एक साथ नौ न्यायाधीश: सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में पहली बार एक साथ तीन महिलाएं समेत नौ न्यायाधीशों ने ली शपथ

सरकार राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को नए सिरे से गठित करने की पहल करे क्योंकि यह लोकतंत्र की गरिमा और मर्यादा के प्रतिकूल है कि न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करें। सरकार को न्यायिक सुधारों की दिशा में भी आगे बढ़ना चाहिए।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Wed, 01 Sep 2021 03:27 AM (IST) Updated:Wed, 01 Sep 2021 03:27 AM (IST)
एक साथ नौ न्यायाधीश: सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में पहली बार एक साथ तीन महिलाएं समेत नौ न्यायाधीशों ने ली शपथ
कोलेजियम व्यवस्था के तहत न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं

सुप्रीम कोर्ट में एक साथ नौ न्यायाधीशों को शपथ दिलाया जाना एक ऐतिहासिक क्षण है। ऐसा पहली बार हुआ, जब इतने अधिक न्यायाधीशों को एक साथ शपथ दिलाई गई। खास बात यह रही कि इनमें तीन महिला न्यायाधीश हैं, जिनमें से एक प्रधान न्यायाधीश पद तक पहुंच सकती हैं। इन नए न्यायाधीशों की नियुक्ति के साथ ही वह गतिरोध टूट गया, जो बीते 21 माह से चला आ रहा था। इसके चलते नए न्यायाधीशों की नियुक्ति नहीं हो पा रही थी। इस लंबे गतिरोध का कारण कुछ भी हो, न्यायाधीशों की नियुक्ति में अनावश्यक देरी ठीक नहीं। समझना कठिन है कि जब कोलेजियम व्यवस्था के तहत न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं, तब उनकी समय पर नियुक्ति क्यों नहीं हो पाती? सवाल यह भी है कि आखिर यह कोलेजियम व्यवस्था कब तक अस्तित्व में बनी रहेगी? यह सवाल इसलिए सदैव सिर उठाए रहता है, क्योंकि किसी लोकतांत्रिक देश में न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति नहीं करते। आखिर भारत में ऐसा क्यों होता है? यह प्रश्न केवल सुप्रीम कोर्ट के समक्ष ही नहीं, संसद और सरकार के सामने भी है। यह सही है कि सुप्रीम कोर्ट ने संसद द्वारा पारित राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की स्थापना करने वाले संवैधानिक संशोधन को निरस्त कर दिया था, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि न्यायाधीशों द्वारा अपने साथियों को नियुक्त करने वाली कोलेजियम व्यवस्था को संविधानसम्मत मान लिया जाए।

बेहतर होगा कि सरकार राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को नए सिरे से गठित करने की पहल करे, क्योंकि यह लोकतंत्र की गरिमा और मर्यादा के प्रतिकूल है कि न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करें। सरकार को न्यायिक सुधारों की दिशा में भी आगे बढ़ना चाहिए, क्योंकि वे लंबे अर्से से लंबित हैं। न्यायिक सुधारों की ओर कदम बढ़ाए बिना न तो लंबित मुकदमों के भारी-भरकम बोझ से छुटकारा पाया जा सकता है और न ही लोगों को समय पर न्याय उपलब्ध कराया जा सकता है। इसका कोई औचित्य नहीं कि अन्य क्षेत्रों में तो सुधारों का सिलसिला आगे बढ़ता दिखे, लेकिन न्याय के क्षेत्र में वह ठहरा हुआ नजर आए। यदि यह समझा जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में न्यायाधीशों के रिक्त पद भरने मात्र से अभीष्ट की पूर्ति हो जाएगी तो यह सही नहीं। लोगों को समय पर न्याय सुलभ कराने के लिए और भी बहुत कुछ करने की जरूरत है। इस जरूरत की पूर्ति में खुद न्यायपालिका को भी सहायक बनना होगा। यह विचित्र है कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की ओर से समय-समय पर न्यायिक सुधारों की आवश्यकता को तो रेखांकित किया जाए, लेकिन उस दिशा में कोई ठोस पहल न की जाए।

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