अड़ियल रवैये पर कायम किसान नेता, गलतफहमी का हैं शिकार, कर रहे जमीनी हकीकत की अनदेखी

कृषि कानूनों की वापसी का एलान करने के बाद भी किसान नेता अड़े हुए हैं। हालांकि इन कानूनों का विरोध करने वाले किसान नेता गलतफहमी का शिकार हैं। उन्‍हें इस बात की गलतफहमी है कि वो पूरे देश के किसानों का प्रतिनिधित्‍व करते हैं।

By Kamal VermaEdited By: Publish:Tue, 23 Nov 2021 11:05 AM (IST) Updated:Tue, 23 Nov 2021 11:05 AM (IST)
अड़ियल रवैये पर कायम किसान नेता, गलतफहमी का हैं शिकार, कर रहे जमीनी हकीकत की अनदेखी
पूरे देश के किसानों का प्रतिनिधित्‍व नहीं करते किसान नेता

लखनऊ में जमा किसान नेताओं ने अपनी मांगों को लेकर जो कुछ कहा उससे यह स्पष्ट है कि वे अपने अड़ियल रवैये पर कायम रहना चाहते हैं। समस्या केवल यह नहीं है कि वे अपनी ही चलाने पर आमादा हैं, बल्कि यह भी है कि उनकी ओर से ऐसा प्रकट किया जा रहा है जैसे वे देश के समस्त किसानों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। सच्चाई यह है कि संयुक्त किसान मोर्चे के नेता केवल ढाई राज्यों अर्थात पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों का हित साध रहे हैं। इनमें भी वे किसान हैं जो कहीं अधिक समर्थ हैं।

यह एक तथ्य है कि इस किसान आंदोलन में न तो देश के आम किसानों की भागीदारी है और न ही पूर्वी, पश्चिमी, दक्षिणी और मध्य भारत के किसान नेताओं की। यही कारण है कि जिस किसान आंदोलन को राष्ट्रव्यापी बताया जा रहा है वह दिल्ली और उसके आसपास ही केंद्रित है। संयुक्त किसान मोर्चे के नेता ऐसा भी कोई दावा नहीं कर सकते कि वे देश के सभी किसानों की मांगों को सामने रख रहे हैं, क्योंकि सच्चाई तो यही है कि वे उन किसानों के हितों को संरक्षित करने में लगे हुए हैं जो न्यूनतम समर्थन मूल्य का सर्वाधिक लाभ उठाते हैं।

एक समस्या यह भी है कि किसान नेता खेती-किसानी में हो रहे परिवर्तन से भी अनजान हैं और यह समझने को भी तैयार नहीं कि आज के इस दौर में खेती में क्या और कैसे बदलाव लाने की जरूरत है। वे इसकी जानबूझकर अनदेखी कर रहे हैं कि देश में तमाम किसान ऐसे हैं जिन्होंने आधुनिक खेती के तौर-तरीकों को अपनाकर अपनी समस्याओं से मुक्ति पाई है। आखिर जब छोटे एवं मझोले किसान ऐसा कर सकते हैं तो समर्थ किसान क्यों नहीं कर सकते। वास्तव में किसान नेता उस परंपरागत खेती की पैरवी कर रहे हैं जो धीरे-धीरे घाटे का सौदा बनती जा रही है।

विडंबना यह है कि इसके बावजूद वे न तो फसल चक्र में बदलाव लाने को तैयार हैं और न ही यह समझने को कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेती एवं कृषि उपज का व्यापार क्या रूप ले रहा है। किसान नेता अब अपनी जिन नई मांगों को लेकर सामने आ गए हैं उनमें से कुछ तो ऐसी हैं जिन्हें मानने से न केवल खेती का बेड़ा गर्क हो जाएगा, बल्कि पर्यावरण को भी और अधिक गंभीर क्षति पहुंचेगी। किसान नेताओं की मांगें मानने से सब्सिडी का जो मौजूदा ढांचा है वह भी ध्वस्त हो जाएगा। संयुक्त किसान मोर्चा इस पर अड़ गया है कि एमएसपी पर खरीद का गारंटीशुदा कानून बने। ऐसा कोई कानून किसानों की समस्याओं को बढ़ाने वाला और कृषि उपज खरीद की मौजूदा व्यवस्था को ध्वस्त करने वाला ही होगा।

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