अमेरिका का अजीब फैसला: डब्ल्यूएचओ को जवाबदेह बनाने का समय था न कि वैश्विक दायित्वों से हटना

अमेरिका इसके पहले पेरिस जलवायु समझौते यूनेस्को और कुछ अन्य वैश्विक संस्थाओं से अलग होने के साथ ही डब्ल्यूटीओ से भी किनारा करने की घोषणा कर चुका है।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Wed, 08 Jul 2020 08:52 PM (IST) Updated:Thu, 09 Jul 2020 12:57 AM (IST)
अमेरिका का अजीब फैसला: डब्ल्यूएचओ को जवाबदेह बनाने का समय था न कि वैश्विक दायित्वों से हटना
अमेरिका का अजीब फैसला: डब्ल्यूएचओ को जवाबदेह बनाने का समय था न कि वैश्विक दायित्वों से हटना

अमेरिका ने विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्ल्यूएचओ से अलग होने की आधिकारिक घोषणा करके अच्छा नहीं किया। उसने यह कदम उठाकर अपने वैश्विक दायित्वों से किनारा ही किया है। इससे इन्कार नहीं कि कोरोना वायरस के संक्रमण के मामले में डब्ल्यूएचओ की ढिलाई के कारण दुनिया को गंभीर संकट से दो-चार होना पड़ा, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि संयुक्त राष्ट्र की इस संस्था को और कमजोर किया जाए। यह समय तो इस संस्था को और जवाबदेह एवं सक्षम बनाने के उपाय करने का था, न कि उससे अलग होकर उसे निष्प्रभावी बनाने का। विश्व स्वास्थ्य संगठन के कमजोर होने का मतलब है उस वैश्विक तंत्र का शिथिल होना जो तरह-तरह की बीमारियों को लेकर दुनिया को आगाह करने के साथ उनसे निपटने के तौर-तरीके बताता है।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप डब्ल्यूएचओ से तभी से खफा हैं जबसे कोरोना वायरस ने अमेरिका में कहर बरपाया। वह डब्ल्यूएचओ पर चीन की कठपुतली होने का आरोप लगाते रहे हैं। इस आरोप में कुछ सच्चाई हो सकती है, क्योंकि कोरोना वायरस के संक्रमण के मामले में इस संस्था के प्रमुख चीन की ही बीन बजाते दिखे, लेकिन यदि अमेरिकी प्रशासन यह सोच रहा है कि इस संस्था को आर्थिक सहायता रोकने और उससे अलग हो जाने से उसकी कार्यप्रणाली सुधर जाएगी तो यह सही नहीं। 

अमेरिका के फैसले के बाद तो इसकी ही आशंका बढ़ी है कि कहीं डब्ल्यूएचओ पर चीन का प्रभाव और न बढ़ जाए। क्या इससे बुरा और कुछ हो सकता है कि डब्ल्यूएचओ में चीन सरीखे गैर जिम्मेदार देश का प्रभाव बढ़े? चूंकि अमेरिका डब्ल्यूएचओ को सबसे अधिक अंशदान देने वाला देश है इसलिए उसकी क्षमता में कमी आना तय है। अमेरिका इसकी अनदेखी नहीं कर सकता कि संयुक्त राष्ट्र संस्थाओं की कार्यप्रणाली वही होती है जो सब देश मिलकर तय करते हैं। यदि अमेरिका इन संस्थाओं की कार्यप्रणाली में सुधार चाहता है तो इसका यह तरीका नहीं कि वह उनसे अलग होता जाए। इससे तो वैश्विक मामलों में अमेरिका का प्रभाव कम ही होगा और उसका लाभ उठाएगा अहंकारी चीन।

ध्यान रहे अमेरिका इसके पहले पेरिस जलवायु समझौते, यूनेस्को और कुछ अन्य वैश्विक संस्थाओं से अलग होने के साथ ही डब्ल्यूटीओ से भी किनारा करने की घोषणा कर चुका है। अमेरिका को यह समझ आए तो अच्छा कि वह अपने रवैये से एक तरह से चीन के लिए मैदान खाली करने का काम रहा है। वैश्विक संस्थाओं से अलग होकर अमेरिका अपना प्रभाव कम ही करेगा, क्योंकि तब इन संस्थाओं के फैसलों में उसकी कोई भागीदारी नहीं होगी। बेहतर हो कि ट्रंप प्रशासन डब्ल्यूएचओ से अलग होने के अपने फैसले पर नए सिरे से विचार करे।

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