जरूरत चुनावी बांड पर हंगामा करने की नहीं वैकल्पिक व्यवस्था को लेकर गंभीरता दिखाने की है

यदि चुनावी बांड की व्यवस्था में खामियां हैं तो आवश्यक यह है कि राजनीतिक दल उन्हें दूर करने के उपाय बताएं।

By Dhyanendra SinghEdited By: Publish:Fri, 22 Nov 2019 12:08 AM (IST) Updated:Fri, 22 Nov 2019 12:12 AM (IST)
जरूरत चुनावी बांड पर हंगामा करने की नहीं वैकल्पिक व्यवस्था को लेकर गंभीरता दिखाने की है
जरूरत चुनावी बांड पर हंगामा करने की नहीं वैकल्पिक व्यवस्था को लेकर गंभीरता दिखाने की है

संसद के दोनों सदनों में चुनावी बांड को लेकर जो हल्ला हुआ उससे यही इंगित होता है कि मकसद हंगामा खड़ा करना अधिक था, न कि समस्या के सही समाधान पर चिंतन करना। हालांकि दो साल पहले जब चुनावी बांड संबंधी योजना लाई गई थी तभी यह स्पष्ट था कि यह व्यवस्था चुनावी चंदे को लेकर उठने वाले सभी सवालों का समाधान नहीं करती, लेकिन विपक्षी दलों ने न तो तब चुनावी चंदे की बेहतर व्यवस्था को लेकर कोई ठोस सुझाए दिए और न ही अब दे रहे हैं। यह भी कोई छिपी बात नहीं कि चुनावी बांड पर निर्वाचन आयोग ने भी अपनी आपत्ति जताई थी। 

अब यह कहा जा रहा है कि चुनावी बांड पर रिजर्व बैंक की भी राय सरकार के रुख से अलग थी। ऐसा हो सकता है, लेकिन क्या राजनीतिक दलों के लिए चुनावी चंदे की व्यवस्था तय करने का अधिकार रिजर्व बैंक के पास है? यह काम तो राजनीतिक दलों का है।

यदि चुनावी बांड की व्यवस्था में खामियां हैं तो आवश्यक यह है कि राजनीतिक दल उन्हें दूर करने के उपाय बताएं। आखिर जब वे यह मान रहे हैं कि चुनावी बांड से पहले की व्यवस्था भी खामियों से भरी थी तो फिर केवल हंगामा खड़ा करने से क्या हासिल होने वाला है?

विपक्षी दलों को इस पर आपत्ति है कि चुनावी बांड खरीदकर राजनीतिक दलों को देने वालों की पहचान गोपनीय रहती है, लेकिन वे इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि जब पहचान उजागर करने का चलन था तो राजनीतिक दलों को चंदा देने वालों और खासकर उद्योगपतियों को किस तरह निशाना बनाया जाता था।

कई बार तो ऐसा राजनीतिक बदले की भावना के तहत किया जाता था। यह कहना एक सीमा तक ही सही है कि चुनावी बांड की व्यवस्था से सत्ताधारी दल को अनुचित लाभ मिल रहा है, क्योंकि कोई भी दल सदैव सत्ता में नहीं रहता।

चूंकि चुनावी बांड वाली व्यवस्था का निर्माण करते समय सरकार ने यह वायदा किया था कि इसमें सुधार के सुझाव सामने आए तो उन्हें शामिल किया जाएगा इसलिए बेहतर होगा कि इस पर ईमानदारी से विचार-विमर्श किया जाए कि चुनावी चंदे की पारदर्शी व्यवस्था कैसे बने?

क्या यह विचित्र नहीं कि राजनीतिक दल यह नहीं तय कर पा रहे हैं कि उन्हें मिलने वाले चंदे की पारदर्शी व्यवस्था कैसे बने? ऐसा तब है जब वे यह अच्छे से जान रहे हैं कि चुनावों में कालेधन की भूमिका बढ़ती जा रही है। जब पैसे के बलबूते चुनाव लड़ने का सिलसिला तेज होता जा रहा हो तब जरूरत चुनावी बांड पर हंगामा करने की नहीं, बल्कि वैकल्पिक व्यवस्था को लेकर गंभीरता दिखाने की है।

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