खुद की कमजोरियों को अपनी नकारात्मक राजनीति से ढकने की कोशिश में विपक्ष

ऐसी नकारात्मक राजनीति किस तरह देश हितों पर भारी पड़ती है इसका उदाहरण है कृषि कानूनों की वापसी। खेती और किसानों के लिए उपयोगी साबित होने वाले इन कानूनों को वापस लिया जाना एक दुर्भाग्यपूर्ण घटनाक्रम ही है।

By Neel RajputEdited By: Publish:Mon, 29 Nov 2021 08:36 AM (IST) Updated:Mon, 29 Nov 2021 08:36 AM (IST)
खुद की कमजोरियों को अपनी नकारात्मक राजनीति से ढकने की कोशिश में विपक्ष
विपक्ष सरकार को हर मोर्चे पर नाकाम बताने के साथ अलोकतांत्रिक साबित करने पर भी तुला है

संसद के प्रत्येक सत्र से पहले सर्वदलीय बैठक बुलाया जाना एक पुरानी परंपरा है। इस परंपरा का निर्वाह भले हो रहा हो, लेकिन वह अपना प्रभाव नहीं छोड़ पा रही है। इसका प्रमुख कारण यही है कि इन बैठकों से संदेश कुछ निकलता है और सदनों में होता कुछ और है। इस तरह की बैठकों में जब सत्ता पक्ष विपक्ष से सकारात्मक सहयोग की अपेक्षा जताता है तो वह उसे पूरा करने की सहमति तो व्यक्त करता है, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात वाला ही रहता है। संसद के शीतकालीन सत्र में ऐसा ही हो तो हैरानी नहीं। इस सत्र में हंगामा होने के आसार हैं, क्योंकि एक तो पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव करीब आ गए हैं और दूसरे विपक्ष खुद की कमजोरियों को अपनी नकारात्मक राजनीति से ढकने की कोशिश कर रहा है।

विपक्षी दलों को यह रास नहीं आ रहा है कि तमाम चुनौतियों के बीच मोदी सरकार अपने दूसरे कार्यकाल का आधा समय सफलतापूर्वक पूरा करने जा रही है। विपक्ष सरकार को हर मोर्चे पर नाकाम बताने के साथ किस तरह अलोकतांत्रिक साबित करने पर भी तुला है, इसका प्रमाण है अधिकांश विपक्षी दलों की ओर से संविधान दिवस पर आयोजित कार्यक्रम का बहिष्कार किया जाना। विपक्षी दलों का ऐसा ही नकारात्मक व्यवहार संसद में भी नजर आए तो आश्चर्य नहीं। ऐसी नकारात्मक राजनीति किस तरह देश हितों पर भारी पड़ती है, इसका उदाहरण है कृषि कानूनों की वापसी। खेती और किसानों के लिए उपयोगी साबित होने वाले इन कानूनों को वापस लिया जाना एक दुर्भाग्यपूर्ण घटनाक्रम ही है।

कायदे से विपक्ष को इस पर आत्ममंथन करना चाहिए कि क्या कृषि कानूनों की वापसी आवश्यक थी? क्या इन कानूनों की वापसी से वास्तव में किसानों का हित होने जा रहा है? यह तय है कि न तो विपक्ष इन प्रश्नों पर विचार करने जा रहा है और न ही वे किसान संगठन जो अभी भी धरने पर बैठे हैं। इसके भरे-पूरे आसार हैं कि संसद के इस सत्र में न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी पर कानून बनाने की मांग विपक्षी दलों की ओर से भी की जाएगी। यह विचित्र है कि यह मांग इसके बावजूद की जा रही है कि अभी एमएसपी व्यवस्था का लाभ मात्र छह प्रतिशत किसान ही उठा पा रहे हैं। मुख्यत: ये पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के वही किसान हैं जो आंदोलनरत हैं। यह समझ आता है कि कई विपक्षी दल अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करने और सरकार को नीचा दिखाने के फेर में आंदोलनरत किसान संगठनों का साथ दे रहे हैं, लेकिन इस बात को समझना कठिन है कि उनकी ओर से उन 94 प्रतिशत किसानों की कहीं कोई बात क्यों नहीं की जा रही है जो अपनी कृषि उपज एमएसपी पर नहीं बेच पाते।

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