भटका हुआ आंदोलन: किसान आंदोलन के 7 माह पूरे होने पर राजभवनों को घेरने का अभियान रहा नाकाम, निष्प्रभावी

विपक्षी दल किसान नेताओं को बरगलाने में लगे हुए हैं। चूंकि विपक्षी दलों का मकसद इस या उस बहाने सरकार को घेरना है इसलिए वे सतही मसले उछालते रहते हैं। इससे यही पता चलता है कि उनके पास ऐसे मुद्दे नहीं जिन पर वे जनता को अपने साथ ले सकें।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Sun, 27 Jun 2021 02:07 AM (IST) Updated:Sun, 27 Jun 2021 02:07 AM (IST)
भटका हुआ आंदोलन: किसान आंदोलन के 7 माह पूरे होने पर राजभवनों को घेरने का अभियान रहा नाकाम, निष्प्रभावी
किसानों का आंदोलन विरोधी दलों के हाथों का खिलौना बन चुका है।

कृषि कानून विरोधी आंदोलन के सात माह पूरे होने के बहाने प्रदर्शनकारियों ने राजभवनों को घेरने का जो अभियान चलाया, वह एक-दो जगह छोड़कर नाकाम और निष्प्रभावी रहा तो इसी कारण कि वह अपनी धार खोने के साथ अपने उद्देश्य से भी भटक चुका है। आंदोलनकारी ले-देकर चंडीगढ़ और दिल्ली में ही थोड़ी-बहुत हलचल पैदा कर सके और वह भी हंगामे के सहारे। इससे साफ हो गया कि आम किसानों का इस आंदोलन से कोई लेना-देना नहीं। लेना-देना हो भी क्यों, उनकी फसलों की रिकार्ड खरीद हुई और पैसा सीधे उनके खातों में पहुंचा। इसके अलावा वे इससे भी परिचित हैं कि विभिन्न फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी लगातार बढ़ रहा है। किसान नेताओं के इस आरोप में कोई दम नहीं कि मोदी सरकार एमएसपी खत्म करने जा रही है। यह बेसिर-पैर का आरोप है और इसे केवल किसानों को बहकाने के लिए उछाला जा रहा है। किसान संगठनों के साथ इस आरोप को उछालने का काम कुछ विपक्षी दल भी कर रहे हैं। वास्तव में अब इस अंदेशे की पुष्टि हो चुकी है कि विपक्षी दल किसान संगठनों को उकसा रहे हैं। गत दिवस राहुल गांधी ने यह ट्वीट करके किसान संगठनों को राजनीतिक दलों की शह मिलने की आशंका पर मुहर ही लगाई कि हम सत्याग्रही अन्नदाता के साथ हैं।

दुर्भाग्य से अपनी नाकामी से कुंठित किसान नेता भी यह छिपाने की कोशिश नहीं कर पा रहे कि उनका आंदोलन विरोधी दलों के हाथों का खिलौना बन चुका है। उन्होंने पहले बंगाल विधानसभा चुनावों में ममता बनर्जी के पक्ष में माहौल बनाया और अब यह कह रहे हैं कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में भाजपा को सबक सिखाएंगे। वे इस मुगालते में हैं कि बंगाल में भाजपा की पराजय उनके कारण हुई। वे इस मुगालते में बने रहें, लेकिन कम से कम यह तो देखें कि आम किसान किस तरह उनसे छिटक गया है। उन्हें यह भी अहसास होना चाहिए कि तीनों कृषि कानूनों को खत्म करने की मांग मनमानेपन के अलावा और कुछ नहीं। यदि किसी संगठन-समूह के कहने से संसद से पारित कानून खत्म होने लगें तो फिर किसी कानून की खैर नहीं। हालांकि विपक्षी दल भी यह जानते हैं कि किसी सरकार के लिए इस तरह की मांग मानना संभव नहीं, लेकिन अपने संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों के फेर में वे किसान नेताओं को बरगलाने में लगे हुए हैं। चूंकि विपक्षी दलों का मकसद इस या उस बहाने सरकार को घेरना है, इसलिए वे सतही मसले उछालते रहते हैं। इससे यही पता चलता है कि उनके पास ऐसे मुद्दे नहीं, जिन पर वे जनता को अपने साथ ले सकें।

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