पाया कि तेजी से हो रहे इस परिवर्तन के कारण अंतरधार्मिक और अंतरजातीय विवाह में समस्या आ रही है। वास्तव में बात केवल इतनी ही नहीं है, बात यह भी है कि कुछ समुदायों के विवाह, तलाक, गोद लेने के मामलों में पर्सनल लॉ लागू होने के कारण महिलाओं और बच्चों के अधिकारों की अनदेखी हो रही है। बेहतर होगा कि केंद्रीय सत्ता दिल्ली उच्च न्यायालय के विचारों को गंभीरता से ले और समान नागरिक संहिता पर सार्थक बहस के लिए इस संहिता का कोई मसौदा तैयार करे। यह काम इसलिए भी होना चाहिए, क्योंकि समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट भी समान नागरिक संहिता की जरूरत जता चुका है। एक तथ्य यह भी है कि गोवा में समान नागरिक संहिता लागू है और इस राज्य के किसी भी समुदाय ने शायद ही कभी यह कहा हो कि उसे इस संहिता से समस्या पेश आ रही है। आखिर जो काम गोवा में हो सकता है, वह शेष देश में क्यों नहीं हो सकता? यह वह सवाल है जिस पर उन लोगों को जवाब देना चाहिए जो संकीर्ण राजनीतिक कारणों से समान नागरिकता संहिता के खिलाफ खड़े रहते हैं।

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