हैदराबाद मुठभेड़ जनाआक्रोश के दबाव में या फिर वाकई आत्मरक्षा में चारों दरिंदों को मार गिराया

नीति-नियंताओं को यह समझने की जरूरत है कि संचार तकनीक के जरिये हो रहे अश्लीलता के प्रसार ने एक गंभीर सामाजिक समस्या का रूप ले लिया है।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Sat, 07 Dec 2019 12:55 AM (IST) Updated:Sat, 07 Dec 2019 12:55 AM (IST)
हैदराबाद मुठभेड़ जनाआक्रोश के दबाव में या फिर वाकई आत्मरक्षा में चारों दरिंदों को मार गिराया
हैदराबाद मुठभेड़ जनाआक्रोश के दबाव में या फिर वाकई आत्मरक्षा में चारों दरिंदों को मार गिराया

हैदराबाद में सामूहिक दुष्कर्म के चार आरोपी जिस तरह पुलिस मुठभेड़ में ढेर कर दिए गए उसे लेकर केवल सवाल ही नहीं उठाए जा रहे हैैंं, बल्कि खुशी भी जताई जा रही है। पुलिस की कार्रवाई को सही ठहराने और यहां तक कि उसे न्याय की संज्ञा देने वालों में आम आदमी के साथ सांसद भी शामिल हैैं। ऐसा तब है जब इस मुठभेड़ से जुड़े कई प्रश्न अनुत्तरित हैैं और हर कोई इससे अवगत है कि पुलिस कई बार फर्जी मुठभेड़ों को भी अंजाम देती है। फर्जी मुठभेड़ें भीड़ की हिंसा का ही एक रूप हैैं।

यह जल्द सामने आना ही न्याय के हित में होगा कि हैदराबाद पुलिस ने जनाआक्रोश के दबाव में आकर मुठभेड़ को अंजाम दे दिया या फिर उसने वाकई आत्मरक्षा में सामूहिक दुष्कर्म कांड के आरोपियों को मार गिराया? यदि इस सवाल का जवाब सामने आने के पहले ही एक बड़े वर्ग की ओर से हैदराबाद पुलिस की कार्रवाई को जायज बताया जा रहा है तो इसकी जड़ में दुष्कर्म के मामलों का बढ़ना, महिला सुरक्षा का सवाल कहीं अधिक गंभीर हो जाना और न्यायिक तंत्र का शिथिल होना है। इस शिथिलता का शर्मनाक प्रमाण है सात साल पहले देश को दहलाने वाले निर्भया कांड के गुनहगारों की दी गई सजा पर अमल न हो पाना।

किसी को सामने आकर यह बताना ही चाहिए कि आखिर निर्भया के गुनहगारों की सजा पर अमल में देरी के लिए कौन जिम्मेदार है? केवल यही नहीं, इस सवाल का जवाब भी मिलना चाहिए कि दुष्कर्म की घटनाओं के निस्तारण में जरूरत से ज्यादा देरी क्यों हो रही है और ऐसे मामलों में दोष सिद्धि की दर इतनी कम क्यों है? क्या निर्भया कांड के बाद कानूनों में तमाम संशोधन यही दिन देखने के लिए किए गए थे? अगर नहीं तो फिर हालात जस के तस, बल्कि उससे भी बदतर क्यों दिख रहे हैैं? समाज को इन सवालों का जवाब मांगने के साथ ही इस पर भी गौर करना होगा कि दुष्कर्मी तत्व कहीं बाहर से नहीं आते। वे समाज का ही हिस्सा होते हैैं। आम तौर पर ये वही तत्व होते हैैं जो सरे आम महिलाओं पर फब्तियां कसते हैैं और उन्हें वासना की पूर्ति का साधन मात्र समझते हैैं।

समाज को अपने बीच सक्रिय ऐसे तत्वों पर लगाम लगाने के लिए कुछ करना ही होगा। वास्तव में एक ओर जहां समाज को महिलाओं को ओछी निगाह से देखने वालों के खिलाफ सक्रिय होने की जरूरत है वहीं दूसरी ओर नीति-नियंताओं को यह समझने की जरूरत है कि संचार तकनीक के जरिये हो रहे अश्लीलता के प्रसार ने एक गंभीर सामाजिक समस्या का रूप ले लिया है।

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